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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 16/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    स म॒न्द्रया॑ च जि॒ह्वया॒ वह्नि॑रा॒सा वि॒दुष्ट॑रः। अग्ने॑ र॒यिं म॒घव॑द्भ्यो न॒ आ व॑ह ह॒व्यदा॑तिं च सूदय ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । म॒न्द्रया॑ । च॒ । जि॒ह्वया॑ । वह्निः॑ । आ॒सा । वि॒दुःऽत॑रः । अग्ने॑ । र॒यिम् । म॒घव॑त्ऽभ्यः । नः॒ । आ । व॒ह॒ । ह॒व्यऽदा॑तिम् । च॒ । सू॒द॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स मन्द्रया च जिह्वया वह्निरासा विदुष्टरः। अग्ने रयिं मघवद्भ्यो न आ वह हव्यदातिं च सूदय ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। मन्द्रया। च। जिह्वया। वह्निः। आसा। विदुःऽतरः। अग्ने। रयिम्। मघवत्ऽभ्यः। नः। आ। वह। हव्यऽदातिम्। च। सूदय ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 16; मन्त्र » 9
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा किं कुर्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! यो वह्निरिव वर्त्तमानो विदुष्टरस्स एवं मन्द्रया जिह्वयाऽऽसा च मघवद्भ्यो नो रयिमा वह हव्यदातिं च सूदय ॥९॥

    पदार्थः

    (सः) (मन्द्रया) प्रशंसितयाऽऽनन्दप्रदया (च) (जिह्वया) सत्यभाषणयुक्तया वाचा (वह्निः) वोढा विद्यासुखप्रापकः (आसा) मुखेन (विदुष्टरः) अतिशयेन विद्वान् (अग्ने) अग्निरिव न्यायेन प्रकाशित राजन् (रयिम्) धनम् (मघवद्भ्यः) प्रशंसितधनेभ्यः (नः) अस्मभ्यम् (आ) (वह) समन्तात् प्रापय (हव्यदातिम्) होतुं दातुं गृहीतुं वा योग्यानां खण्डनम् (च) (सूदय) विनाशय ॥९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽग्नि सर्वेभ्यः पृथिव्यादिभ्यस्तत्त्वेभ्यो हीरकादीनि परिपाच्य प्रयच्छति तथा राजा धनाढ्यानां सकाशान्निर्धनं श्रीमन्तं कारयित्वा सुखं प्रापयेत् सत्यया मधुरया वाचा सर्वाञ्छिक्षेत यत एतेऽयुक्ते व्यवहारे धनहानिं न कुर्य्युः ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य न्याय से प्रकाशित राजन् ! जो (वह्निः) अग्नि के तुल्य वर्त्तमान विद्या और सुख प्राप्त करनेवाले (विदुष्टरः) अत्यन्त विद्वान् हैं (सः) सो आप (मन्द्रया) प्रशंसित आनन्द देनेवाली (जिह्वया) सत्य भाषणयुक्त वाणी से (च) और (आसा) मुख से (मघवद्भ्यः) प्रशंसित धनवाले (नः) हम लोगों के लिये (रयिम्) धन को (आ, वह) प्राप्त कीजिये (च) और (हव्यदातिम्) होम के वा ग्रहण करने के योग्य वस्तुओं के खण्डन को (सूदय) नष्ट कीजिये ॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि सब पृथिव्यादि तत्त्वों से हीरा आदि रत्नों को सब ओर से पका के देता है, वैसे राजा, धनाढ्यों के सम्बन्ध से निर्धन को धनवान् कराके सुख प्राप्त करे, सत्य मधुर वाणी से प्रजाजनों को शिक्षा करे, जिससे ये अयुक्त व्यवहार में धनहानि न करें ॥९॥

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    विषय

    उससे नाना प्रार्थनाएं ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) अग्रणी नायक ! (सः ) वह तू ( वह्निः ) राज्य कार्य-भार को उठाने वाला, धुरन्धर पुरुष ( मन्द्रया जिह्वया ) सब को हर्ष देने वाली वाणी और ( आसा ) हर्षप्रद मुख से तू ( विदुः-तरः) सबसे उत्तम विद्वान् होकर ( नः मघवद्भ्यः ) हमारे धनाढ्य पुरुषों को ( रयिम् आ वह ) ऐश्वर्य और बल प्राप्त करा और ( हव्य-दातिं च ) अन्न के विनाश या त्रुटि को ( सूदय ) दूर कर अर्थात् हमारे यहां ग्राह्य अन्न धनादि का टोटा कभी न हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्द्रः - १ स्वराडनुष्टुप्। ५ निचृदनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्।। ११ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिग्बृहती। ३ निचृद् बृहती। ४, ९, १० बृहती। ६, ८, १२ निचृत्पंक्तिः।।

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    विषय

    'मधुरवाणी-ज्ञान-यज्ञ'

    पदार्थ

    [१] (सः) = वह, गतमन्त्र के अनुसार 'दीर्घश्रुत् शर्म' में निवास करनेवाला व्यक्ति मन्द्रया (जिह्वया) = प्रसन्नता को उत्पन्न करनेवाले शब्दों को बोलनेवाली जिह्वा से (वह्निः) = सब कार्यों का वहन करनेवाला होता है। (च) = और (आसा) = मुख से (विदुष्टर:) = उत्कृष्ट विद्वान् बनता है। मुख से ज्ञान की वाणियों का ही उच्चारण करता हुआ उत्तरोत्तर अपने ज्ञान को बढ़ाता है। [२] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (नः) = हमारे (मघवद्भ्यः) = [मघ=मख] यज्ञशील पुरुषों के लिये (रयिम्) = यज्ञसाधक ऐश्वर्यों को (आवह) = प्राप्त कराइये, (च) = और (हव्यदातिम्) = हव्यों के देने को और यज्ञों को (सूदय) = प्रेरित करिये। हमारे ये यज्ञशील लोग ऐश्वर्य को प्राप्त करें और उन ऐश्वर्यों के द्वारा और अधिक यज्ञों को करनेवाले बनें ।

    भावार्थ

    भावार्थ-प्रभु के अनुग्रह से हम [क] मधुर शब्दों से सब व्यवहारों को सिद्ध करें। [ख] मुख को ज्ञानवृद्धि में ही व्याप्त करें। [ग] धन को प्राप्त करते हुए अधिकाधिक यज्ञशील हों।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अग्नी सर्व पृथ्वी इत्यादी तत्त्वांनी हिरे, रत्ने यांना सगळीकडून पक्व करतो तसे धनवान राजाने निर्धनांना धनवान करावे व सुख प्राप्त करावे व सत्य मधुर वाणीने प्रजाजनांना शिक्षित करावे. ज्यामुळे अयोग्य व्यवहाराने धनहानी होता कामा नये. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, leading light and fire of life, most pervasive power ever on the move, all aware and self- conscious, receiver of the inputs into the fire of consumption and disseminator of the fragrances for the living system of existence by charming flames, pray refine and intensify the holy inputs of havi and bring higher returns of honour, excellence and generosity for those who manage the wealth and power of humanity for the common good.

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