ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 8
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
त्वां दू॒तम॑ग्ने अ॒मृतं॑ यु॒गेयु॑गे हव्य॒वाहं॑ दधिरे पा॒युमीड्य॑म्। दे॒वास॑श्च॒ मर्ता॑सश्च॒ जागृ॑विं वि॒भुं वि॒श्पतिं॒ नम॑सा॒ नि षे॑दिरे ॥८॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । दू॒तम् । अ॒ग्ने॒ । अ॒मृत॑म् । यु॒गेऽयु॑गे । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । द॒धि॒रे॒ । पा॒युम् । ईड्य॑म् । दे॒वासः॑ । च॒ । मर्ता॑सः । च॒ । जागृ॑विम् । वि॒ऽभुम् । वि॒श्पति॑म् । नम॑सा । नि । से॒दि॒रे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वां दूतमग्ने अमृतं युगेयुगे हव्यवाहं दधिरे पायुमीड्यम्। देवासश्च मर्तासश्च जागृविं विभुं विश्पतिं नमसा नि षेदिरे ॥८॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। दूतम्। अग्ने। अमृतम्। युगेऽयुगे। हव्यऽवाहम्। दधिरे। पायुम्। ईड्यम्। देवासः। च। मर्तासः। च। जागृविम्। विऽभुम्। विश्पतिम्। नमसा। नि। सेदिरे ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैः क उपासनीय इत्याह ॥
अन्वयः
हे अग्ने भगवन् ! युगेयुगे यं हव्यवाहमीड्यं पायुं विश्पतिं जागृविममृतं दूतं विभुं परमात्मानं त्वां देवासश्च मर्त्तासश्च नमसा दधिरे नि षेदिरे तं वयं दधीमहि तस्मिन्निषीदेम ॥८॥
पदार्थः
(त्वाम्) (दूतम्) यो दुःखानि दुनोति दूरीकरोति तम् (अग्ने) अग्निरिव स्वप्रकाशमान (अमृतम्) नाशरहितम् (युगेयुगे) वर्षे वर्षे सत्ययुगादौ वा (हव्यवाहम्) यो हव्यान्यादातुमर्हाणि वहति तत् (दधिरे) (पायुम्) पालकम् (ईड्यम्) स्तोतुमर्हम् (देवासः) विद्वांसः (च) योगिनः (मर्त्तासः) मरणधर्माणः (च) (जागृविम्) सदा जागरूकम् (विभुम्) व्यापकम् (विश्पतिम्) मनुष्यादिप्रजापालकम् (नमसा) (नि) (सेदिरे) निषीदन्ति ॥८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यूयं प्रत्यहं सर्वव्यापिनं न्यायेशं दयालुं सर्वधन्यवादार्हं परमात्मानमेवोपासीध्वम् ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों से =को किसकी उपासना करने योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के सदृश स्वयं प्रकाशमान भगवन् ! (युगेयुगे) वर्ष वर्ष वा सत्ययुग आदि में जिस (हव्यवाहम्) ग्रहण करने योग्य पदार्थों को धारण करनेवाले (ईड्यम्) स्तुति करने योग्य (पायुम्) पालन करनेवाले (विश्पतिम्) मनुष्य आदि प्रजाओं के पालक (जागृविम्) सदा जागनेवाले (अमृतम्) नाश से रहित (दूतम्) दुःखों के दूर करनेवाले (विभुम्) व्यापक परमात्मा (त्वाम्) आपको (देवासः) विद्वान् (च) और योगी (मर्त्तासः) मरण धर्म्मवाले (च) भी (नमसा) सत्कार से (दधिरे) धारण और योगी (मर्त्तासः) मरण धर्म्मवाले (च) भी (नमसा) सत्कार से (दधिरे) धारण करें (नि, सेदिरे) स्थित होते हैं, उसको हम लोग धारण करें तथा उसमें स्थित होवें ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! आप लोग प्रतिदिन सर्वव्यापी, न्यायेश, दयालु, सब धन्यवादों के योग्य, परमात्मा ही की उपासना करो ॥८॥
विषय
अमृत, विश्पति विभु की उपासना ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! प्रभो ! ( दूतं ) दुःखों को दूर करने वाले, शत्रु को संताप देने वाले, ( अमृतम् ) अविनाशी, ( हव्यवाहं ) ग्रहण करने योग्य, उत्तम स्तुतिवचन, अन्नादि के स्वीकार करने वाले, (पायुम् ) पवित्रकारक ( ईडयम् ) स्तुति योग्य ( जागृविम् ) सदा जागृत, चैतन्य ( विभुं ) विशेष सामर्थ्य से युक्त, व्यापक ( विश्पतिम् ) प्रजाओं के पालक ( त्वां ) तुझ प्रभु को ( देवासः च मर्त्तासः च ) विद्वान् जन और साधारण मनुष्य भी ( युगे-युगे ) प्रतिदिन, प्रतिवर्ष, प्रति युग, ( दधिरे ) धारण करते, और ध्यान में धरते तथा ( नमसा ) नमस्कार पूर्वक ( नि षेदिरे ) उपासना करते रहते हैं और आगे भी नमस्कार द्वारा उपासना करते रहा करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, २, ५ निचृज्जगती । ३ निचृदतिजगती । ७ जगती । ८ विराङ्जगती । ४, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९, १०, ११, १६, १९ त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृदतिशक्करी । १२ पंक्ति: । १५ ब्राह्मी बृहती । १७ विराडनुष्टुप् । १८ स्वराडनुष्टुप् ।। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'जागृवि-विभु-विश्पति' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (दूतम्) = ज्ञान का सन्देश प्राप्त करानेवाले अथवा [दु उपतापे] शत्रुओं को उपतप्त करनेवाले, (अमृतम्) = मृत्यु से ऊपर उठानेवाले, (हव्यवाहम्) = हव्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाले, (पायुम्) = रक्षक, (ईड्यम्) = स्तुत्य (त्वाम्) = आपको (देवासः च मर्तासः च) = देववृत्ति के मनुष्य व अन्य मनुष्य भी (युगेयुगे) = समय-समय पर (दधिरे) = धारण करते हैं। ज्ञानी पुरुष तो प्रभु का सदा स्मरण करते ही हैं, अन्य साधारण लोग भी कष्ट आने पर प्रभु को याद करते ही हैं। [२] (जागृविम्) = सदा जीव हित के लिये जागरित, (विभुम्) = सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान् [विभवति] (विश्पतिम्) = प्रजाओं के रक्षक आपको (नमसा) = नमन के साथ (निषेदिरे) = उपासित करते हैं, आपके चरणों में उपस्थित होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ– सब व्यक्ति, देव तथा साधारण मनुष्य समय-समय पर प्रभु का ही ध्यान करते हैं, प्रभु ही जीवहित के लिये सदा जागरित सर्वशक्तिमान् रक्षक हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! तुम्ही दररोज सर्वव्यापी, न्यायी, दयाळू, संपूर्ण धन्यवाद देण्यायोग्य परमात्म्याचीच उपासना करा. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, life of life, light of existence, brilliant saints and sages and ordinary mortals too for ages and ages have meditated on you, light divine, with homage and self-surrender and found their haven and home in your presence, O lord disseminator of fragrance, receiver of homage and giver of grace, immortal, protector, adorable, ever awake, infinite, ruler and sustainer of humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who is to be adored by men is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O self-effulgent God! like the fire, in every age all enlightened Yogis and other ordinary mortals adore you with reverence-You who are Immortal, Conveyor or Provider of all acceptable objects, Protector, Adorable, the Lord of the people, Ever-watchful, Omnipresent and Destroyer of all miseries. They meditate upon you and have communion with you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should every day adore that one God only who is Omnipresent, Dispenser of justice, and Kind and who deserves all thanks.
Translator's Notes
The epithets for Agni used in the mantra like ईध्यम् जागृविम् विभुम् विश्पतिम् which Prof. Wilson has translated as 'Adorable, Vigilant, Pervading and Protector of mankind', and Griffith as Adorable, even watchful, Omnipresent and Lord of household clearly show that by Agni here the Omnipresent, Adorable, and Lord of the world is meant and not fire, yet the western translators have mostly taken fire to be the meaning though these never be applicable in the case of the fire. Dayananda Sarasvati's interpretation applicable to God on the basis of the above epithets is quite correct (and understandable Ed.)
Foot Notes
(हव्यवाहम्) यो हव्यान्यादातुमर्हाणि वहति तम् । हु-दानादनयो: आदाने च ( जुहो०) अत्र आदानार्थग्रहणम् । वह-प्रापणे। = Who conveys or provides all acceptable articles. (दूतम् ) यो दुःखानि दुनोति दूरीकरोति तम् । (दूत:) (दुतः) उपतापे (स्वा० ) |= Who removes all miseries.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal