ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
द्यु॒ता॒नं वो॒ अति॑थिं॒ स्व॑र्णरम॒ग्निं होता॑रं॒ मनु॑षः स्वध्व॒रम्। विप्रं॒ न द्यु॒क्षव॑चसं सुवृ॒क्तिभि॑र्हव्य॒वाह॑मर॒तिं दे॒वमृ॑ञ्जसे ॥
स्वर सहित पद पाठद्यु॒ता॒नम् । वः॒ । अति॑थिम् । स्वः॑ऽनरम् । अ॒ग्निम् । होता॑रम् । मनु॑षः । सु॒ऽअ॒ध्व॒रम् । विप्र॑म् । न । द्यु॒क्षऽव॑चसम् । सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑ । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । अ॒र॒तिम् । दे॒वम् । ऋ॒ञ्ज॒से॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्युतानं वो अतिथिं स्वर्णरमग्निं होतारं मनुषः स्वध्वरम्। विप्रं न द्युक्षवचसं सुवृक्तिभिर्हव्यवाहमरतिं देवमृञ्जसे ॥
स्वर रहित पद पाठद्युतानम्। वः। अतिथिम्। स्वःऽनरम्। अग्निम्। होतारम्। मनुषः। सुऽअध्वरम्। विप्रम्। न। द्युक्षऽवचसम्। सुवृक्तिऽभिः। हव्यऽवाहम्। अरतिम्। देवम्। ऋञ्जसे ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं ज्ञातव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यस्त्वं वो युष्माकमतिथिमिव द्युतानं स्वर्णरं मनुषो होतारं स्वध्वरमग्निं सुवृक्तिभिर्न द्युक्षवचसं हव्यवाहमरतिं देवं विप्रं न ऋञ्जसे तं वयं सत्कुर्य्याम ॥४॥
पदार्थः
(द्युतानम्) सत्यार्थद्योतकम् (वः) युष्माकम् (अतिथिम्) अतिथिमिव (स्वर्णरम्) यः स्वः सुखं नयति तम् (अग्निम्) पावकम् (होतारम्) आदातारम् (मनुषः) मनुष्यस्य (स्वध्वरम्) सुष्ठ्वध्वरा यस्मात्तम् (विप्रम्) मेधाविनम् (न) इव (द्युक्षवचसम्) द्योतकवचनस्य प्रकाशकम् (सुवृक्तिभिः) सुष्ठु व्रजन्ति याभिः क्रियाभिस्ताभिस्सहितम् (हव्यवाहम्) धर्त्तव्यवाहकम् (अरतिम्) प्रापकम् (देवम्) द्योतमानम् (ऋञ्जसे) प्रसाध्नोषि ॥४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा विपश्चिद्यथायोग्यानि कार्य्याणि कर्तुं शक्नोति तथैव युक्त्या सम्प्रयुक्तोऽग्निः सर्वं व्यापारं साद्धुं शक्नोति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या जानना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! जो आप (वः) आप लोगों के (अतिथिम्) अतिथि के समान (द्युतानम्) सत्यार्थ के प्रकाशक (स्वर्णरम्) सुख को प्राप्त कराने और (मनुषः) मनुष्य के (होतारम्) ग्रहण करनेवाले (स्वध्वरम्) उत्तम प्रकार यज्ञ जिससे उस (अग्निम्) अग्नि को (सुवृक्तिभिः) अच्छे प्रकार चलते हैं जिन क्रियाओं से उनके सहित जैसे वैसे (द्युक्षवचसम्) द्योतकवचन के प्रकाशक (हव्यवाहम्) धारण करने योग्य को वहन करने और (अरतिम्) प्राप्ति करानेवाले (देवम्) प्रकाशमान (विप्रम्) बुद्धिमान् को (न) जैसे वैसे (ऋञ्जसे) सिद्ध करते हो उसका हम लोग सत्कार करें ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे बुद्धिमान् जन यथायोग्य कर्म्मों को करने को समर्थ होता है, वैसे ही युक्ति से अच्छे प्रकार प्रयोग किया अग्नि सम्पूर्ण व्यापार सिद्ध करने को समर्थ होता है ॥४॥
विषय
विद्वान् की सेवा और पूजा ।
भावार्थ
हे विद्वानो ! (वः) आप लोगों के बीच में ( द्युतानं ) सदा चमकने वाले (अतिथिं) सर्वत्र व्यापक और अतिथिवत् पूज्य (स्वः- नरम् ) सुखमय मार्ग में ले जाने हारे, ( मनुषः होतारं ) मनुष्य को सब कुछ देने हारे ( सु-अध्वरम् ) उत्तम, यज्ञ के पालक, स्वयं कभी नाश न होने वाले ( द्युक्ष-वचसं ) कान्तिवत् उज्ज्वल वाणी को कहने वाले ( विप्रं ) विविध ज्ञानों से पूर्ण विद्वान् के तुल्य ( सु-वृक्तिभिः ) उत्तम २ प्रशंसाओं द्वारा ( हव्य-वाहम् ) हव्य, अन्नादि पदार्थों के धारक, अग्निवत् तेजस्वी, ( अरतिं ) अतिज्ञानी, ( देवं ) प्रकाशस्वरूप गुरु की और प्रभु की ( ऋञ्जसे ) सेवा किया कर । उत्तम यज्ञमय होने से परमेश्वर 'स्वध्वर', प्रकाश स्वरूप होने से ‘द्युतान’, आनन्दप्रद, ज्ञानप्रद होने से ‘स्वर्नर’, अन्नादि देने से ‘हव्यवाहू’ है उसको हे जीव तू भक्ति स्तुति से सेवा कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, २, ५ निचृज्जगती । ३ निचृदतिजगती । ७ जगती । ८ विराङ्जगती । ४, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९, १०, ११, १६, १९ त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृदतिशक्करी । १२ पंक्ति: । १५ ब्राह्मी बृहती । १७ विराडनुष्टुप् । १८ स्वराडनुष्टुप् ।। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
द्युतानं-द्युक्षवचसम्
पदार्थ
[१] हे मन्त्र के ऋषि 'वीतहव्य भरद्वाज' सात्त्विक अन्न के सेवक, शक्ति को अपने में भरनेवाले उपासक! तू (देवम्) = उस प्रकाशमय प्रभु को (सुवृक्तिभिः) = शोभनतया पापवर्जन हेतु भूत स्तुतियों के द्वारा (ऋञ्जसे) = [प्रसाधय] अपने में साधित करने का प्रयत्न कर। उस प्रभु को जो (द्युतानम्) = ज्योति का विस्तार करनेवाले हैं। (वः अतिथिम्) = तुम्हारे लिये (अतिथिवत्) = पूज्य हैं अथवा तुम्हारे लिये निरन्तर गतिशील हैं। तुम्हारे भले के लिये सदा कार्यों को कर रहे हैं। (स्वर्णरम्) - सुख की ओर ले चलनेवाले हैं, (अग्निम्) = अग्रेणी हैं। (मनुषः) = विचारशील पुरुष के (होतारम्) = जीवनयज्ञ को चलानेवाले हैं और इस प्रकार (स्वध्वरम्) = हिंसित न होने देनेवाले हैं। [२] उस प्रभु को स्तुतिवचनों से तू अपने में प्रसाधित कर, जो (विप्रं न) = मेधावी के समान (द्युक्षवचसम्) = दीप्ति के निवास स्थानभूत वचनोंवाले हैं। (हव्यवाहम्) = हव्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाले हैं और (अरतिम्) = इन संसार के पदार्थों में व्यापक हैं। अथवा (अरतिम्) = [अर्यं] सारे पदार्थों के स्वामी हैं। ।
भावार्थ
भावार्थ- हम पापवर्जन हेतुभूत स्तुतियों के द्वारा प्रभु का स्तवन करें। ये प्रभु हमारे ज्ञान का विस्तार करते हुए हमें सुखी करते हैं। ये प्रभु ही हमारे लिये आवश्यक सब हव्य पदार्थों को प्राप्त कराते हैं। और इस प्रकार हमारे जीवनयज्ञ को चलाते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा बुद्धिमान माणूस यथायोग्य कर्म करण्यास समर्थ असतो तसे चांगल्याप्रकारे प्रयुक्त केलेला अग्नी संपूर्ण व्यवहार पूर्ण करण्यास समर्थ असतो. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Honour and felicitate with songs of praise and place of eminence the radiant Agni, leading light and pioneer, dear as an honoured guest, harbinger of peace and joy, holy organiser and creative high priest of the joint programmes of humanity, like a vibrant sage and scholar, speaker of heavenly words, giver and carrier of yajnic materials of fragrance and wealth of honour and above all a beacon of light for advancement.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is again told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned person ! let us honor you who respect and please a leader who is illuminator or truthful, is venerable like a guest who leads to happiness, who purified like the fire in which Yajnas(non-violent sacrifices) are performed and which is beggar of men's oblations, good acts, revealer of words expressing truth, conveyor of what is to be upheld, bestower of joy and shining like a glorious genius.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As an enlightened man is able to accomplish noble deeds properly, so the Agni (fire or electricity) when utilized properly can accomplish all dealings.
Foot Notes
(दयुक्षवयसम् ) द्योतकवचनस्य प्रकाशकम् । द्युक्षम् द्यौरिति प्रकाशः क्षियतिमिव सति यास्मिन् तत् महर्षि दयानन्दः (यजु. 3, 31 भाष्ये )। = Illuminator or revealer of words expressing truth. (अरतिम्) प्रापकम् । अरतिः ऋ-गतिप्रणयोः (भ्वा० ) अत्र प्रापणार्थ: हर्षप्रापकः । = Conveyor. ( सुवृक्तिभि:) सुष्ठु व्रजन्ति याभि: क्रियाभिस्ताभिस्सहितम्। = By acts by which men go well-on the path of righteousness.
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