ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 16/ मन्त्र 6
कृ॒धि रत्नं॒ यज॑मानाय सुक्रतो॒ त्वं हि र॑त्न॒धा असि॑। आ न॑ ऋ॒ते शि॑शीहि॒ विश्व॑मृ॒त्विजं॑ सु॒शंसो॒ यश्च॒ दक्ष॑ते ॥६॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒धि । रत्न॑म् । यज॑मानाय । सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो । त्वम् । हि । र॒त्न॒ऽधाः । असि॑ । आ । नः॒ । ऋ॒ते । शि॒शी॒हि॒ । विश्व॑म् । ऋ॒त्विज॑म् । सु॒ऽशंसः॑ । यः । च॒ । दक्ष॑ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
कृधि रत्नं यजमानाय सुक्रतो त्वं हि रत्नधा असि। आ न ऋते शिशीहि विश्वमृत्विजं सुशंसो यश्च दक्षते ॥६॥
स्वर रहित पद पाठकृधि। रत्नम्। यजमानाय। सुक्रतो इति सुऽक्रतो। त्वम्। हि। रत्नऽधाः। असि। आ। नः। ऋते। शिशीहि। विश्वम्। ऋत्विजम्। सुऽशंसः। यः। च। दक्षते ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 16; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे सुक्रतो ! यः सुशंसो दक्षते तं विश्वमृत्विजं नोऽस्मांश्चर्ते त्वमा शिशीहि। हि यतस्त्वं रत्नधा असि तस्माद्यजमानाय रत्नं कृधि ॥६॥
पदार्थः
(कृधि) कुरु (रत्नम्) रमणीयं धनम् (यजमानाय) परोपकारार्थं यज्ञं कुर्वते (सुक्रतो) उत्तमप्रज्ञ धर्म्यकर्मकर्त्तः (त्वम्) (हि) यतः (रत्नधाः) यो रत्नानि धनानि दधाति सः (असि) (आ) (नः) अस्मान् (ऋते) सत्यभाषणादिरूपे सङ्गन्तव्ये व्यवहारे (शिशीहि) तीव्रोद्योगिनः कुरु (विश्वम्) समग्रम् (ऋत्विजम्) य ऋतूनर्हति तम् (सुशंसः) सुष्ठुप्रशंसः (यः) (च) (दक्षते) वर्धते ॥६॥
भावार्थः
अस्मिन् संसारे यो धनाढ्यः स्यात्स प्रीत्या निर्धनानुद्योगं कारयित्वा सततं पालयेत्। ये सत्क्रियायां वर्धन्ते तान् धन्यवादेन धनादिदानेन च प्रोत्साहयेत् ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सुक्रतो) उत्तम बुद्धि वा धर्मयुक्त कर्म करनेवाले पुरुष ! (यः) जो (सुशंसः) सुन्दर प्रशंसायुक्त जन (दक्षते) वृद्धि को प्राप्त होता उस (विश्वम्) सब (ऋत्विजम्) ऋतुओं के योग्य काम करनेवाले को (च) और (नः) हमको (ऋते) सत्यभाषणादि रूप सङ्गत करने योग्य व्यवहार में (त्वम्) आप (आ, शिशीहि) तीव्र उद्योगी कीजिये (हि) जिस कारण आप (रत्नधाः) उत्तम धनों के धारणकर्त्ता (असि) हैं इस कारण (यजमानाय) परोपकारार्थ यज्ञ करते हुए के लिये (रत्नम्) रमणीय धन को प्रकट (कृधि) कीजिये ॥६॥
भावार्थ
इस संसार में जो पुरुष धनाढ्य हो, वह निर्धनों को उद्योग कराके निरन्तर पालन करे। जो सत् श्रेष्ठ कर्मों में बढ़ते उन्नत होते हैं, उन को धन्यवाद और धनादि पदार्थों के दान से उत्साहयुक्त करे ॥६॥
विषय
उससे नाना प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
हे ( सुक्रतो ) शुभ कर्म और शुभ बुद्धि वाले पुरुष ! (हि) जिससे ( त्वं रत्नधा असि ) तू रमण करने योग्य, उत्तम धन्धों को धारण करता है, इस से तू ( यजमानाय ) परोपकारार्थ दान, यज्ञादि करने वाले पुरुष के लिये ( रत्नं कृधि ) उत्तम धन उत्पन्न कर । और ( नः ) हमारे ( विश्वम् ऋत्विजं ) समस्त ऋतु अनुकूल यज्ञ करने और संगति करने वाले को ( ऋते ) यज्ञ, धर्म व्यवहार और धनोपार्जन के कार्य में ( आ शिशीहि ) सब प्रकार से तीक्ष्ण अर्थात् उत्साहित कर और उसको भी उत्साहित कर ( यः ) जो ( सु-शंसः ) उत्तम प्रशंसा योग्य होकर ( दक्षते ) बढ़ता है, कुशल होकर कार्य करता है । इत्येकविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्द्रः - १ स्वराडनुष्टुप्। ५ निचृदनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्।। ११ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिग्बृहती। ३ निचृद् बृहती। ४, ९, १० बृहती। ६, ८, १२ निचृत्पंक्तिः।।
विषय
ऋत्विजों का तीक्ष्णीकरण
पदार्थ
[१] हे (सुक्रतो) = उत्तम शक्ति व प्रज्ञानवाले प्रभो! आप (यजमानाय) = इस यज्ञशील परुष के लिये (रत्नं कृधि) = रमणीय धनों को करनेवाले होइये । (त्वम्) = आप (हि) = ही (रत्नधाः) = सब रमणीय धनों के धारण करनेवाले (असि) = हैं। [२] (नः) = हमारे ऋते इस जीवनयज्ञ में (विश्वम्) = सब (ऋत्विजम्) = 'इन्द्रिय, मन व बुद्धि' रूप ऋत्विजों को (आशिशीहि) = समन्तात् तीक्ष्ण करिये- ये सब ऋत्विज् अपने-अपने कार्य को सुचारुरूपेण करनेवाले हों और आप हमें उस सन्तान को प्राप्त कराइये जो (सुशंस:) = उत्तम स्तवनवाला होता हुआ (दक्षते) = [वर्धते] वृद्धि को प्राप्त होता है अथवा उन ऋत्विजों को ही प्राप्त कराइये जो उत्तम शंसनवाला होते हुए दिन व दिन वृद्धि को प्राप्त होनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु यज्ञशील व्यक्तियों के लिये रमणीय रत्नों का धारण करते हैं। वे जीवनयज्ञ के संचालक इन्द्रियरूप ऋत्विजों को अपने-अपने कार्य में तीक्ष्ण करते हैं। मन को सुशंस व बुद्धि को वृद्धि का कारण बनाते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या जगात जो पुरुष धनवान असेल त्याने निर्धनांना उद्योग करावयास लावून त्यांचे निरंतर पालन करावे. जे सत् कर्माने वाढून उन्नत होतात त्यांना धन्यवाद द्यावेत व धन इत्यादी पदार्थ दान करून उत्साहयुक्त करावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O presiding power of holy actions in life, bestow the jewels of life upon the yajamana as you are the lord ruler and disburser of the world’s wealth. Shine, sharpen and inspire us to do well in the truth and law of the world of nature and humanity and advance the person whoever commands honour and excellence and rises as expert performer in the universal yajna of evolution and progress at the social level.
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