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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 51/ मन्त्र 13
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    अप॒ त्यं वृ॑जि॒नं रि॒पुं स्ते॒नम॑ग्ने दुरा॒ध्य॑म्। द॒वि॒ष्ठम॑स्य सत्पते कृ॒धी सु॒गम् ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । त्यम् । वृ॒जि॒नम् । रि॒पुम् । स्ते॒नम् । अ॒ग्ने॒ । दुः॒ऽआ॒ध्य॑म् । द॒वि॒ष्ठम् । अ॒स्य॒ । स॒त्ऽप॒ते॒ । कृ॒धि । सु॒ऽगम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप त्यं वृजिनं रिपुं स्तेनमग्ने दुराध्यम्। दविष्ठमस्य सत्पते कृधी सुगम् ॥१३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप। त्यम्। वृजिनम्। रिपुम्। स्तेनम्। अग्ने। दुःऽआध्यम्। दविष्ठम्। अस्य। सत्ऽपते। कृधि। सुऽगम् ॥१३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 13
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः के दूरीकरणीया इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! त्यं दविष्ठं वृजिनं दुराध्यं रिपुं स्तेनं सुगं कृधी। हे सत्पते ! त्वमस्याऽप नयनं कृधी ॥१३॥

    पदार्थः

    (अप) दूरीकरणे (त्यम्) तम् (वृजिनम्) वर्जनीयम् (रिपुम्) विद्याशत्रुम् (स्तेनम्) चोरम् (अग्ने) विद्वन् (दुराध्यम्) दुःखेन वशीकर्तुम् योग्यम् (दविष्ठम्) अतिशयेन दूरम् (अस्य) (सत्पते) सत्यस्य पालक (कृधी) कुरु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (सुगम्) सुष्ठु गच्छति यस्मिँस्तम् ॥१३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यूयं विद्यामभ्यस्य शरीरात्मबलयुक्ताः सन्तो दुस्साध्यानपि शत्रून् सुसाध्यान् कुरुत यतस्ते दूरस्था एव भयेन सद्धर्मानुष्ठाना भवेयुः ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कौन दूर करने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् ! (त्यम्) उस (दविष्ठम्) अतीव दूर (वृजिनम्) त्यागने (दुराध्यम्) वा दुःख से वश में करने योग्य (रिपुम्) विद्याशत्रु (स्तेनम्) चोर को (सुगम्) सुगम (कृधी) करो, हे (सत्पते) सत्य के पालनेवाले ! आप (अस्य) इसका (अप) दूरीकरण करो ॥१३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्या ! तुम विद्या का अभ्यास कर शरीर और आत्मा के बल से युक्त होते हुए दुःसाध्य भी शत्रुओं को सुसाध्य अर्थात् उत्तमता से सूधे करो, जिससे वे दूर स्थित ही भय से सद्धर्म के अनुष्ठान करनेवाले हों ॥१३॥

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    विषय

    सत्पति, उसके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! आप त्यं ) उस ( रिपुम् ) पापवान्, शत्रु, ( स्तेनम् ) चोर, ( दुराध्यम् ) दुःख से वश में आने वाले ( वृजिनं ) मार्गवत् (दविष्ठम् ) दूर से दूर को भी, पैर रखकर जाने योग्य वा वर्जनीय शत्रु को (सुगं कृधि ) सुगम कर । हे ( सत्पते ) सज्जनों के प्रतिपालक ! तू ( अस्य ) इस प्रजाजन से उसे (अप कृधि ) दूर कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः – १, २, ३, ५, ७, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ४, ६, ९ स्वराट् पंक्ति: । १३, १४, १५ निचृदुष्णिक् । १६ निचृदनुष्टुप् ।। षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'वृजिन रिपु-दुराध्य स्तेन' से दूर

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो! आप (त्यम्) = उस (वृजिनम्) = कुटिल, (रिपुम्) = पापकारी (स्तेनम्) = चोरी की वृत्तिवाले (दुराध्यम्) = दुष्टाभिप्राय पुरुष को (दविष्ठम्) = बहुत ही दूर अप (अस्य) = हमारे से परे फैंकिये। ऐसे व्यक्ति से हमारा किसी प्रकार का सम्पर्क न हो। [२] हे (सत्पते) = सज्जनों के रक्षक प्रभो! आप हमारे लिये (सुगं कृधि) = उत्तमता से जाने योग्य मार्ग को करिये। [शोभनतया गन्तव्यं सुगम्] ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के अनुग्रह से कुटिल दुष्टाभिप्राय पुरुषों से बचे रहकर शोभन मार्ग पर चलनेवाले हों ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसा ! तू विद्येचा अभ्यास करून शरीर व आत्म्याचे बळ वाढव. असाध्य शत्रूंना वश कर. ज्यामुळे दूर असलेल्यांनीही भयाने सद्धर्माचे अनुष्ठान करावे. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, O divine leader, cast away that crooked thief, that strenuous enemy, far from the path of the aspirant. O protector and promoter of the good and the true, make it easy for him to follow the course simple and straight.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who should be kept away-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened leader ! purifier like the fire, make a man, who though living far off from you, deserves to be left off, who can be controlled with great difficulties, who is enemy of knowledge and who is a thief; traveler of the good path of righteousness. O protector of truth and good men ! keep him away from you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should acquire knowledge and being endowed with physical and spiritual strength, make even hard enemies easily controllable, so that they may become performers of good deeds out of fear (at least) while living at a long distance.

    Foot Notes

    (रिपुम्) विद्याशत्रुम् = Enemy of knowledge. (दुराध्यम्) दुःखेन वशीकर्तुंम् योग्यम् । = To be controlled with great difficulty.

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