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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 13
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ग्निर्होता॑ गृ॒हप॑तिः॒ स राजा॒ विश्वा॑ वेद॒ जनि॑मा जा॒तवे॑दाः। दे॒वाना॑मु॒त यो मर्त्या॑नां॒ यजि॑ष्ठः॒ स प्र य॑जतामृ॒तावा॑ ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । होता॑ । गृ॒हऽप॑तिः । सः । राजा॑ । विश्वा॑ । वे॒द॒ । जनि॑म । जा॒तऽवे॑दाः । दे॒वाना॑म् । उ॒त । यः । मर्त्या॑नाम् । यजि॑ष्ठः । सः । प्र । य॒ज॒ता॒म् । ऋ॒तऽवा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्होता गृहपतिः स राजा विश्वा वेद जनिमा जातवेदाः। देवानामुत यो मर्त्यानां यजिष्ठः स प्र यजतामृतावा ॥१३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। होता। गृहऽपतिः। सः। राजा। विश्वा। वेद। जनिम। जातऽवेदाः। देवानाम्। उत। यः। मर्त्यानाम्। यजिष्ठः। सः। प्र। यजताम्। ऋतऽवा ॥१३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 13
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यो गृहपतिरिव होता जातवेदाः सर्वस्य राजा ऋतावा यजिष्ठोऽग्निर्देवानामुत मर्त्यानां विश्वा जनिमा वेद सोऽस्मान् प्र यजतां सोऽस्माकं राजास्त्विति वयं निश्चिनुमस्तथा यूयमप्यवगच्छत ॥१३॥

    पदार्थः

    (अग्निः) सर्वप्रकाशकः (होता) धर्त्ता (गृहपतिः) गृहस्य पालक इव ब्रह्माण्डस्य प्रबन्धकर्त्ता (सः) (राजा) सर्वेषां न्यायकर्त्ता (विश्वा) सर्वाणि (वेद) जानाति (जनिमा) जन्मानि (जातवेदाः) यो जातान्त्सर्वान् वेत्ति सः (देवानाम्) दिव्यानां पदार्थानां विदुषां वा मध्ये (उत) अपि (यः) (मर्त्यानाम्) सङ्गमयतु (ऋतावा) सत्यासत्ययोर्विभाजकः ॥१३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! योऽखिलस्य जगतो जीवानां च कर्म्माणि विदित्वा फलानि प्रयच्छति स एव सत्यो राजास्तीति वेदितव्यम् ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! (यः) जो (गृहपतिः) गृह का पालक जैसे वैसे ब्रह्माण्ड का प्रबन्ध करने (होता) धारण करने तथा (जातवेदाः) प्रकट हुए पदार्थों को जाननेवाला और सब का (राजा) न्याय करने तथा (ऋतावा) सत्य और असत्य का विभाग करने (यजिष्ठः) अतिशय यज्ञ करने वा पदार्थों का मेल करनेवाला (अग्निः) सब का प्रकाशक (देवानाम्) दिव्य पदार्थों वा विद्वानों के मध्य में (उत) (मर्त्यानाम्) मनुष्यों के (विश्वा) सम्पूर्ण (जनिमा) जन्मों को (वेद) जानता है (सः) वह हम लोगों को (प्र, यजताम्) अत्यन्त प्राप्त करावे (सः) वह हम लोगों का राजा होवे, ऐसा हम लोग निश्चय करते हैं, वैसे आप लोग भी जानो ॥१३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो सम्पूर्ण जगत् और जीवों के कर्म्मों को जानकर फलों को देता है, वही सत्य राजा है, ऐसा जानना चाहिये ॥१३॥

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    विषय

    ‘जातवेदा’ का लक्षण । 'अग्नि' का लक्षण, उसके होता, गृहपति आदि अन्वर्थं नाम ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( देवानाम् ) प्रकाश करने वाले सूर्य आदि लोकों और ज्ञानैश्वर्य के देने वाले विद्वानों, ऐश्वर्यवानों और कामना वाले ( मर्त्यानां ) मरणशील मनुष्यों और अन्य प्राणधारियों को (विश्वा) समस्त ( जनिमा ) उत्पत्ति के रहस्यों को ( वेद ) जानता है ( सः ) वही ( जात-वेदाः ) समस्त उत्पन्न पदार्थों को जानने हारा होने से ही ‘जातवेदाः’ है । ( सः ) वह ( यजताम् यजिष्ठा: ) दानशीलों में सबसे बड़ा दानशील, ( ऋत-वा ) ज्ञान, सत्य न्याय, तेज और धनैश्वर्य का स्वामी परमेश्वर (अग्निः ) सबका अग्रणी, सबसे पूर्व विद्यमान होने से अग्निवत् स्वप्रकाशक है और अन्यों को प्रकाशित करने से ‘अग्नि’ है । ( सः होता ) वही स्वयं सबका दाता और सबको अपने में आहुति करने वाला होने से ‘होता’ है और वही ( गृहपतिः ) गृह स्वामी के समान विश्व का पालक होने से ‘गृहपति’ है ( सः राजा ) और वही राष्ट्र में राजा के समान समस्त ब्रह्माण्ड का राजा है। ‘अग्नि’ देवता वाले मन्त्रों में प्रायः सर्वत्र अग्नि, विद्युत् तत्व के वर्णन के साथ २ गृहपति, राष्ट्रपति नायक राजा और कुलपति आचार्य विद्वान् और परमेश्वर का समान वाक्यरचना से ही वर्णन किया गया है। जिनका स्पष्टीकरण स्थान २ पर किया गया है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, २, ५ निचृज्जगती । ३ निचृदतिजगती । ७ जगती । ८ विराङ्जगती । ४, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९, १०, ११, १६, १९ त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृदतिशक्करी । १२ पंक्ति: । १५ ब्राह्मी बृहती । १७ विराडनुष्टुप् । १८ स्वराडनुष्टुप् ।। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    यजिष्ठ: यजताम्

    पदार्थ

    [१] (अग्निः) = वे अग्रेणी प्रभु (होता) = इस सृष्टियज्ञ के होता हैं, सब कुछ देनेवाले हैं (गृहपतिः) = वे सब घरों के रक्षक हैं। (सः) = राजा वे ही शासक हैं। वे जातवेदाः- सर्वज्ञ प्रभु (विश्वा जनिमा) = सब जन्मों, विकासों को वेद - जानते हैं। प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले सूर्य आदि को वे जानते हैं और साथ ही जीवों के भिन्न-भिन्न शरीरों के धारण करने को वे जानते हैं । [२] वे (यः) = जो अग्नि प्रभु (देवानाम्) = देववृत्ति के पुरुषों के (उत) = और (मर्त्यानाम्) = साधारण मनुष्यों के (यजिष्ठः) = अतिशयेन पूज्य हैं, (सः) = वे (ऋतावा) = ऋत का रक्षण करनेवाले प्रभु (प्रयजताम्) = हमारे लिये उत्कृष्ट पदार्थों के देनेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- वे प्रभु गृहपति हैं, राजा हैं। वे पूज्यतम प्रभु हमारे लिये सब आवश्यक पदार्थों को दें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जो संपूर्ण जग व जीवांचे कर्म जाणून फळ देतो तोच खरा राजा आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni is the cosmic highpriest of the dynamics of existence, lord protector of the house of life, ruler omniscient and omnipresent of all that is, and he knows the origin of all that comes into existence. He is the most adorable lord of the bounties of nature and of mortal humanity. May he, lord of truth and law, accept us as participants of cosmic yajna and carry on the yajna of creativity for us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of adoration to God is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned persons! God Who is Illuminator and Upholder of all, the Director of the whole universe as a man is of his home, Dispenser of justice, is the Omniscient Supreme Being. Being the distinguisher between truth and untruth, and the Greatest Unifier. He knows all births (taking form from the origin-Ed.) of the divine things or enlightened, as well as ordinary mortals. May He unite us with happiness peace and bliss. Let Him be our sovereign, so we resolve. You should also resolve like wise.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should know that God who knows the actions of the souls of the whole universe, and knowing them thoroughly awards their fruit (and Ed.) is only True King or Sovereign.

    Translator's Notes

    The epithets and expressions like जातवेदाः and विश्वा वेदजनिमा जातवेदाः which Prof. Wilson translates as 'He who knows all, that is, knows all existing beings, and Griffith as' jataveda' knows all generations, clearly indicate that Omniscient God is here meant by जातवेदा अग्निः and not unanimate fire. And yet these western translators erroneously think that fire is meant here and worshipped. How strange ! Griffith quotes and Ludwig says विश्वा वेद जनिमा जातवेदाः knows all generation". Etymology of jatavedah, which is correct but is it applicable to material fire ?

    Foot Notes

    (जातवेदा:) यो जातान्न्त्सर्वान् वेति सः। जावेदाः कस्मात् जातानिवेद।(NKT 7,5, 19)। = He who knows all born beings and things., Omniscient (यजिष्ठ:) अतिशयेन यष्टा संगमयिता वा । यज-देवपूजासंगतिकरणदानेषु (भ्वा० ) अत्र संगतिकरणार्थः । = The greatest Unifier. (ऋतावा) सत्यासत्ययोविभाजकः । ऋतमिति सत्यनाम (NG 3, 10) वन-संभक्तौ (भ्वा० ) = Distinguisher between truth and untruth.

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