ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 16/ मन्त्र 11
दे॒वो वो॑ द्रविणो॒दाः पू॒र्णां वि॑वष्ट्या॒सिच॑म्। उद्वा॑ सि॒ञ्चध्व॒मुप॑ वा पृणध्व॒मादिद्वो॑ दे॒व ओ॑हते ॥११॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वः । वः॒ । द्र॒वि॒णः॒ऽदाः । पू॒र्णाम् । वि॒व॒ष्टि॒ । आ॒ऽसिच॑म् । उत् । वा॒ । सि॒ञ्चध्व॑म् । उप॑ । वा॒ । पृ॒ण॒ध्व॒म् । आत् । इत् । वः॒ । दे॒वः । ओ॒ह॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवो वो द्रविणोदाः पूर्णां विवष्ट्यासिचम्। उद्वा सिञ्चध्वमुप वा पृणध्वमादिद्वो देव ओहते ॥११॥
स्वर रहित पद पाठदेवः। वः। द्रविणःऽदाः। पूर्णाम्। विवष्टि। आऽसिचम्। उत्। वा। सिञ्चध्वम्। उप। वा। पृणध्वम्। आत्। इत्। वः। देवः। ओहते ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 16; मन्त्र » 11
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो द्रविणोदा देवो वः पूर्णामासिचं विवष्टि वा यो देवो वो युष्मानोहतं तमुत्सिञ्चध्वं वाऽऽदिदुपपृणध्वम् ॥११॥
पदार्थः
(देव) विद्वान् (वः) युष्मान् (द्रविणोदाः) धनप्रदः (पूर्णाम्) (विवष्टि) विशेषेण कामयते (आसिचम्) समन्तात्सिक्ताम् (उत्) (वा) (सिञ्चध्वम्) (उप) (वा) (पृणध्वम्) पूरयत (आत्) अनन्तरम् (इत्) एव (वः) युष्मान् (देवः) दिव्यगुणः (ओहते) वितर्कयति ॥११॥
भावार्थः
ये विद्वांसो मनुष्याणां पूर्णां कामनां कुर्वन्ति तान् सर्वे सुखयन्तु ॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (द्रविणोदाः) धनदाता (देवः) विद्वान् (वः) तुमको (पूर्णाम्) पूरी (आसिचम्) अच्छे प्रकार सेचन की कान्ति को (विवष्टि) विशेष कर कामना करता है (वा) अथवा जो (देवः) दिव्यगुणधारी विद्वान् (वः) तुमको (ओहते) वितर्कित करता उसको (उत्, सिञ्चध्वम्) ही सींचो (वा) अथवा (आत्, इत्) इसके अनन्तर ही (उप, पृणध्वम्) समीप में तृप्त करो ॥११॥
भावार्थ
जो विद्वान् लोग मनुष्यों की कामना पूर्ण करते हैं, उनको सब सुखी करें ॥११॥
विषय
उससे नाना प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
हे मनुष्यो ! ( देवः ) सब सुखों का दाता ही ( वः ) आप लोगों को ( द्रविणोदाः ) सब प्रकार के ऐश्वर्य देता है । वह ( पूर्णाम् ) पूर्ण ( आसिचम् ) आहुति ( विवष्टि ) चाहता है । ( वा ) अथवा ( उप पृणध्वम् ) उसकी उपासना करो (आत् इत् ) अनन्तर वही ( देवः ) दाता प्रभु ( वः ) आप लोगों के ( ओहते ) कर्मों का विवेचना करता और नाना कर्म-फल प्रदान करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्द्रः - १ स्वराडनुष्टुप्। ५ निचृदनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्।। ११ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिग्बृहती। ३ निचृद् बृहती। ४, ९, १० बृहती। ६, ८, १२ निचृत्पंक्तिः।।
विषय
दान व प्रभु प्राप्ति
पदार्थ
[१] (देव:) = वह देनेवाला प्रभु 'देवो दानात्' (वः) = तुम्हारे लिये (द्रविणोदाः) = सब धनों का देनेवाला है। वह हमारे से भी (पूर्णाम् आसिचम्) = पूर्ण आसेचन को विवष्टि चाहता है। वह चाहता है कि हम भी दिल खोलकर, दोनों हाथों को भरकर, देनेवाले बनें। [२] तुम (वा) = निश्चय से प्राजापत्य यज्ञ में, लोक कल्याण के कर्मों में (उत् सिञ्चध्वम्) = इस धन का उत्कर्षेण सेचन करनेवाले बनो और (वा) = निश्चय से (उपपृणध्वम्) = सुख को बढ़ाओ व लोक रक्षण करो। (आत् इत्) = ऐसा करने के बाद ही (देवः) = वे प्रकाशमय प्रभु (वः) = तुम्हें (ओहते) = अपने को प्राप्त कराते हैं। धन का त्याग ही हमें प्रभु के समीप ले जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे से सम्पूर्ण धन के दान की कामना करते हैं। हम धन के दान से लोक रक्षण करनेवाले बनें। तभी हम प्रभु प्राप्ति के पात्र बनेंगे।
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्वान माणसांच्या कामना पूर्ण करतात त्यांना सर्वांनी सुखी करावे. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, self-refulgent lord giver of wealth, honour and excellence, loves to have your fire of yajnic action sprinkled with overflowing ladle of ghrta and the highest refined action. Serve him closely, feed the fire to the full, let the flames rise, and the generous lord refulgent would lead you to the heights of prosperity and excellence.
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