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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 16/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    ये राधां॑सि॒ दद॒त्यश्व्या॑ म॒घा कामे॑न॒ श्रव॑सो म॒हः। ताँ अंह॑सः पिपृहि प॒र्तृभि॒ष्ट्वं श॒तं पू॒र्भिर्य॑विष्ठ्य ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । राधां॑सि । दद॑ति । अश्व्या॑ । म॒घा । कामे॑न । श्रव॑सः । म॒हः । तान् । अंह॑सः । पि॒पृ॒हि॒ । प॒र्तृऽभिः । त्वम् । श॒तम् । पूः॒ऽभिः । य॒वि॒ष्ठ्य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये राधांसि ददत्यश्व्या मघा कामेन श्रवसो महः। ताँ अंहसः पिपृहि पर्तृभिष्ट्वं शतं पूर्भिर्यविष्ठ्य ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। राधांसि। ददति। अश्व्या। मघा। कामेन। श्रवसः। महः। तान्। अंहसः। पिपृहि। पर्तृऽभिः। त्वम्। शतम्। पूःऽभिः। यविष्ठ्य ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 16; मन्त्र » 10
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा प्रजाजनान् प्रति कथं वर्तेत इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे यविष्ठ्य राजन् ! ये महः श्रवसः कामेन शतं मघाऽश्व्या राधांसि सर्वेभ्यो ददति तान्पर्तृभिः पूर्भिस्त्वमंहसः पिपृहि ॥१०॥

    पदार्थः

    (ये) (राधांसि) धनानि (ददति) (अश्व्या) महत्सु भवानि (मघा) पूजनीयानि (कामेन) इच्छया (श्रवसः) अन्नस्य (महः) महतः (तान्) (अंहसः) दुष्टाचारात् (पिपृहि) पालय (पर्तृभिः) पालकैः (त्वम्) (शतम्) असंख्यम् (पूर्भिः) नगरीभिः (यविष्ठ्य) येऽतिशयेन युवानस्तेषु साधो ॥१०॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! ये धर्मात्मभ्य उद्योगिभ्यः श्रमं कारयित्वा धनाऽन्नानि प्रयच्छन्ति तान्नगरीभिः पालकैस्सह वर्त्तमानानधर्माचरणात्पृथग् रक्षयत एते धर्मेणोद्योगेन पुष्कलं धनाऽन्नं प्राप्य जगद्धिताय सततं दानं कुर्य्युः ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा प्रजाजनों के प्रति कैसे वर्त्ते, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (यविष्ठ्य) अतिशय कर जवानों में श्रेष्ठ राजन् ! (ये) जो (महः) बड़े (श्रवसः) अन्न की (कामेन) कामना से (शतम्) सैकड़ों (मघा) स्वीकार करने योग्य (अश्व्या) महत् लोगों में प्रकट होनेवाले (राधांसि) धनों को सब को (ददति) देते हैं (तान्) उनको (पर्त्तृभिः) रक्षक (पूर्भिः) नगरियों के साथ (त्वम्) आप (अंहसः) दुष्टाचरण से (पिपृहि) रक्षा कीजिये ॥१०॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! जो धर्मात्मा उद्योगी जनों को उनसे श्रम करा के धन और अन्न देते हैं, उन नगरी और पालकों के साथ वर्त्तमानों को अधर्माचरण से पृथक् रक्खो, जिससे धर्मपूर्वक उद्योग से पुष्कल धन और अन्न पाकर जगत् के हितार्थ निरन्तर दान करें ॥१०॥

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    विषय

    उससे नाना प्रार्थनाएं ।

    भावार्थ

    हे ( यविष्ठ्य ) अतियुवा, बलशालिन् ! ( ये ) जो (महः ) बड़े ( श्रवसः ) अन्न, यश, और ज्ञान की ( कामेन ) अभिलाषा से ( राधांसि ) नाना धन, (अश्व्या ) अश्वों के नाना सैन्य और (मधा) नाना प्रकार के पूजा सत्कार ( ददति ) प्रदान करते हैं तू ( तान् ) उनको (पर्तृभिः ) पालक और पूरक जनों से और (शतं पूर्भिः) सैकड़ों नगरियों या प्रकोटों आदि उपायों से ( पिपृहि ) पालन और पूर्ण कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्द्रः - १ स्वराडनुष्टुप्। ५ निचृदनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्।। ११ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिग्बृहती। ३ निचृद् बृहती। ४, ९, १० बृहती। ६, ८, १२ निचृत्पंक्तिः।।

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    विषय

    दान के तीन लाभ

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (ये) = जो (महः श्रवसः कामेन) = महान् यश की इच्छा से राधांसि कार्यसाधक धनों को तथा (अश्व्या) = इन्द्रियाश्वों को उत्तम बनानेवाले (मघा) = धनों को (ददति) = दान करते हैं, अर्थात् जो धन का इस प्रकार दान करते हैं कि उस धन से इन्द्रियों की पवित्रता में वृद्धि ही हो। (तान्) = उन लोगों को (अंहसः) = पाप से (पिपृहि) = बचाइये। दान उनके जीवन को पवित्र करनेवाला हो। यह पात्रता का विचार करके दिया गया सात्त्विक दान उनके यश को बढ़ाये तथा उनके जीवन को पवित्र करनेवाला हो। [२] हे यविष्ठ्य बुराइयों को दूर करनेवालों में सर्वोत्तम प्रभो ! (त्वम्) = आप (पर्तृभिः) = पालन साधनों से तथा (शतं पूर्भि:) = शतवर्षपर्यन्त चलनेवाली इन शरीर नगरियों से इन सात्त्विक दानियों का पालन करिये।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम दानशील बनें। सुपात्र में दत्त दान से हमारा [क] यश बढ़ेगा, [ख] हमें पवित्रता प्राप्त होगी, [ग] दीर्घजीवन व नीरोग जीवन प्राप्त होगा।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा ! जे धार्मिक उद्योगी लोकांकडून श्रम करवून घेऊन त्यांना अन्न व धन देतात त्या नगरीतील लोकांना अधर्माचरणापासून पृथक ठेव व जगाच्या हितासाठी धर्मपूर्वक उद्योग करून पुष्कळ धन व अन्न प्राप्त करून सदैव दान कर. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord most youthful, power enlightened, there are those generous souls who, of their own will and desire, provide all possible and attainable means and materials for successful living, food and energy, wealth and power, and great honour and reputation for excellence. O lord, protect them from sin and evil, promote them with a hundred safeguards and fortifications.

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