Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 16 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 16/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    त्वम॑ग्ने गृ॒हप॑ति॒स्त्वं होता॑ नो अध्व॒रे। त्वं पोता॑ विश्ववार॒ प्रचे॑ता॒ यक्षि॒ वेषि॑ च॒ वार्य॑म् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ग्ने॒ । गृ॒हऽप॑तिः । त्वम् । होता॑ । नः॒ । अ॒ध्व॒रे । त्वम् । पोता॑ । वि॒श्व॒ऽवा॒र॒ । प्रऽचे॑ताः । यक्षि॑ । वेषि॑ । च॒ । वार्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने गृहपतिस्त्वं होता नो अध्वरे। त्वं पोता विश्ववार प्रचेता यक्षि वेषि च वार्यम् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। गृहऽपतिः। त्वम्। होता। नः। अध्वरे। त्वम्। पोता। विश्वऽवार। प्रऽचेताः। यक्षि। वेषि। च। वार्यम् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 16; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यः कीदृशः स्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे विश्ववाराग्ने यो वह्निरिव गृहपतिस्त्वं नोऽध्वरे होता त्वं प्रचेता वार्य्यं यक्षि वेषि च तं त्वां वयमीमहे ॥५॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (अग्ने) वह्निरिव प्रकाशमान (गृहपतिः) गृहस्य पालकः (त्वम्) (होता) दाता (नः) अस्माकम् (अध्वरे) अहिंसादिलक्षणे धर्माचरणे (त्वम्) (पोता) पवित्रकर्त्ता (विश्ववार) सर्वैर्वरणीय (प्रचेताः) प्रकर्षेण प्रज्ञापकः (यक्षि) यजसि सङ्गच्छसे (वेषि) व्याप्नोषि (च) (वार्यम्) वरणीयं धर्म्यं व्यवहारम् ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। पूर्वस्मान् मन्त्रात् (ईमहे) इति पदमनुवर्त्तते। यथाऽग्निर्गृहपालकः सुखदाताऽध्वरे पवित्रकर्त्ता शरीरे चेतयिता सर्वं विश्वं सङ्गच्छते व्याप्नोति च तथैव मनुष्या भवन्तु ॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर मनुष्य कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (विश्ववार) सब को स्वीकार करने योग्य (अग्ने) अग्नि के तुल्य प्रकाशमान (गृहपतिः) घर के रक्षक ! (त्वम्) आप (नः) हमारे (अध्वरे) अहिंसादि लक्षणयुक्त धर्म के आचरण में (होता) दाता (त्वम्) (पोता) पवित्रकर्त्ता (त्वम्) आप (प्रचेताः) अच्छे प्रकार जतानेवाले आप (वार्य्यम्) स्वीकार योग्य धर्मयुक्त व्यवहार को (यक्षि) सङ्गत करते (च) और (वेषि) व्याप्त होते हैं, उन आपकी हम लोग याचना करते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पूर्व मन्त्र से यहाँ (ईमहे) पद की अनुवृत्ति आती है। जैसे अग्नि घर का पालक, सुखदाता, यज्ञ में पवित्रकर्त्ता, शरीर में चेतनता करानेवाला, सब विश्व का सङ्ग करता और व्याप्त होता है, वैसे ही मनुष्य होवें ॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    हमें कल्याण-पथ पर चलाइए

    शब्दार्थ

    (अग्ने) हे परमेश्वर ! (त्वम्) तू (गृहपतिः) हमारे हृदय मन्दिर का स्वामी है (त्वम्) तू (न: अध्वरे) हमारे उपासना यज्ञ का (होता) ऋत्विक, याजक है। (विश्ववार) हे वरण करने योग्य परमेश्वर ! (त्वम् पोता) आप ही सबको पवित्र करनेवाले हैं (प्रचेता:) आपका ज्ञान महान है (यक्षि) आप हमारे जीवन यज्ञ में हमें कल्याण की ओर प्रेरित कीजिए क्योंकि आप सदाचार सम्पन्न (वार्यम्) वरणीय ज्ञानी भक्त को ही (यासि च) प्राप्त होते हो ।

    भावार्थ

    १. ईश्वर ही हमारे हृदय-मन्दिर का स्वामी है, अतः जो मान और सम्मान ईश्वर को देना चाहिए उसे हम मूर्ति आदि किसी जड़ पदार्थ को न दें । २. हमने उपासना-यज्ञ प्रारम्भ किया है, उस उपासना-यज्ञ का याजक, उसे सम्पन्न करानेवाला प्रभु ही है । उसकी प्राप्ति पर ही यह यज्ञ सम्पूर्ण होगा । ३. वह ईश्वर वरणीय है, सबको पवित्र करनेवाला है, महान् ज्ञानी है अतः भक्त प्रार्थना करता है- प्रभो ! आप सबको पवित्र करनेवाले हैं अत: मुझे भी कल्याणपथ पर प्रेरित कीजिए । जो सदाचार-सम्पन्न है, जिसने अपने जीवन को शुद्ध, पवित्र और निर्मल बना लिया है आप उसीका वरण करते हैं, उसीको दर्शन देते हैं, उसीको अपना कृपापात्र बनाते हैं। आप हमारे जीवन को सुपथ पर चलाइए, जिससे हम आपको प्राप्त कर सकें ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    गृहपति अग्नि ।

    भावार्थ

    अग्नि जिस प्रकार गार्हपत्य रूप से गृहपति एवं रोग नाशक होने से भी गृह का पालक, (अध्वरे होता) यज्ञ में हवि गृहण करने से 'होता', वायु जलादि को पवित्र करने से 'पोता', है उसी प्रकार हे (अग्ने) विद्वन् ! हे तेजस्विन् ! ( त्वम् ) तू (गृहपतिः) गृहपति, गृहस्थ और हे राजन् ! तू राष्ट्र को भी गृहवत् पालन करने वाला (अध्वरे ) अहिंसक, प्रजापालक पद पर स्थित होकर ( होता ) सबको सब प्रकार के सुख, अन्न, वेतनादि देने वाला, और करादि लेने वाला है। ( त्वं पोता) न्याय व्यवहार और उत्तम व्यवस्था से राज्य शासन और धर्म-व्यवहार को शोधने वाला है । हे ( विश्ववार ) समस्त संकटों को धारण करने हारे ! तू ( प्रचेताः) सबसे उन्नतचित्त और ज्ञान वाला होकर (वार्यम्) श्रेष्ठ धन का ( यक्षि ) प्रदान करता और प्राप्त करता है। अथवा ( वार्यम् ) शत्रु आदि का कष्ट निवारण करने वाले सैन्यादि को (यक्षि) संगत कराता और ( वेषि च ) पालता भी है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्द्रः - १ स्वराडनुष्टुप्। ५ निचृदनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्।। ११ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिग्बृहती। ३ निचृद् बृहती। ४, ९, १० बृहती। ६, ८, १२ निचृत्पंक्तिः।।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    'गृहपति होता व पोता' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! (त्वं गृहपतिः) = आप ही इस शरीर गृह के पति [स्वामी] हैं। मुझे तो केवल उपभोक्ता का अधिकार ही प्राप्त है। इस गृह को न बिगड़ने देना मेरा मौलिक कर्त्तव्य हो जाता है। (नः) = हमारे (अध्वरे) = इस जीवनयज्ञ में (त्वं होता) = आप ही होता हैं। आप ही इस जीवनयज्ञ को चलानेवाले हैं। (त्वं पोता) = आप ही सब पवित्रता के करनेवाले हैं। [२] हे (विश्ववार) = सब वरणीय वस्तुओंवाले प्रभो! आप ही (प्रचेता:) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले हैं। आप (वार्यम्) = सब आवश्यक वरणीय धनों को (यक्षि) = हमारे साथ संगत करते हैं (च) = और (वेषि) = हमारे लिये इन वरणीय धनों की कामना करते हैं आप उन धनों की प्राप्ति के लिये हमें मार्ग दिखाते हैं और उन मार्गों पर चलने की शक्ति देते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हे प्रभो! आप ही इस शरीर गृह के पति हैं। आप ही इस जीवनयज्ञ के होता व पवित्र करनेवाले (पोता) हैं। आप ही हमें सब वरणीय वस्तुओं को प्राप्त कराते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. पूर्वीच्या मंत्रातील (ईमहे) या पदाची अनुवृत्ती झालेली आहे. जसा अग्नी गृहपालक, सुखदाता, यज्ञात पवित्रकर्ता, शरीरात चेतनता आणणारा, सर्व विश्वाच्या संगतीत राहणारा असून व्याप्तही असतो तसे माणसाने बनावे. ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, fiery and enlightened ruling power of nature and humanity, you are the protective and promotive head of the family and the home land. You are the receiver and giver of every thing in the loving and non-violent business of the nation’s governance and administration. You are the purifier, sanctifier and giver of enlightenment universally adored. You organise, accomplish and pervade the yajnic business of life and living together by choice and common will.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top