ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
पा॒व॒कया॒ यश्चि॒तय॑न्त्या कृ॒पा क्षाम॑न्रुरु॒च उ॒षसो॒ न भा॒नुना॑। तूर्व॒न्न याम॒न्नेत॑शस्य॒ नू रण॒ आ यो घृ॒णे न त॑तृषा॒णो अ॒जरः॑ ॥५॥
स्वर सहित पद पाठपा॒व॒कया॑ । यः । चि॒तय॑न्त्या । कृ॒पा । क्षाम॑न् । रु॒रु॒चे । उ॒षसः॑ । न । भा॒नुना॑ । तूर्व॑न् । न । याम॑न् । एत॑शस्य । नु । रणे॑ । यः । घृ॒णे । न । त॒तृषा॒णः । अ॒जरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पावकया यश्चितयन्त्या कृपा क्षामन्रुरुच उषसो न भानुना। तूर्वन्न यामन्नेतशस्य नू रण आ यो घृणे न ततृषाणो अजरः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठपावकया। यः। चितयन्त्या। कृपा। क्षामन्। रुरुचे। उषसः। न। भानुना। तूर्वन्। न। यामन्। एतशस्य। नु। रणे। यः। घृणे। न। ततृषाणः। अजरः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं प्रकाशनीयमित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो भानुनोषसो न पावकया चितयन्त्या कृपा क्षामन् रुरुचे घृणे न रणे ततृषाणोऽजरो यो यामन्नेतशस्य प्रेरकस्तूर्वन्न न्वाऽऽरुरुचे सः सेवनीयोऽस्ति ॥५॥
पदार्थः
(पावकया) पावकस्य क्रियया (यः) (चितयन्त्या) ज्ञापयन्त्या (कृपा) कृपया (क्षामन्) पृथिव्याम् (रुरुचे) प्रदीप्यते (उषसः) प्रभातवेला (न) इव (भानुना) किरणेन (तूर्वन्) हिंसन् (न) इव (यामन्) यान्ति यस्मिंस्तस्मिन्मार्गे (एतशस्य) अश्वस्य (नू) सद्यः (रणे) संग्रामे (आ) (यः) (घृणे) प्रदीप्ते (न) इव (ततृषाणः) तृषातुरः (अजरः) जरारहितः ॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सूर्य्यकिरणा उषसं प्रकाशन्ते तथैव विद्वांसः सर्वान्तःकरणानि प्रकाशयेयुः ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या प्रकाशित करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो (भानुना) किरण से (उषसः) प्रभातवेला (न) जैसे वैसे (पावकया) अग्नि की क्रिया से और (चितयन्त्या) जनाती हुई (कृपा) कृपा से (क्षामन्) पृथिवी में (रुरुचे) प्रकाशित किया जाता है (घृणे) प्रदीप्त में (न) जैसे वैसे (रणे) संग्राम में (ततृषाणः) पिपासा से व्याकुल (अजरः) जरा से रहित (यः) जो (यामन्) चलते हैं जिसमें उस मार्ग में (एतशस्य) घोड़े का चलानेवाला (तूर्वन्) हिंसन करता हुआ (न) जैसे वैसे (नू) शीघ्र (आ) प्रकाशित होता है, वह सेवा करने योग्य है ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य्य के किरण प्रातःकाल को प्रकाशित करते हैं, वैसे ही विद्वान् जन सब के अन्तः करणों को प्रकाशित करें ॥५॥
विषय
स्तुत्य प्रभु का रूप ।
भावार्थ
( यः ) जो (पावकया ) अन्यों को पवित्र कर देने वाली अग्नि के तुल्य, तीव्र सन्तापजनक ( चितयन्ता ) ज्ञान देने वाली, (कृपा) कृपा, सामर्थ्य या शक्ति से ( भानुना उषसः न ) कान्ति से उषाकालों के समान, वा ( उषसः भानुना ) प्रभात वेला के समान (क्षामन् ) भूमि पर ( आ रुरुचे ) सर्वत्र सबको अच्छा लगता और प्रकाशित होता है, और (यः ) जो ( घृणे रणे ) खूब चमकते रण में ( यामन् ) प्रयाण काल या मार्ग में ( तूर्वन् ) शत्रुओं का नाश करता हुआ ( एतशस्य ) अश्व के स्वामी, महारथी ( नू ) के समान और ( ततृषाणः न ) प्यासे के समान ( अजर: ) जरा रहित बलवान् होकर ( आ रुरुचे ) सब प्रकार से चमकता है। उस स्वामी प्रभु की तू स्तुति किया कर । परमेश्वर परम पावनी ज्ञानमयी कृपा से सर्वत्र चमकता है वह अजर, अमर है तो भी जल के प्यासे सूर्य के तुल्य वा रण में वीरवत् पापों का नाश करता है । उसकी स्तुति कर । इति सप्तदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, २, ५ निचृज्जगती । ३ निचृदतिजगती । ७ जगती । ८ विराङ्जगती । ४, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९, १०, ११, १६, १९ त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृदतिशक्करी । १२ पंक्ति: । १५ ब्राह्मी बृहती । १७ विराडनुष्टुप् । १८ स्वराडनुष्टुप् ।। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
पावकया चितयन्त्या कृपा [रुरुचे]
पदार्थ
[१] (यः) = जो प्रभु (पावकया) = पवित्रता को करनेवाली (चितयन्त्या) = चेतना को देनेवाली (कृपा) = दीप्ति से (क्षामन्) = इस पृथिवीरूप शरीर में इस प्रकार रुरुचे दीप्त होती हैं, (न) = जैसे कि (उषस:) = उषाएँ (भानुना) = किरणों के द्वारा दीप्त होती हैं। उषाएँ किरणों से जैसे दीप्त हो उठती हैं, इसी प्रकार उपासक का हृदय प्रभु की पवित्र करनेवाली व चेतना को देनेवाली दीप्ति से दीप्त हो जाता है। [२] प्रभु (यामन्) = इस जीवनमार्ग में (तूर्वन् न) = शत्रुओं का हिंसन करनेवाले के समान (नु) = निश्चय से होते हैं । (एतशस्य) = [shining] ज्ञान से दीप्त होनेवाले पुरुष के (रणे) = जीवन-संग्राम में (आघृणे) = ये प्रभु दीप्त होते हैं। वस्तुतः प्रभु ही उसे जीवन-संग्राम में विजयी बनाते हैं । (यः) = जो प्रभु (ततृषाणः न अजर:) = जितने ही तृषित-शत्रुओं का आचमन कर जानेवाले हैं, उतने ही अजीर्ण हैं। प्रभु की शक्तियाँ कभी जीर्ण नहीं होती ।
भावार्थ
भावार्थ - उपासक का जीवन प्रभु की ज्ञानदीप्ति से दीप्त हो उठता है। वे शत्रुओं का हिंसन करनेवाले हैं। शत्रुओं को समाप्त करके हमें अजीर्ण बनाते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जशी सूर्यकिरणे प्रातःकाल प्रकाशित करतात तसेच विद्वान लोकांनी सर्वांच्या अंतःकरणांना प्रकाशित करावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Free from age and decay, Agni, with purifying splendour of enlightenment, shines over the earth like the dawns with light at break of day, rushing and overpowering darkness like a war hero on course in battle, thirsting for victory in its blaze.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men manifest is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! that enlightened leader is to be served who shines upon the earth by his purifying and enlightening grace, who is untouched by old age and comes as one athirst in heat (thirsty for acquiring more and more knowledge), who shines like the rider of the horse whipping himself when necessary on the way to the battlefield.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! as the rays of the sun illuminate the dawn, in the same manner, the enlightened persons should illumine the hearts of all.
Foot Notes
(एतशस्य) अश्वस्य । एतश: इत्यश्वनाम (NG 1. 14)। = Of the horse. (तूर्वन् ) हिंसन् । तूर्वी-हिंसायाम् (भ्वा.)। = Whipping up, inflicting punishment. (यामन्) यन्ति यस्मिंस्तस्मिन्मार्गे । = On the road. ( क्षामन्) पृथिव्याम् । क्षमा इति पृथिवीनाम (NG 1, 1) = On earth.
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