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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 12
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    त्वम॑ग्ने वनुष्य॒तो नि पा॑हि॒ त्वमु॑ नः सहसावन्नव॒द्यात्। सं त्वा॑ ध्वस्म॒न्वद॒भ्ये॑तु॒ पाथः॒ सं र॒यिः स्पृ॑ह॒याय्यः॑ सह॒स्री ॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ग्ने॒ । व॒नु॒ष्य॒तः । नि । पा॒हि॒ । त्वम् । ऊँ॒ इति॑ । नः॒ । स॒ह॒सा॒ऽव॒न् । अ॒व॒द्यात् । सम् । त्वा॒ । ध्व॒स्म॒न्ऽवत् । अ॒भि । ए॒तु॒ । पाथः॑ । सम् । र॒यिः । स्पृ॒ह॒याय्यः॑ । स॒ह॒स्री ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने वनुष्यतो नि पाहि त्वमु नः सहसावन्नवद्यात्। सं त्वा ध्वस्मन्वदभ्येतु पाथः सं रयिः स्पृहयाय्यः सहस्री ॥१२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। वनुष्यतः। नि। पाहि। त्वम्। ऊँ इति। नः। सहसाऽवन्। अवद्यात्। सम्। त्वा। ध्वस्मन्ऽवत्। अभि। एतु। पाथः। सम्। रयिः। स्पृहयाय्यः। सहस्री ॥१२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 12
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरीश्वरः किमर्थमुपासनीय इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे सहसावन्नग्ने ! त्वं वनुष्यतो नोऽस्मानवद्यात्त्वं नि पाहि यः स्पृहयाय्यः सहस्री रयिर्यद्ध्वस्मन्वत् पाथश्चाऽस्मान्त्समभ्येतु तद्वन्तो वयमु त्वा त्वां समुपास्महि ॥१२॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (अग्ने) शुभगुणप्रदातः (वनुष्यतः) याचमानान् (नि) (पाहि) नित्यं रक्ष (त्वम्) (उ) (नः) अस्मान् (सहसावन्) अमितबलयुक्त (अवद्यात्) निन्द्याचरणात् (सम्) (त्वा) त्वाम् (ध्वस्मन्वत्) ध्वंसवन् (अभि) (एतु) प्राप्नोतु (पाथः) अन्नादिकम् (सम्) (रयिः) श्रीः (स्पृहयाय्यः) (सहस्री) सहस्रं सर्वं सुखमस्मिन्निति सः ॥१२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यो धर्मेण याचितो जगदीश्वरोऽधर्म्माचरणात् पृथक्कृत्य धर्मं प्रापयति यो ह्यनित्यमपि सुखं प्रयच्छति तमेव रक्षकं सर्वैश्वर्य्यप्रदमिष्टदेवं विजानीत ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर ईश्वर किस निमित्त उपासना करने योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सहसावन्) अत्यन्त बलयुक्त (अग्ने) श्रेष्ठ गुणों के देनेवाले (त्वम्) आप (वनुष्यतः) याचना करते हुए (नः) हम लोगों की (अवद्यात्) निन्द्य आचरण से (त्वम्) आप (नि, पाहि) नित्य रक्षा करिये और जो (स्पृहयाय्यः) स्पृहा कराने योग्य (सहस्री) सम्पूर्ण सुख जिसमें वह (रयिः) धन और जो (ध्वस्मन्वत्) नाशवाला (पाथः) अन्न आदि हम लोगों को (सम्, अभि, एतु) उत्तम प्रकार प्राप्त हो, उससे युक्त हम लोग (उ) भी (त्वा) आपको (सम्) अच्छे प्रकार उपासना करें ॥१२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो धर्म्म से याचना किया गया जगदीश्वर अधर्म के आचरण से अलग करके धर्म्म को प्राप्त कराता है और जो अनित्य सुखको भी देता है, उसी को रक्षक, सब ऐश्वर्य्य देनेवाला तथा इष्ट देव जानो ॥१२॥

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    विषय

    राजा के गुरुवत् और गुरु के राजावत् कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) ज्ञानवन्, अग्नि के समान दुष्टों को दग्ध करने हारे ! प्रभो विद्वन् ! राजन् ! ( त्वम् ) तू ( वनुष्यतः ) याचना, प्रार्थना करते हुए ( नः ) हमें ( अवद्यात् ) निन्दा योग्य पापाचरण के मार्ग से जाने से ( नि पाहि ) सब प्रकार से रक्षा कर । हे ( सहसावन् ) बलशालिन् ! ( त्वम् उ ) तू ही ( नः ) हमें ( वनुष्यतः ) हिंसक पुरुष से रक्षा कर । ( ध्वस्मन्वत् पाथः ) पापों और दुष्टों का ध्वंस करने वाला (पाथः ) मार्ग और पालन सामर्थ्य ( त्वा अभ्येतु ) तुझे प्राप्त हो । और ( त्वां ) तुझे ( स्पृहयाय्यः ) सबसे चाहने योग्य, ( सहस्री ) सहस्रों सुखों को देने वाला, सब प्रकार का ( रयिः ) ऐश्वर्य भी ( सम् अभ्येतु ) प्राप्त हो । और तेरे द्वारा वही पालन का सुख और ऐश्वर्य हमें भी प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, २, ५ निचृज्जगती । ३ निचृदतिजगती । ७ जगती । ८ विराङ्जगती । ४, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९, १०, ११, १६, १९ त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृदतिशक्करी । १२ पंक्ति: । १५ ब्राह्मी बृहती । १७ विराडनुष्टुप् । १८ स्वराडनुष्टुप् ।। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अवद्यात् वनुष्यतः निपाहि

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! (त्वम्) = आप (वनुष्यतः) = हिंसक शत्रुओं से (निपाहि) = हमारा (नितरां) = रक्षण करिये। हे (सहसावन्) = शत्रुमर्षक बलवाले प्रभो ! (त्वं उ) = आप ही (नः) = हमें (अवद्यात्) = पापों से बचाइये। पापों से बचकर ही हम शत्रुओं से अपना रक्षण कर पाते हैं। [२] (ध्वस्मन्वत्) = दोषों के विध्वंसवाला, ध्वस्त्रदोष, (पाथः) = अन्न (त्वा अभि समेतु) = अपनी ओर आनेवाला हो, अर्थात् हविष्य अन्न का सेवन करता हुआ मैं आपके समीप प्राप्त होनेवाला बनूँ। आपसे हमें (रयिः) = वह धन (सं) [ एतु ] = प्राप्त हो, जो (स्पृहयाय्यः) = अत्यन्त स्पृहणीय है और सहस्त्री = [ स हस्] आनन्द से युक्त है अथवा सहसंख्या से युक्त पर्याप्त है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें पापों व शत्रुओं से बचाएँ । सात्त्विक अन्न का सेवन हमें प्रभु की ओर ले चले। प्रभु हमें स्पृहणीय व आनन्द के कारणभूत धन को प्राप्त करायें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! ज्याची धर्मपूर्वक याचना केली जाते असा परमेश्वर अधर्माचरणापासून पृथक करून धर्म प्राप्त करवितो व जो अनित्य सुखही देतो त्यालाच रक्षक व ऐश्वर्यदाता इष्ट देव जाणा. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of force and forbearance, we pray, you protect us, the devotees, against the violent and the malignant.$May food and water free from negativity, mighty powerful against the violent come to you. May cherished wealth and power of a hundred and thousandfold efficacy come to you.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Why should God be adored is told further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Almighty God! Your are Bestower of good virtues and protect us who implore you. Preserve us from all wickedness or censurable conduct. Endowed with that desirable and thousand-fold wealth and food (even though perishable material), that comes to us from all sides by Your grace, let us always adore You. Let us have constant communion with you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! Regard that Lord of the world only as your Protector, and Giver of all wealth, and Adorable God Who when implored righteously and sincerely. Keeps us away from all unrighteous conduct and leads to Dharma or righteousness. He gives also happiness of this world even though it is not ever-lasting.

    Foot Notes

    (वनुष्यतः) याचमानान् । वनु-याचने ( तना० )। = Imploring begging. ( अवद्यात ) निन्द्याचरणात् । अवद्यावमाघ मार्व रेफाः कुत्सिते । उणादिकोषे 5, 5 ) इत्यवद्य शब्दो नियातितः वदितुम् अयोग्यम् । नञ् पूर्वकात् वद व्यक्तावां वाचि इति धातो यत् प्रत्तयः। = From reprehensible or excensurable conduct. (ध्वस्मन्वत्) ध्वंसवन् = Perishable.

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