ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 51/ मन्त्र 6
मा नो॒ वृका॑य वृ॒क्ये॑ समस्मा अघाय॒ते री॑रधता यजत्राः। यू॒यं हि ष्ठा र॒थ्यो॑ नस्त॒नूनां॑ यू॒यं दक्ष॑स्य॒ वच॑सो बभू॒व ॥६॥
स्वर सहित पद पाठमा । नः॒ । वृका॑य । वृ॒क्ये॑ । स॒म॒स्मै॒ । अ॒घ॒ऽय॒ते । री॒र॒ध॒त॒ । य॒ज॒त्राः॒ । यू॒यम् । हि । स्थ । र॒थ्यः॑ । नः॒ । त॒नूना॑म् । यू॒यम् । दक्ष॑स्य । वच॑सः । ब॒भू॒व ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा नो वृकाय वृक्ये समस्मा अघायते रीरधता यजत्राः। यूयं हि ष्ठा रथ्यो नस्तनूनां यूयं दक्षस्य वचसो बभूव ॥६॥
स्वर रहित पद पाठमा। नः। वृकाय। वृक्ये। समस्मै। अघऽयते। रीरधत। यजत्राः। यूयम्। हि। स्थ। रथ्यः। नः। तनूनाम्। यूयम्। दक्षस्य। वचसः। बभूव ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं नैषितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे यजत्रा ! यूयं वृकाय वृक्ये समस्मा अघायते नोऽस्मान् मा रीरधता नस्तनूनां दक्षस्य वचसो रथ्य इव यूयं स्था हि सुखकारका बभूव ॥६॥
पदार्थः
(मा) निषेधे (नः) अस्मान् (वृकाय) स्तेनाय (वृक्ये) वृकेषु स्तेनेषु भवे व्यवहारे (समस्मै) सर्वस्मै (अघायते) आत्मनोऽघमिच्छते (रीरघता) भृशं हिंसत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (यजत्राः) सङ्गन्तारः (यूयम्) (हि) यतः (स्था) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (रथ्यः) रथेषु साधुः (नः) अस्माकम् (तनूनाम्) शरीराणाम् (यूयम्) (दक्षस्य) बलयुक्तस्य (वचसः) वचनस्य (बभूव) भवत ॥६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैः स्तेनादीनां दुष्टानां व्यवहारः कदाचिन्न कर्त्तव्यः ये च धर्म्मात्मानोऽजातशत्रवः सर्वेषां रक्षका भवेयुस्तान् यूयं सततं सेवध्वम् ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को किसकी इच्छा नहीं करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (यजत्राः) सङ्ग करनेवालो ! (यूयम्) तुम (वृकाय) चोर के लिये वा (वृक्ये) चोरों में उत्पन्न हुए व्यवहार के निमित्त (अघायते) अघ की इच्छा करनेवाले (समस्मै) सर्वजन के लिये (नः) हम लोगों को (मा) मत (रीरधता) नष्ट करो तथा (नः) हमारे (तनूनाम्) शरीरों के (दक्षस्य) बलयुक्त (वचसः) वचन का (रथ्यः) रथों में साधु उत्तम जो व्यवहार उसके समान (यूयम्) तुम (स्था) हो (हि) जिससे सुख करनेवाले (बभूव) होओ ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को चोर आदि दुष्टों का व्यवहार कभी नहीं कर्त्तव्य है और जो धर्मात्मा, अजातशत्रु अर्थात् जिनके शत्रु नहीं हुआ तथा सबकी रक्षा करनेवाले हों, उनकी तुम निरन्तर सेवा करो ॥६॥
विषय
उत्तम पुरुषों से प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( यजत्राः ) दानशील और सत्संग योग्य पुरुषो ! आप लोग ( नः ) हमें ( वृक्ये ) चोरों के करने योग्य व्यवहार के निमित्त ( समस्यै ) सब प्रकार के (अघायते ) हम पर पापाचरण करने की इच्छा करने वाले, (वृकाय ) हिंसक, वृक या भेड़िये के समान चोर डाकू स्वभाव के मनुष्य के लाभ के लिये ( नः ) हमें ( मा रीरधत ) हमें नष्ट मत करो । हमें उसके हितार्थ दण्डित मत करो और हमें उसके अधीन भी मत करो । ( हि ) क्योंकि आप लोग ( नः तनूनां ) हमारे शरीरों के भी ( रथ्यः ) रथ के नेता, सारथिवत् सन्मार्ग में प्रयोग करने और लेजाने वाले ( स्थ ) हो, और ( यूयं ) तुम लोग सदा ( दक्षस्य वचसः ) उत्तम वचन के नेता वा प्रवर्त्तक भी ( बभूव ) हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः – १, २, ३, ५, ७, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ४, ६, ९ स्वराट् पंक्ति: । १३, १४, १५ निचृदुष्णिक् । १६ निचृदनुष्टुप् ।। षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
बल व ज्ञान के प्रापक देव
पदार्थ
[१] हे (यजत्रा) = यष्टव्य-पूज्य देवो! आप (नः) = हमें (समस्मो) = सब (वृकाय) = हिंसा की वृत्तिवाले पुरुषों के लिये तथा (वृक्ये) = हिंसा वृत्तिवाली स्त्रियों के लिये (मा रीरधत) = वशीभूत मत करिये। (अघायते) = हमारे लिये (अघ) = अशुभ की कामनावाले के लिये हमें वशीभूत मत करिये। [२] (यूयम्) = आप सब (हि) = ही (न:) = हमारे (तनूनाम्) = शरीरों के (रथ्यः) = नेता, उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले (ष्ठा) [स्थ] = हैं। तथा (यूयम्) = आप हमारे लिये दक्षस्य बल के तथा (वचस:) = ज्ञान की वाणियों के [रथ्यः] प्रणेता बभूव होते हो ।
भावार्थ
भावार्थ- सब देव हमें हिंसक वृत्तिवाले व अशुभ की कामनावाले स्त्री-पुरुषों के वशीभूत होने से बचायें। ये सब देव हमारे शरीरों के सारथि बनें। हमारे लिये बल व ज्ञान की वाणियों को प्राप्त कराएँ ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी दुष्टाबरोबर व्यवहार कधी करू नये. जे धर्मात्मा, अजातशत्रू, सर्वांचे रक्षक असतात त्यांची सतत सेवा करावी. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Adorable friends and unifiers, divinities of nature and humanity, throw us not to the wolf and the thief nor to the rule of the sinner, nor relegate us to seizure, deprivation and exploitation. Pray stay you constant as our guide in matters of body, health and action and in the working of our social institutions, and be the carrier medium of the word and voice of the eminent expert.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What men should not desire-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O unifier ! do not give us away to thieves or to dishonest dealing like stealing, who may harm us. Do not allow us to be troubled by all men of sinful disposition. You are the guides of our bodies aright and rulers of powerful or effective speech and vehicles. You are bestowers of happiness upon us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
No man should have a dealing like that of the thieves and other wicked persons. O men! always serve those righteous persons, who have no enemies and who are protectors of all.
Foot Notes
(बुकाय) स्तेनाय । बुक इति स्तेननाम (NG 3, 24)। = For a thief (वृक्ये) वृकेषु स्तेनेषु भवे व्यवहारे | = In a dealing connected with stealing. (रीरधता) भृशं हिंसत । अत्र संहितायामिति दीर्घः । रध हिंसा संराध्यो: (दिवा.) अत्र हिसार्थक: । = Kill, harm.
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