ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 14
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अग्ने॒ यद॒द्य वि॒शो अ॑ध्वरस्य होतः॒ पाव॑कशोचे॒ वेष्ट्वं हि यज्वा॑। ऋ॒ता य॑जासि महि॒ना वि यद्भूर्ह॒व्या व॑ह यविष्ठ॒ या ते॑ अ॒द्य ॥१४॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । यत् । अ॒द्य । वि॒शः । अ॒ध्व॒र॒स्य॒ । हो॒त॒रिति॑ । पाव॑कऽशोचे । वेः । त्वम् । हि । यज्वा॑ । ऋ॒ता । य॒जा॒सि॒ । म॒हि॒ना । वि । यत् । भूः । ह॒व्या । व॒ह॒ । य॒वि॒ष्ठ॒ । या । ते॒ । अ॒द्य ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने यदद्य विशो अध्वरस्य होतः पावकशोचे वेष्ट्वं हि यज्वा। ऋता यजासि महिना वि यद्भूर्हव्या वह यविष्ठ या ते अद्य ॥१४॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। यत्। अद्य। विशः। अध्वरस्य। होतरिति। पावकऽशोचे। वेः। त्वम्। हि। यज्वा। ऋता। यजासि। महिना। वि। यत्। भूः। हव्या। वह। यविष्ठ। या। ते। अद्य ॥१४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 14
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स जगदीश्वरः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे पावकशोचे होतर्यविष्ठाग्ने ! यद्यो यज्वा त्वं ह्यद्य विशो वेरध्वरस्यर्त्ता यजासि यद्यस्त्वं महिना वि भूर्या ते वर्त्तमानेऽद्य सन्ति तानि हव्याऽस्मदर्थं वह ॥१४॥
पदार्थः
(अग्ने) सर्वप्रजापीडानिवारक (यत्) यः (अद्य) इदानीम् (विशः) मनुष्यादिप्रजायाः (अध्वरस्य) अहिंसामयस्य (होतः) दातः (पावकशोचे) पवित्र प्रकाशक (वेः) विहगस्य पक्षिण इव (त्वम्) (हि) (यज्वा) सङ्गन्ता (ऋता) ऋते सत्यसुखप्रापके यज्ञे (यजासि) यजेः (महिना) महिम्ना (वि) (यत्) यः (भूः) भवेः (हव्या) दातुमर्हाणि (वह) (यविष्ठ) अतिशयेन सङ्गमयिता विभाजको वा (या) यानि (वस्तूनि) (ते) तव (अद्य) ॥१४॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यः सर्वां सृष्टिं सङ्गतां करोति यो विभुरहिंसादिधर्म्मस्याऽनुष्ठानायाऽऽज्ञां ददाति स हि सर्वैरुपास्योऽस्तीति ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (पावकशोचे) पवित्र प्रकाश और (होतः) दान करने तथा (यविष्ठ) अतिशय मिलाने वा विभाग कराने और (अग्ने) सम्पूर्ण प्रजा की पीड़ाओं के दूर करनेवाले (यत्) जो (यज्वा) मेल करनेवाले (त्वम्) आप (हि) निश्चय से (अद्य) इस समय (विशः) मनुष्य आदि प्रजा के (वेः) आकाशगन्ता पक्षी के समान (अध्वरस्य) अहिंसामय के (ऋता) सत्य सुख के प्राप्त करानेवाले यज्ञ में (यजासि) यजन करते हो (यत्) जो आप (महिना) महत्त्व से (वि) विशेष करके (भूः) होवें और (या) जो वस्तुएँ (ते) आपके वर्त्तमान में (अद्य) इस समय हैं, उन (हव्या) देने योग्यों को हम लोगों के लिये (वह) प्राप्त करिये ॥१४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो सम्पूर्ण सृष्टि को एकत्रित करता है और जो व्यापक अहिंसा आदि धर्म्म के अनुष्ठान के लिये आज्ञा देता है, वह ही सब से उपासना करने योग्य है ॥१४॥
विषय
परमेश्वर, राजा का यज्ञकर्त्ता और अग्नि के तुल्य वर्णन ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्नि के समान स्वयंप्रकाश ! एवं अन्यों को प्रकाशित करने हारे ! हे (पावक-शोचे ) पवित्र करने वाले तेजःप्रकाश से युक्त ! हे ( होतः ) यज्ञ के होता के समान अपने ऐश्वर्य, बल, ज्ञान आदि के दान करने हारे ! ( यज्वा ) उत्तम दानशील और संगति, परस्पर मेल करने हारा होकर (अध्वरस्य विशः ) यज्ञवत् न नाश करने योग्य प्रजाजन को ( त्वं हि वेः ) तू सदा हृदय से चाहा कर और उसकी रक्षा किया कर । ( यत् ) जब या जो तू ( महिना ) अपने महान् सामर्थ्य से ( वि भूः ) विशेष शक्तिशाली होता है तब तू ( ऋता ) ऐश्वर्यों को ( यजासि ) स्वयं प्राप्त करता और औरों को भी देने में समर्थ होता है । और तभी हे ( यविष्ठ ) अति जवान ! बलवन् ( या ते हव्या ) जो तेरे भोग करने योग्य नाना अन्नादि पदार्थ हैं उनको भी तू ( अद्य ) आज के समान सदा ही ( आ वह ) प्राप्त कर और अन्यों को प्राप्त करा । इस मन्त्र में परमेश्वर और राजा का यज्ञकर्त्ता, होता और अग्नि के समान वर्णन है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, २, ५ निचृज्जगती । ३ निचृदतिजगती । ७ जगती । ८ विराङ्जगती । ४, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९, १०, ११, १६, १९ त्रिष्टुप् । १३ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृदतिशक्करी । १२ पंक्ति: । १५ ब्राह्मी बृहती । १७ विराडनुष्टुप् । १८ स्वराडनुष्टुप् ।। अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
यज्ञ-हव्य पदार्थ व ऋत
पदार्थ
[१] हे (होतः) = सब कुछ देनेवाले, (पावकशोचे) = पवित्र दीप्तिवाले (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (यत्) = क्योंकि (त्वं हि यज्वा) = आप ही यज्ञों को करनेवाले हैं, सो (अद्य) = आज (विश:) = संसार में प्रविष्ट इन प्रजाओं के (अध्वरस्य वेः) = यज्ञों की कामना करिये, आप से प्रेरणा को प्राप्त करके ये व्यक्ति यज्ञशील हों। [२] हे प्रभो ! (यद्) = जब (महिना) = अपनी महिमा से आप (वि भूः) = सर्वत्र व्याप्त होते हैं, तो (ऋता यजासि) = ऋतों को ही इन प्रजाओं के साथ संगत करते हैं। अनृत से पृथक् करके ऋत से आप अपने उपासकों को जोड़ते हैं। हे (यविष्ठ) = सब अनृतों को अधिक से अधिक हमारे से पृथक् करनेवाले प्रभो !(या ते हव्या) जो आपके हव्य, प्रार्थनीय पवित्र पदार्थ हैं, उन पदार्थों को (आवह) प्राप्त कराइये ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु अपने उपासकों को यज्ञ की प्रवृत्ति तथा हव्य पदार्थों को प्राप्त कराते हैं। अनृत से दूर करके ऋत से हमारे जीवन को युक्त करते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जो सर्व सृष्टीचा मेळ घालतो व अहिंसा इत्यादी धर्माच्या अनुष्ठानाची आज्ञा देतो तोच सर्वांनी उपासना करण्यायोग्य आहे. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of light and fire of purity, high priest of cosmic yajna, receiver and giver of fragrance of the people’s non-violent programmes of life, harbinger and overwatcher like a bird of flight, breaker and integrator of natural evolution, you pervade the laws and processes of nature. Let the universe grow ever expansive by your omnipotence and, O youthful spirit of life, bring us today what the noblest gifts of life are for us from you for our progress.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How that God acts is told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Pure Illuminator! O Unifier or Distributor! O liberal, donor and O Remover of the miseries of all your subjects! You are Unifier and unite all non-violent acts in the Yajna that leads to real happiness. You are all-pervading by your greatness. Therefore convey to us today, (every day) all articles worth-giving.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! that one God is to be adored by all, who unifies all this universe and being Omnipresent, commands all to observe non-violence and other rules of righteousness.
Foot Notes
(पावकशोचे ) पवित्रप्रकाशक । शोचिरिति ज्वलतो नामधेयम् । (NG 1, 17 ) शोचति ज्वलतिकर्मा (NG 1, 16 ) तस्यात् शोचि: प्रकाश: । Pure Illuminator. (ऋता) ऋते सत्यसुखप्रापके यज्ञ े । ऋतमिति सत्यनाम (NG 3, 1)। ऋत सत्यं वा यज्ञ वा (NKT 4, 3, 20) तस्मात् सत्यसुखप्रापके यज्ञं इति व्याख्यायु मिश्रणमिश्रणयो: (अदा:) अत्रोभयार्थग्रहणम् | = In the Yajna which leads to true happiness. (यविष्ठ ) अतिशयेन संगमयिता विभाजको वा । = Great unifier or distributor.
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