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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 51/ मन्त्र 14
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    ग्रावा॑णः सोम नो॒ हि कं॑ सखित्व॒नाय॑ वाव॒शुः। ज॒ही न्य१॒॑त्रिणं॑ प॒णिं वृको॒ हि षः ॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ग्रावा॑णः । सो॒म॒ । नः॒ । हि । क॒म् । स॒खि॒ऽत्व॒नाय॑ । वा॒व॒शुः । ज॒हि । नि । अ॒त्रिण॑म् । प॒णिम् । वृकः॑ । हि । सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ग्रावाणः सोम नो हि कं सखित्वनाय वावशुः। जही न्य१त्रिणं पणिं वृको हि षः ॥१४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ग्रावाणः। सोम। नः। हि। कम्। सखिऽत्वनाय। वावशुः। जहि। नि। अत्रिणम्। पणिम्। वृकः। हि। सः ॥१४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 14
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः केन सह मित्रतां कृत्वा के निवारणीया इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे सोम ! ये ग्रावाण इव सखित्वनाय नो हि वावशुस्ते कमाप्नुयुर्योऽत्रिणं पणिं सम्बध्नाति स हि वृकोऽस्तीत्येनं त्वं नि जही ॥१४॥

    पदार्थः

    (ग्रावाणः) मेघा इव (सोम) प्रेरक (नः) अस्मान् (हि) यतः (कम्) सुखम् (सखित्वनाय) सख्युर्भावाय (वावशुः) कामयन्ते (जही) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नि) (अत्रिणम्) परस्वापहारकम् (पणिम्) व्यवहर्त्तारम् (वृकः) स्तेनः (हि) खलु (सः) ॥१४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि धर्मात्मानो विद्वांसो धर्मिष्ठैर्विद्वद्भिः सह मित्रत्वं रक्षन्ति तर्हि ते सततं सुखं प्राप्य मेघवत् सर्वान् वर्धयित्वा दुष्टाचारान् कितवादीन् सद्यो घ्नन्ति ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर किससे मित्रता कर कौन दूर करने योग्य हैं, इस विषयको कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सोम) प्रेरणा देनेवाले ! जो (ग्रावाणः) मेघों के समान (सखित्वनाय) मित्रपन के लिये (नः) हम लोगों को (हि) ही (वावशुः) चाहते हैं, वे (कम्) सुख को प्राप्त हों जो (अत्रिणम्) दूसरे का सर्वस्व हरनेवाला (पणिम्) व्यवहारकर्त्ता का संबन्ध करता है (सः, हि) वही (वृकः) चोर है, इस हेतु से इसे आप (नि, जही) निरन्तर मारो ॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यदि धर्मात्मा विद्वान् जन धर्मिष्ठ विद्वानों के साथ मित्रता रखते हैं तो वे निरन्तर सुख को प्राप्त होकर मेघ के समान सबको बढ़ाके दुष्ट आचरण करनेवाले छलियों को शीघ्र मारते हैं ॥१४॥

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    विषय

    सत्पति, उसके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! आप त्यं ) उस ( रिपुम् ) पापवान्, शत्रु, ( स्तेनम् ) चोर, ( दुराध्यम् ) दुःख से वश में आने वाले ( वृजिनं ) मार्गवत् (दविष्ठम् ) दूर से दूर को भी, पैर रखकर जाने योग्य वा वर्जनीय शत्रु को (सुगं कृधि ) सुगम कर । हे ( सत्पते ) सज्जनों के प्रतिपालक ! तू ( अस्य ) इस प्रजाजन से उसे (अप कृधि ) दूर कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः – १, २, ३, ५, ७, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ४, ६, ९ स्वराट् पंक्ति: । १३, १४, १५ निचृदुष्णिक् । १६ निचृदनुष्टुप् ।। षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    ज्ञानियों के समीप

    पदार्थ

    [१] हे (सोम) = शान्त प्रभो ! (ग्रावाणः) = ज्ञान की वाणियों का उपदेश करनेवाले ये स्तोता लोग (हि) = ही (नः कम्) = हमारे सुख के लिये हों। ये हमारे लिये (सखित्वनाय) = मित्रभाव के लिये (वावशुः) = कामना करें। इन ज्ञानी प्रभु-भक्तों के साथ ही सदा हमारी मित्रता हो। [२] हे प्रभो ! आप (अत्रिणम्) = इस हमें खा जानेवाले वासनारूप शत्रु को निजहि नष्ट कर दीजिये। (पणिम्) = इस केवल सांसारिक व्यवहार की बातों को करनेवाले कृपण व्यक्ति को समाप्त करिये । (सः) = वह (हि) = निश्चय से (वृकः) = अत्यन्त लोभी है, आदान ही आदान की वृत्तिवाला है। इसने देना तो सीखा ही नहीं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारी मित्रता ज्ञानी स्तोताओं के साथ हो । वासनामय कृपण लुब्ध पुरुषों से हम दूर रहें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेव्हा धर्मात्मा विद्वान लोक धार्मिक विद्वानांबरोबर मैत्री करतात, तेव्हा ते निरंतर सुख प्राप्त करून मेघाप्रमाणे सर्वांची वृद्धी करून दुष्टाचरणी व छळ करणाऱ्यांचा तत्काळ नाश करतात. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Soma, giver of peace and inspiration, our holy ones generous as clouds and strong as granite love peace for divine favour and friendship. Throw away the ogre of crooked behaviour, he is a wolf only.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who should be made friends and who should be removed-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O urger or impeller of good deeds ! those persons enjoy happiness, who desire or love us for friendship. You should destroy him, who being associated with (is an accomplice) a tradesman, is usurper of other's property or is a thief.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    If righteous enlightened men, keep friendship with righteous scholars, they having attained happiness, augmenting all like the cloud, destroy the wicked Persons.

    Foot Notes

    (ग्रावाणः) मेघाः इव । ग्रावा इति मेघनाम (NG 1, 10)। = Like clouds. (अत्रिणम्) परस्वापहारकम् । (अत्रि:) अद-भक्षणे (अ.) परस्वस्पान्यामेन अक्ता केत्रानन्ददाः सन्तीत्यार। = Misappropriation of others' property.

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