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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 51/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वेद॒ यस्त्रीणि॑ वि॒दथा॑न्येषां दे॒वानां॒ जन्म॑ सनु॒तरा च॒ विप्रः॑। ऋ॒जु मर्ते॑षु वृजि॒ना च॒ पश्य॑न्न॒भि च॑ष्टे॒ सूरो॑ अ॒र्य एवा॑न् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वेद॑ । यः । त्रीणि॑ । वि॒दथा॑नि । ए॒षा॒म् । दे॒वाना॑म् । जन्म॑ । स॒नु॒तः । आ । च॒ । विप्रः॑ । ऋ॒जु । मर्ते॑षु । वृ॒जि॒ना । च॒ । पश्य॑न् । अ॒भि । च॒ष्टे॒ । सूरः॑ । अ॒र्यः । एवा॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वेद यस्त्रीणि विदथान्येषां देवानां जन्म सनुतरा च विप्रः। ऋजु मर्तेषु वृजिना च पश्यन्नभि चष्टे सूरो अर्य एवान् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वेद। यः। त्रीणि। विदथानि। एषाम्। देवानाम्। जन्म। सनुतः। आ। च। विप्रः। ऋजु। मर्तेषु। वृजिना। च। पश्यन्। अभि। चष्टे। सूरः। अर्यः। एवान् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मेधाविनः किं जानीयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    योऽर्यो विप्रः सूर एवानिवैषां देवानां सनुतर्जन्म त्रीणि विदथानि मर्त्तेषु वृजिना ऋजु च पश्यन्नभ्याचष्टे स चैतान् वेद ॥२॥

    पदार्थः

    (वेद) जानाति (यः) (त्रीणि) (विदथानि) वेदितुं योग्यानि कर्मोपासनाज्ञानानि (एषाम्) (देवानाम्) विदुषाम् (जन्म) प्रादुर्भावम् (सनुतः) सदा (आ) (च) (विपः) मेधावी (ऋजु) सरलम् (मर्त्तेषु) मनुष्येषु (वृजिना) बलानि (च) (पश्यन्) (अभि) (चष्टे) प्रकाशयति (सूरः) सूर्य्य इव (अर्यः) स्वामी (एवान्) प्राप्तव्यान् ॥२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या मनुष्याणां विद्याजन्म जानन्ति ते मनुष्येषु पूर्णं शरीरात्मबलं प्राप्य सर्वान् पदार्थान् वेत्तुमर्हन्ति ये कर्मोपासनाज्ञानानि प्राप्नुवन्ति ते स्वामिनो भवन्ति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मेधावी जन क्या जानें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (यः) जो (अर्यः) स्वामी (विप्रः) बुद्धिमान् (सूरः) सूर्य के समान (एवान्) प्राप्त होने योग्य पदार्थों के तुल्य (एषाम्) इन (देवानाम्) विद्वानों के (सनुतः) सर्वदा (जन्म) उत्पन्न होनेवाला (त्रीणि) तीन (विदथानि) जानने के योग्य कर्म, उपासना और ज्ञानों को (मर्त्तेषु) मनुष्यों में (वृजिना) बलों और (ऋजु, च) सरल व्यवहार को (पश्यन्) देखता हुआ (अभि, आ, चष्टे) सब ओर से प्रकाशित करता है, वह (च) भी इन उक्त पदार्थों को (वेद) जानता है ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य मनुष्यों के विद्याजन्म को जानते हैं, वे मनुष्यों में पूर्ण शरीर और आत्मा के बल को पाय सब पदार्थों के जानने योग्य होते हैं, जो कर्म उपासना और ज्ञानों को प्राप्त होते हैं, वे स्वामी होते हैं ॥२॥

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    विषय

    विद्वान् रूप आंख का सूर्यवत् वर्णन ।

    भावार्थ

    पूर्व सूचित विद्वान् रूप आंख का सूर्यवत् वर्णन । (यः) जो ( त्रीणि विदथानि) जानने और प्राप्त करने योग्य ज्ञान, कर्म और उपासना को ( वेद ) जानता है, और जो ( विप्रः ) विद्वान् मेधावी, ( सनुतः ) सदा ( देवानां) विद्वानों वा सूर्य चन्द्रादि लोकों के ( जन्म ) प्रकट होने का तत्व ( च ) भी ( वेद ) जानता है वह ( सूरः ) सूर्यवत् तेजस्वी, विद्वान् ( अर्य: ) स्वामी के समान, ( मर्त्तेषु ) मनुष्यों के बीच, उनके हितार्थ, (ऋजु ) सरल, धर्म मार्ग को और ( वृजिना च ) वर्जन करने योग्य अशोभन पाप कर्मों को भी ( पश्यन् ) विवेक पूर्वक देखता हुआ समस्त ( एवान् ) प्राप्तव्य पदार्थों और जाने योग्य मार्गों को भी ( अभि चष्टे ) प्रकाशित करता है, देखता और अन्यों को उपदेश करता है इसी से वह ( चष्टे इति चक्षुः ) ‘चक्षु’ कहाता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः – १, २, ३, ५, ७, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ४, ६, ९ स्वराट् पंक्ति: । १३, १४, १५ निचृदुष्णिक् । १६ निचृदनुष्टुप् ।। षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विप्रः

    पदार्थ

    [१] सूर्य द्युलोक को प्रकाशित करता है। ज्ञानी पुरुष मनुष्यों को ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कराता है। (यः) = जो (त्रीणि विदथानि) = 'ज्ञान, कर्म व उपासना' रूप तीनों ज्ञेय वस्तुओं को वेद जानता है। (च) = और (एषां देवानाम्) = इन सूर्य-चन्द्र आदि देवों के (सनुतः) = अन्तर्हित-अप्रज्ञायमान (जन्म) = उत्पत्ति को [वेद] जानता है। यह पुरुष (विप्रः) = ज्ञानी है। ज्ञानी पुरुष प्रकृति से बने इन सूर्य-चन्द्र आदि देवों के जन्म को तो जानता ही है, यह जीव के कर्त्तव्यभूत 'ज्ञान, कर्म व उपासना' को भी जाननेवाला होता है। [२] यह (सूरः) = ज्ञान के प्रकाश से सूर्य के समान चमकनेवाला (अर्य:) = जितेन्द्रिय पुरुष (मर्तेषु) = मनुष्यों में (ऋजु) = सरल कर्मों को (च) = व (वृजिना) = कुटिल कर्मों को (पश्यन्) = देखता हुआ (एवान्) = गन्तव्य मार्गों को (अभिचष्टे) = प्रकाशित करता है। पुण्य-पाप का विवेचन करता हुआ यह ज्ञानी पुरुष गन्तव्य मार्गों का उपदेश करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- विप्र वह है जो [क] जीव के लिये 'ज्ञान, कर्म, उपासना' का ज्ञान प्राप्त करता है, [ख] सूर्य आदि देवों के जन्म को समझता है, [ग] पुण्य-पाप का विवेक कर पाता है, [घ] गन्तव्य मार्गों का उपदेश देता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे माणसांचा विद्याजन्म जाणतात ती पूर्ण शरीर व आत्म्याचे बळ प्राप्त करून सर्व पदार्थांना यथायोग्य जाणू शकतात. जे ज्ञान, कर्म, उपासना करतात ते स्वामी होतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The lord of light who is all wise, too, knows, reaches and pervades three orders of the world, i.e., the earth, the middle regions of the skies, and the highest regions of the light of heaven; three fields of life, i.e., jnana or knowledge, karma or action, and upasana or prayer and meditation; and three departments of the social order, i.e., teaching and research, governance and administration, and dharma or values of life, law and justice. He also knows the birth and life of these Vishvedevas, i.e., the divinities of nature and humanity. And watching the simple and straight paths and performances as well as the tortuous and crooked movements of the mortals, the potent master reveals where they reach in consequence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should geniuses know-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    That very wise man, who being the master of his senses and mind, always knows the birth of these enlightened persons, the sun pervades all objects by his rays so knows them thoroughly and seeing Jnana (knowledge) Karma (action) and Upasana (meditation or contemplation or devotion) which are worth knowing and seeing uprightness and strength among men, enlightens from all sides; know them well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men, who know the second birth through knowledge, attain perfect strength of body and soul among men can know the real nature of all objects. Those who attain knowledge, actions. and contemplation, become masters of their senses and mind.

    Foot Notes

    (विदयानि) वेदितु योग्यानि कर्मोपासनाज्ञानानि । विद-ज्ञान । रु विदिभ्या डित् ( उणादि 3, 115 )। = Action, contemplation and knowledge which are worth knowing. (सनुतः) सदा । सनुतः इति निर्णीतान्तहिति नाम (NG 3, 25 ) = Always, for ever. (वृजिना) बलानि । वजनमिति वनाम (NG 2, 9)। = Powers, strength.

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