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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 11
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तम॑ग्ने पास्यु॒त तं पि॑पर्षि॒ यस्त॒ आन॑ट्क॒वये॑ शूर धी॒तिम्। य॒ज्ञस्य॑ वा॒ निशि॑तिं॒ वोदि॑तिं वा॒ तमित्पृ॑णक्षि॒ शव॑सो॒त रा॒या ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । अ॒ग्ने॒ । पा॒सि॒ । उ॒त । तम् । पि॒प॒र्षि॒ । यः । ते॒ । आन॑ट् । क॒वये॑ । शू॒र॒ । धी॒तिम् । य॒ज्ञस्य॑ । वा॒ । निऽशि॑तिम् । वा॒ । उत्ऽइ॑तिम् । वा॒ । तम् । इत् । पृ॒ण॒क्षि॒ । शव॑सा । उ॒त । रा॒या ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमग्ने पास्युत तं पिपर्षि यस्त आनट्कवये शूर धीतिम्। यज्ञस्य वा निशितिं वोदितिं वा तमित्पृणक्षि शवसोत राया ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। अग्ने। पासि। उत। तम्। पिपर्षि। यः। ते। आनट्। कवये। शूर। धीतिम्। यज्ञस्य। वा। निऽशितिम्। वा। उत्ऽइतिम्। वा। तम्। इत्। पृणक्षि। शवसा। उत। राया ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 11
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे शूराग्ने ! यस्त आज्ञामानट् तस्मै कवये धीतिं ददासि तं पास्युत तं पिपर्षि वा यज्ञस्य निशितिम् [उदितिम्] वा पृणक्षि तं वा शवसोत राया सह पृणक्षि स इद्भवानुपास्योऽस्ति ॥११॥

    पदार्थः

    (तम्) (अग्ने) अविद्यान्धकारविनाशक (पासि) रक्षसि (उत) अपि (तम्) (पिपर्षि) पालयसि सद्गुणैः पूरयसि वा (यः) (ते) तव (आनट्) व्याप्नोति (कवये) विदुषे (शूर) निर्भय दुष्टदोषविनाशक (धीतिम्) धारणाम् (यज्ञस्य) (वा) (निशितिम्) नितरां तीक्ष्णताम् (वा) (उदितिम्) उदयम् (वा) (तम्) (इत्) एव (पृणक्षि) सम्बध्नासि (शवसा) बलेन (उत) अपि (राया) धनेन ॥११॥

    भावार्थः

    ये सत्यभावेन जगदीश्वरमुपासते तानीश्वरः सर्वतः संरक्ष्य धर्म्यगुणकर्म्मस्वभावेषु प्रेरयित्वा शरीरात्मबलं प्रदाय मोक्षं नयति ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (शूर) भयरहित दुष्ट दोषों के विनाश करने और (अग्ने) अविद्यारूप अन्धकार के नाश करनेवाले (यः) जो (ते) आपकी आज्ञा को (आनट्) व्याप्त होता है उस (कवये) विद्वान् के लिये (धीतिम्) धारणा को देते हो (तम्) उसकी (पासि) रक्षा करते हो (उत) और (तम्) उसकी (पिपर्षि) पालना करते वा श्रेष्ठ गुणों से पूरित करते हो (वा) वा (यज्ञस्य) यज्ञ की (निशितिम्) अत्यन्त तीक्ष्णता का वा (उदितिम्) उदय का (वा) वा (पृणक्षि) सम्बन्ध करते हो (तम्) उसका (वा) वा (शवसा) बल से (उत) और (राया) धन से भी सम्बन्ध करते हो वह (इत्) ही आप उपासना करने योग्य हैं ॥११॥

    भावार्थ

    जो सत्यभाव से जगदीश्वर की उपासना करते हैं, उनकी ईश्वर सब प्रकार से रक्षा कर धर्म्मयुक्त गुण, कर्म और स्वभावों में प्रेरणा कर तथा शरीर और आत्मा का बल अच्छे प्रकार देकर मोक्ष को प्राप्त कराता है ॥११॥

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    विषय

    गुरु के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे प्रभो ! विद्वन् ! हे अग्ने ) ज्ञानवन् हे तेजस्विन् ! ( यः) जो (ते कवये) तुझ क्रान्तदर्शी, परम ज्ञानवान् पुरुष के ( धीतिं ) धारण करने योग्य ज्ञान को प्राप्त करता है है ( शूर ) शूरवीर, पापों के नाशक ! ( तं पासि ) तू उसका पालन करता है, ( उत ) और ( तं ) उसको ही ( पिपर्षि ) पालन पोषण करता है, और हे प्रभो ! विद्वन् ! जो पुरुष तेरे निमित्त ( यज्ञस्य निशितिं वा) पूजा का आदर सत्कार की तीव्रता और ( उद्-इतिं वा ) उद्गमन, उत्तम मार्ग की ओर बढ़ना और पूज्य के प्रति अभ्युत्थान अर्थात् आदर पूर्वक खड़े होने आदि सत्कार को भी ( आनट् ) करता है, तू (तम् इत् ) उसको ही ( शवसा उत राया ) बल और धन दोनों से ही ( पृणक्षि ) पालन करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, २, ५ निचृज्जगती । ३ निचृदतिजगती । ७ जगती । ८ विराङ्जगती । ४, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९, १०, ११, १६, १९ त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृदतिशक्करी । १२ पंक्ति: । १५ ब्राह्मी बृहती । १७ विराडनुष्टुप् । १८ स्वराडनुष्टुप् ।। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    धीति, यज्ञ की निशिति व उदिति

    पदार्थ

    [१] हे शूर-शत्रुओं का हिंसन करनेवाले (अग्ने) = परमात्मन् ! (तं पासि) = आप उसको रक्षित करते हैं, (उत) = और तं (पिपर्षि) = उसका पालन व पूरण करते हैं, (यः) = जो (कवये ते) = क्रान्तदर्शी सर्वज्ञ आपकी प्राप्ति के लिये (धीतिं आनट्) = सोम के पान का व्यापन करता है, शरीर में सोमरक्षण के द्वारा सोम परमात्मा को पाने का यत्न करता है । [२] (वा) = अथवा जो (यज्ञस्य =) यज्ञात्मक कर्मों की (निशितिम्) = तीक्ष्णता को, प्रबल कामना को (वा) = अथवा (उदितिम्) = यज्ञों के उत्कर्ष को (आनट्) = व्याप्त करता है, (तं इत्) = उसको ही (शवसा) = शक्ति से (उत) = और (राया) = ऐश्वर्य से (पृणक्षि) = पूरित करते हैं। आप से शक्ति व धन को प्राप्त करके यह और अधिक यज्ञशील होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम के रक्षण, यज्ञों की प्रबल कामना व यज्ञों के उत्कर्ष से हमें प्रभु का रक्षण प्राप्त होता है। प्रभु हमें शक्ति व धन प्राप्त कराते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे सत्यभावनेने जगदीश्वराची उपासना करतात, ईश्वर त्यांचे सर्व प्रकारे रक्षण करून धर्मयुक्त गुण, कर्म, स्वभावात प्रेरणा देतो. शरीर व आत्म्याचे बल चांगल्या प्रकारे वाढवून मोक्ष प्राप्त करवितो. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light and grace, him you protect and promote with fulfilment who dedicates his thought and action to you and meditates on you, lord omnipotent of universal vision and poetic creation. And whoever offers you rising flames of yajna and progressive action, you shower him with wealth, power, honour and courage.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The way God acts and He is adored is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Fearless Destroyer of the wicked and all evils! O Dispeller of the darkness of ignorance! you cherish, and protect or fill with noble virtues, that far-sighted enlightened person who obeys to your commands. You give him the power of concentration. You unite him with the inception '(commencement) and accomplishment of the Yajna (non-violent sacrifice or philanthropic act). You endow him with power and wealth. Therefore you are Adorable.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who adore God sincerely, He protects them from all side, inspires them to have righteous virtues, actions and temperament and endowed them with physical and spiritual power, leading them at last the emancipation.

    Foot Notes

    (अग्ने) अविद्यान्धकार विनाशक | = Dispeller of the darkness of ignorance. (शूर) निर्भयदुष्टदोषाविनाशक । (शूर) शु-हिंसायाम् (त्वया ) । = Fearless Destroyer of the wicked and all evils. ( निशितम्) नितरां तीक्ष्णताम् । नि + शो तनूकरणे ( दिवा० ) । = Sharpness or accomplishment.

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