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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 18
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    जनि॑ष्वा दे॒ववी॑तये स॒र्वता॑ता स्व॒स्तये॑। आ दे॒वान् व॑क्ष्य॒मृताँ॑ ऋता॒वृधो॑ य॒ज्ञं दे॒वेषु॑ पिस्पृशः ॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जनि॑ष्व । दे॒वऽवी॑तये । स॒र्वऽता॑ता । स्व॒स्तये॑ । आ । दे॒वान् । व॒क्षि॒ । अ॒मृता॑न् । ऋ॒त॒ऽवृधः॑ । य॒ज्ञम् । दे॒वेषु॑ । पि॒स्पृ॒शः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जनिष्वा देववीतये सर्वताता स्वस्तये। आ देवान् वक्ष्यमृताँ ऋतावृधो यज्ञं देवेषु पिस्पृशः ॥१८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जनिष्व। देवऽवीतये। सर्वऽताता। स्वस्तये। आ। देवान्। वक्षि। अमृतान्। ऋतऽवृधः। यज्ञम्। देवेषु। पिस्पृशः ॥१८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 18
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैः सृष्टेः कः क उपकारो ग्रहीतव्य इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वंस्त्वं देववीतये स्वस्तये सर्वताताऽमृतानृतावृधो देवानाऽऽवक्षि देवेषु यज्ञं पिस्पृशोऽनेन सुखानि जनिष्वा ॥१८॥

    पदार्थः

    (जनिष्वा) जनय। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (देववीतये) दिव्यगुणप्राप्तये (सर्वताता) सर्वसुखकरे शिल्पमये यज्ञे (स्वस्तये) सुखलब्धये (आ) (देवान्) दिव्यान् गुणान् भोगान् वा (वक्षि) वह (अमृतान्) नाशरहितान् (ऋतावृधः) सत्यव्यवहारवर्धकान् (यज्ञम्) सुखप्रदम् (देवेषु) विद्वत्सु (पिस्पृशः) स्पर्शय ॥१८॥

    भावार्थः

    विद्वद्भिः सृष्टिस्थपदार्थेभ्यो विद्यया दिव्यान् भोगान् प्राप्य स्वार्थं बहुविधं सुखं जननीयम् ॥१८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों को सृष्टि से कौन-कौन उपकार ग्रहण करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! आप (देववीतये) श्रेष्ठ गुणों की प्राप्ति के लिये और (स्वस्तये) सुख की प्राप्ति के लिये (सर्वताता) सम्पूर्ण सुख के करनेवाले शिल्प=कारीगरीरूप यज्ञ में (अमृतान्) नाशरहित (ऋतावृधः) सत्यव्यवहार के बढ़ानेवाले (देवान्) श्रेष्ठ गुणों वा भोगों को (आ, वक्षि) प्राप्त कराइये और (देवेषु) विद्वानों में (यज्ञम्) सुख के देनेवाले यज्ञ का (पिस्पृशः) स्पर्श कराइये, इससे सुखों को (जनिष्वा) प्रकट कीजिये ॥१८॥

    भावार्थ

    विद्वानों को चाहिये कि सृष्टि में वर्त्तमान पदार्थों से विद्या के द्वारा श्रेष्ठ भोगों को प्राप्त होकर अपने लिये अनेक प्रकार के सुख को उत्पन्न करें ॥१८॥

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    विषय

    उसका लक्ष्य राज्य यज्ञ का धारण और उत्तम कर्माचरण ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) तेजस्विन् नायक ! विद्वन् ! प्रभो ! तू ( स्वस्तये ) कल्याण करने के लिये ( सर्वताता ) सबके हितार्थं सर्वत्र और ( देव-वीतये ) उत्तम गुणों का प्रकाश करने और उत्तम पदार्थों को प्राप्त करने के लिये ( जनिष्व ) उत्पन्न वा प्रकट हो । तू ( ऋत-वृधः ) सत्यज्ञान, न्यायव्यवहार और ऐश्वर्य को बढ़ाने वाले ( अमृतान् ) दीर्घायु ( देवान् ) मनुष्यों को (आ वक्षि ) सब स्थानों से प्राप्त कर और धारण कर । ( देवेषु ) उन विद्वानों, वीरों और धनार्थी व्यवहारकुशल पुरुषों के आश्रम पर ( यज्ञं पिस्पृशः ) राज्यपालन रूप यज्ञ को धारण कर, दान आदि उत्तम कार्य कर ।

    टिप्पणी

    दातव्य पदार्थ को स्पर्श करना यह मुहावरा दान देने अर्थ में प्रयुक्त होता है जैसे— ‘स्पर्शयता घटोघ्नी’ रघु० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, २, ५ निचृज्जगती । ३ निचृदतिजगती । ७ जगती । ८ विराङ्जगती । ४, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९, १०, ११, १६, १९ त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृदतिशक्करी । १२ पंक्ति: । १५ ब्राह्मी बृहती । १७ विराडनुष्टुप् । १८ स्वराडनुष्टुप् ।। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    देववीतये स्वस्तये

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (जनिष्व) = हमारे में प्रादुर्भूत होइये । (देववीतये) = दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिये तथा (सर्वताता) = इस सब गुणों के विस्तारवाले जीवन यज्ञ में (स्वस्तये) कल्याण के लिये । प्रभु का प्रादुर्भाव दिव्यगुणों को प्राप्त कराता है और कल्याण का साधक होता है । [२] हे प्रभो ! आप (देवान्) = दिव्यगुणों को आवक्षि हमें प्राप्त कराइये। (अमृतान्) = जो दिव्यगुण हमें नीरोगता को देनेवाले हैं तथा (ऋतावृधः) = हमारे में ऋत का [ठीक का] वर्धन करनेवाले हैं। इन (देवेषु) = दिव्यगुणों की वृत्तिवाले पुरुषों में आप (यज्ञं पिस्पृशः) = यज्ञ को प्राप्त कराइये ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु कृपा से दिव्यगुणों व स्वस्ति [कल्याण] को प्राप्त करें। नीरोग व ऋतमय जीवन बनकर यज्ञशील हों ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांनी विद्येद्वारे सृष्टीतील पदार्थांपासून श्रेष्ठ भोग प्राप्त करावेत व स्वतःसाठी विविध प्रकारचे सुख प्राप्त करावे. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Produce the fire and generate the energy for noble humanity, for universal good and total well being. Bring up the brilliant scholars together, collect generous and imperishable energies of nature which advance the truth of science and glorify the laws of nature, and let the yajna reach the heights of heaven.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What benefits should men take out of the articles of creation is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned person! for the attainment of divine virtues for the welfare or happiness of all, bring immortal divine qualities or enjoyments which augment truthful conduct in this Yajna which bestows happiness on all, and belongs to (part of Ed.) technology. Let this Yajna which gives joy, touch the hearts of the enlightened persons and by this create happiness everywhere.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The enlightened persons should create happiness of various kinds for themselves and others by obtaining divine enjoyments from the articles of the world through right knowledge.

    Foot Notes

    ( देववीतये ) दिव्यगुणप्राप्तये । वी-गतिव्याप्तिप्रजन कान्त्यसन खादनेषु (अ० ) अत्र गतेस्त्रिष्वर्थेषु प्राप्त्यर्थग्रहणम्। = For the attainment of the divine virtues. ( सर्वताता ) सर्वसुखकरे शिल्पमये यज्ञ | = In the Yajna consisting of technology which gives happiness. (देवान् ) दिव्यान् गुणान् भोगान् वा । तनु-विस्तारे | = Divine virtues of enjoyments.

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