ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 6
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृदतिशक्वरी
स्वरः - धैवतः
अ॒ग्निम॑ग्निं वः स॒मिधा॑ दुवस्यत प्रि॒यंप्रि॑यं वो॒ अति॑थिं गृणी॒षणि॑। उप॑ वो गी॒र्भिर॒मृतं॑ विवासत दे॒वो दे॒वेषु॒ वन॑ते॒ हि वार्यं॑ दे॒वो दे॒वेषु॒ वन॑ते॒ हि नो॒ दुवः॑ ॥६॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम्ऽअ॑ग्निम् । वः॒ । स॒म्ऽइधा॑ । दु॒व॒स्य॒त॒ । प्रि॒यम्ऽप्रि॑यम् । वः॒ । अति॑थिम् । गृ॒णी॒षणि॑ । उप॑ । वः॒ । गीः॒ऽभिः । अ॒मृत॑म् । वि॒वा॒स॒त॒ । दे॒वः । दे॒वेषु॑ । वन॑ते । हि । वार्य॑म् । दे॒वः । दे॒वेषु॑ । वन॑ते । हि । नः॒ । दुवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निमग्निं वः समिधा दुवस्यत प्रियंप्रियं वो अतिथिं गृणीषणि। उप वो गीर्भिरमृतं विवासत देवो देवेषु वनते हि वार्यं देवो देवेषु वनते हि नो दुवः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम्ऽअग्निम्। वः। सम्ऽइधा। दुवस्यत। प्रियम्ऽप्रियम्। वः। अतिथिम्। गृणीषणि। उप। वः। गीःऽभिः। अमृतम्। विवासत। देवः। देवेषु। वनते। हि। वार्यम्। देवः। देवेषु। वनते। हि। नः। दुवः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो गृणीषणि समिधा वोऽग्निमग्निं वः प्रियम्प्रियमतिथिमुप वनते हि यो देवेषु देवो गीर्भिर्वो वार्य्यममृतं सेवते यो हि देवेषु देवो नो दुवो वनते तं दुवस्यत तं विवासत ॥६॥
पदार्थः
(अग्निमग्निम्) प्रत्यग्निम् (वः) युष्माकम् (समिधा) इन्धनैः। (दुवस्यत) परिचरत (प्रियम्प्रियम्) कमनीयं कमनीयम् (वः) युष्माकम् (अतिथिम्) (गृणीषणि) स्तोतव्ये व्यवहारे (उप) (वः) युष्मान् (गीर्भिः) वाग्भिः (अमृतम्) कारणरूपेण नाशरहितम् (विवासत) परिचरत। विवासतीति परिचरणकर्म्मा। (निघं०३.५) (देवः) द्योतमानः (देवेषु) दिव्यगुणेषु (वनते) सम्भजति (हि) (वार्य्यम्) वरणीयं व्यवहारम् (देवः) दाता (देवेषु) पितृषु विद्वत्सु (वनते) सम्भजते (हि) खलु (नः) अस्मभ्यम् (दुवः) परिचरणम् ॥६॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यूयं विद्वांसमिवाग्निं सङ्गमयत यतोऽभीष्टं कार्यं सिद्ध्येत् ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (गृणीषणि) स्तुति करने योग्य व्यवहार में (समिधा) इन्धनों से (वः) आप लोगों के (अग्निमग्निम्) अग्नि अग्नि का और (वः) आप लोगों के (प्रियम्प्रियम्) कामना करने योग्य कामना करने योग्य (अतिथिम्) अतिथि का (उप, वनते) समीप में सेवन करता (हि) ही है और जो (देवेषु) श्रेष्ठ गुणयुक्तों में (देवः) प्रकाशमान (गीर्भिः) वाणियों से (वः) आप लोगों को (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य व्यवहार (अमृतम्) कारणरूप से नाशरहित का सेवन करता है और जो (हि) निश्चित (देवेषु) पितृरूप विद्वानों में (देवः) दाता जन (नः) हम लोगों के लिये (दुवः) सेवन को (वनते) स्वीकार करता है उसका (दुवस्यत) सेवन करो उसका (विवासत) सेवन करो ॥६॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! आप लोग जैसे विद्वान् का, वैसे अग्नि का भी मेल करावें, जिससे अभीष्ट कार्य्य सिद्ध होवे ॥६॥
विषय
अग्नि-परिचार्यवत् प्रभु-परिचर्या का वर्णन ।
भावार्थ
हे विद्वान् भक्त जनो ! ( वः ) आप लोग अपने में (अग्निम् अग्निम्) अग्नि के समान स्वप्रकाश, अति तेजस्वी प्रभु को अग्नि को समिधा से जैसे, वैसे ( दुवस्यत) उपासना करो ( वः ) अपने ( गृणीषणि ) स्तुति के कार्य में एकमात्र लक्ष्यभूत ( अतिथिस् ) सर्वव्यापक, पूज्य ( प्रियं-प्रियम् ) अति प्रिय उस प्रभु की ही सेवा करो । (वः) आप लोग अपने में ( अमृतम् ) अमृत, अविनाशी रूप से विद्यमान आत्मा को ( गीर्भि: ) वाणियों द्वारा ( उप विवासत ) उपासना किया करो । ( देवः ) सर्वदाता, तेजोमय परमेश्वर ( देवेषु ) अपने कामनावान् भक्तों में ही (वार्यं वनते ) उत्तम ऐश्वर्य देता और ( नः दुवः वनते हि ) वही निश्चय से हमारी सेवा, परिचर्या और स्तुति आदि भी स्वीकार करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, २, ५ निचृज्जगती । ३ निचृदतिजगती । ७ जगती । ८ विराङ्जगती । ४, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९, १०, ११, १६, १९ त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृदतिशक्करी । १२ पंक्ति: । १५ ब्राह्मी बृहती । १७ विराडनुष्टुप् । १८ स्वराडनुष्टुप् ।। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'प्रिय अग्नि अमृत' प्रभु
पदार्थ
[१] (वः प्रियं प्रियम्) = तुम्हारे अत्यन्त प्रिय (अग्निं अग्निम्) = सदा अग्रेणी प्रभु, उन्नतिपथ पर प्राप्त करानेवाले, (वः अतिथिम्) = तुम्हारे अतिथिवत् पूज्य (गृणीषणि) = [स्तुत्यं] स्तुति के योग्य प्रभु को (समिधा) = ज्ञानदीप्ति के द्वारा (दुवस्यत) = उपासित करो। ज्ञानदीप्ति को प्राप्त करनेवाला व्यक्ति ही प्रभु का ज्ञानी- भक्त बन पाता है। [२] (अमृतम्) = उस अमृतत्व को प्राप्त करानेवाले प्रभु को [न मृतं यस्मात्] (वः गीर्भिः) = अपनी स्तुतिवाणियों के द्वारा (उपविवासत) = पूजो । (देवेषु देवः) = वह देवाधिदेव प्रभु, (हि) = निश्चय से (वार्यम्) = वरणीय धनों को (वनते) = प्राप्त कराते हैं । वे (देवेषु देवः) = देवाधिदेव (हि) = निश्चय से (नः) = हमारी (दुवः वनते) = उपासना को प्रीतिपूर्वक स्वीकार करते हैं [संभजते] ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के ज्ञानी भक्त बनें, प्रभु का पूजन करें। प्रभु हमें सब वरणीय धनों को प्राप्त कराते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! तुम्ही विद्वानाप्रमाणे अग्नीचा मेळ घाला, ज्यामुळे इच्छित कार्य सिद्ध व्हावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
In the daily business and holy observances of life, honour and serve Agni regularly day by day with offers of fuel and fragrant food. Agni is dear and dearer, welcome as a learned visitor worthy of honour and felicitation. Serve and exalt imperishable Agni with words of faith and reverence. Refulgent Agni vests brilliant divinities of nature and eminent scholars with valuable wealth and knowledge and blesses us with cherished gifts of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! in every admirable dealing, serve him, (the Yajaman), you serve him well who kindles fire with fuel and who serves well your beloved and desirable guest, who shinning with divine virtues by truthful and sweet words admires your acceptable dealing which is like nectar; he who being a liberal donor among the enlightened father-like persons accepts our service.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! unite or apply for various purposes Agni (fire) like an enlightened leader, so that you may be able to accomplish your noble desired works.
Translator's Notes
It is very wrong on the part of Griffith to translate देवेषु देवः as 'A God among the Gods or God- mid-Gods, though Prof. Wilson's translation of देवेषुदेवः as ‘a God among gods' is not correct as not understood the significance of the word देव properly, Yet it is not so bad and mischievous as Griffith's. Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation is based upon the authority of the Brahmanas (ancient commentaries of the Vedas) as quoted above.
Foot Notes
(दुवस्यत) परिचरत । दुवस्यति परिचरणकर्मा (NG_3, 5)। = Serve (विवासत) परिचरत । विवासतीति परिचरणकर्मा (NG 3, 5)। = Serve. (देवेषुदेव:) दिव्यगुणेषु द्योतमान:। = Shining on account of the divine virtues ( देवेषु ) पितृषु विद्वत्सु । विद्वांसो हि देवा: (Stph 3, 3, 10) । देवा वा एते पितरः ( कौषीतकी ब्राह्मणे 5, 6, गोपथब्राह्मणे 2, 1, 24) । = Among the father-like enlightened persons.
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