ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 51/ मन्त्र 16
ऋषिः - ऋजिश्वाः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
अपि॒ पन्था॑मगन्महि स्वस्ति॒गाम॑ने॒हस॑म्। येन॒ विश्वाः॒ परि॒ द्विषो॑ वृ॒णक्ति॑ वि॒न्दते॒ वसु॑ ॥१६॥
स्वर सहित पद पाठअपि॑ । पन्था॑म् । अ॒ग॒न्म॒हि॒ । स्व॒स्ति॒ऽगाम् । अ॒ने॒हस॑म् । येन॑ । विश्वाः॑ । परि॑ । द्विषः॑ । वृ॒णक्ति॑ । वि॒न्दते॑ । वसु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपि पन्थामगन्महि स्वस्तिगामनेहसम्। येन विश्वाः परि द्विषो वृणक्ति विन्दते वसु ॥१६॥
स्वर रहित पद पाठअपि। पन्थाम्। अगन्महि। स्वस्तिऽगाम्। अनेहसम्। येन। विश्वाः। परि। द्विषः। वृणक्ति। विन्दते। वसु ॥१६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 16
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः कीदृशा मार्गा निर्मातव्या इत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! येन वीरो विश्वा द्विषः परि वृणक्ति वसु विन्दते तमनेहसं स्वस्तिगां पन्थां वयमप्यगन्महि ॥१६॥
पदार्थः
(अपि) (पन्थाम्) मार्गम् (अगन्महि) गच्छेम (स्वस्तिगाम्) सुखं गच्छन्ति यस्मिँस्तम् (अनेहसम्) अहन्तव्यम् (येन) (विश्वाः) सर्वाः (परि) (द्विषः) शत्रून् (वृणक्ति) दूरीकरोति (विन्दते) प्राप्नोति (वसु) द्रव्यम् ॥१६॥
भावार्थः
राजादिमनुष्या ईदृशान् मार्गान् सृजन्तु येषु गच्छतां चोरभयं न स्याद्द्रव्यलाभश्च भवेदिति ॥१६॥ अत्र विश्वेदेवकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकपञ्चाशत्तमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कैसे मार्ग सिद्ध करने चाहियें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (येन) जिसको वीर जन (विश्वाः) सब (द्विषः) शत्रुओं को (परि, वृणक्ति) सब ओर से दूर करता और (वसु) धन को (विन्दते) प्राप्त होता है उस (अनेहसम्) न नष्ट करने योग्य और (स्वस्तिगाम्) जिसमें सुख को प्राप्त होते उस (पन्थाम्) मार्ग को हम लोग (अपि) भी (अगन्महि) प्राप्त हों ॥१६॥
भावार्थ
राजादि मनुष्य ऐसे मार्गों को बनावें, जिनमें जाते हुओं को चोरों का भय न हो और द्रव्य का लाभ भी हो ॥१६॥ इस सूक्त में विश्वे देवों के कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह इक्यावनवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
परम पन्था प्रभु ।
भावार्थ
हम लोग (स्वस्ति-गाम् ) सुख से चलने योग्य और कल्याणमय उद्देश्य को जाने वाले वा कल्याणकारी सुखदायक भूमि वाले (अनेहसम् ) पापों, दुःखों जौर कष्टों से रहित ( पन्थाम् ) मार्ग को ( अपि अगन्म ) प्राप्त हों, ( येन ) जिससे जाता हुआ मनुष्य ( विश्वाः द्विषः ) समस्त शत्रु सेनाओं को (परि वृणक्ति) दूर करने में समर्थ होता है और ( वसु विन्दते ) ऐश्वर्यं का लाभ करता है । (२) अध्यात्म में परम गम्य होने से प्रभु ‘पन्था’ है, वह सुख कल्याण मार्ग से गमन करने योग्य पापरहित है। हम उसको (अपि अगन्महि) अप्यय अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हों, जिससे भक्त जन सब द्वेष वृत्तियों को त्यागता और ( वसु ) सबमें बसे परम ब्रह्म को प्राप्त करता है । इति त्रयोदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः – १, २, ३, ५, ७, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ४, ६, ९ स्वराट् पंक्ति: । १३, १४, १५ निचृदुष्णिक् । १६ निचृदनुष्टुप् ।। षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
निर्देषता के मार्ग पर
पदार्थ
[१] हम (पन्थां अपि अगन्महि) = उस मार्ग को अपिगत [प्राप्त] होते हैं जो (स्वस्तिगाम्) = कल्याण की ओर ले जानेवाला है तथा (अनेहसम्) = पापशून्य है । [२] उस मार्ग से चलते हैं (येन) = जिससे (विश्वाः द्विषः) = सब द्वेष की भावनाओं को परिवृणक्ति परिवर्जित करता है और (वसु विन्दते) = निवास के लिये आवश्यक धन को प्राप्त करता है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा मार्ग कल्याण की ओर ले जानेवाला, निष्पाप, निद्वेष व वसुप्रापक हो । अगला सूक्त भी 'ऋजिश्वा' ऋषि का है -
मराठी (1)
भावार्थ
राजा वगैरेनी असे मार्ग बनवावेत की, जाताना वाटेत चोराचे भय वाटता कामा नये व द्रव्याचा लाभ व्हावा. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And also, let us move on by the path which is faultless, auspicious, sinless and inviolable, which leads to noble attainments with peace, and by which holy brave people remove all hate, jealousy and enmity and realize all wealth and self fulfillment.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What sorts of paths should be made-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Let us tread upon that path by which men can go easily and comfortably and which is inviolable or safe, by going on which a hero removes all enemies and attains wealth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The king and officers of the State should construct such roads and highways, which may be free from fear of thieves and men may gather wealth through trade.
Foot Notes
(अनेहसम्) अहन्तव्यम् । (अनेहम्) नञि हन एह च (उणदिशेष 4, 224 ) - हन हिंसागत्यो (अदा.) अत्रहिस्पर्थं नञ् तस्यात् अहन्तभ्य इति व्याख्या | = Inviolable, safe. (वृणक्ति) दूरीकरोति वृजी-वर्जने (रुधा.) । = Removes.
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