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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 16/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    उद॑स्य शो॒चिर॑स्थादा॒जुह्वा॑नस्य मी॒ळ्हुषः॑। उद्धू॒मासो॑ अरु॒षासो॑ दिवि॒स्पृशः॒ सम॒ग्निमि॑न्धते॒ नरः॑ ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । अ॒स्य॒ । शो॒चिः । अ॒स्था॒त् । आ॒ऽजुह्वा॑नस्य । मी॒ळ्हुषः॑ । उत् । धू॒मासः॑ । अ॒रु॒षासः॑ । दि॒वि॒ऽस्पृशः॑ । सम् । अ॒ग्निम् । इ॒न्ध॒ते॒ । नरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदस्य शोचिरस्थादाजुह्वानस्य मीळ्हुषः। उद्धूमासो अरुषासो दिविस्पृशः समग्निमिन्धते नरः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। अस्य। शोचिः। अस्थात्। आऽजुह्वानस्य। मीळ्हुषः। उत्। धूमासः। अरुषासः। दिविऽस्पृशः। सम्। अग्निम्। इन्धते। नरः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सोऽग्निः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    ये नरो यस्याऽऽजुह्वानस्य मीळ्हुषोऽस्याग्नेः शोचिरुदस्थाद्दिविस्पृशो धूमासोऽरुषास उत्तिष्ठन्ते तमग्निं समिन्धते त उन्नतिं प्राप्नुवन्ति ॥३॥

    पदार्थः

    (उत्) (अस्य) अग्नेः (शोचिः) दीप्तिः (अस्थात्) उत्तिष्ठते (आजुह्वानस्य) समन्तात् प्राप्तहुतद्रव्यस्य (मीळ्हुषः) सेचकस्य (उत्) (धूमासः) (उरुषासः) ज्वालाः (दिविस्पृशः) ये दिवि स्पृशन्ति (सम्) (अग्निम्) (इन्धते) (नरः) मनुष्याः ॥३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यूयमूर्ध्वगामिनं धूमध्वजं तेजोमयं वृष्ट्यादिना प्रजापालकमग्निं सम्प्रयुङ्ध्वं येन युष्माकं कामसिद्धिः स्यात् ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह अग्नि कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (नरः) मनुष्य जिस (आजुह्वानस्य) अच्छे प्रकार होम किये द्रव्य को प्राप्त (मीळ्हुषः) सेचक (अस्य) इस अग्नि का (शोचिः) दीप्ति (उदस्थात्) उठती है (दिविस्पृशः) प्रकाश में स्पर्श करनेवाले (धूमासः) धूम और (अरुषासः) अरुणवर्ण लपटें (उत्) उठती हैं उस (अग्निम्) अग्नि को (समिन्धते) सम्यक् प्रकाशित करते हैं, वे उन्नति को प्राप्त होते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग ऊर्ध्वगामी धूमध्वजावाले तेजोमय वृष्टि आदि से प्रजा के रक्षक अग्नि को सम्यक् प्रयुक्त करो, जिस से तुम्हारे कार्यों की सिद्धि होवे ॥३॥

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    विषय

    उसका तेजस्वी सूर्य और अग्निवत् स्वरूप ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( आजुह्वानस्य मीढुषः ) आहुति दिये गये, घी से सींचे गये ( अस्य ) इस अग्नि की ( शोचि: ) ज्वाला ( उत् अस्थात् ) ऊपर को उठती है और (अरुषासः धूमासः दिवि स्पृश: उत् अस्थुः ) चमकते आकाश को छूने वाले धूम गण ऊपर उठते हैं उस ( अग्निम् ) अग्नि को ( नरः समिन्धते ) उत्तम पुरुष प्रज्वलित करते हैं इसी प्रकार (आ-जुह्वानस्य) अपनी किरणों से जल को ग्रहण करने वाले ( मीढुषः ) वृष्टि करने वाले (अस्य ) इस सूर्य का (शोचि:) प्रकाश ( उत् अस्थात् ) सब से ऊपर विद्यमान रहता है । और उसके ( दिविस्पृशः) आकाश भर में व्यापक (अरुषासः) अति देदीप्यमान (धूमासः) धूम के समान ज्वाला पटल ( उत् ) ऊपर उठते हैं उस ( अग्निम् ) तेजस्वी, अग्निमय सूर्य के ( नरः ) प्रकाश लाने वाले किरण ( सम् इन्धते ) प्रदीप्त करते हैं उसी प्रकार (आ-जुह्वानस्य) सबको वेतन देने और सब से कर आदि लेने वाले ( मीढुषः ) वीर्यवान्, दानशील पुरुष का ( शचि : उत् अस्थात् ) पवित्र तेज सर्वोपरि विराजता है। उसके ( अरुषासः ) दोषरहित, तेजस्वी, ( दिवि-स्पृशः ) व्यवहार, तेज, युद्ध, कांक्षादि में चतुर (धूमासः) शत्रु को कंपा देने वाले वीर पुरुष (उत्) सर्वोपरि विराजते हैं और ऐसे ही ( नरः ) नायकगण ( अग्निम् ) अग्रणी नायक को (सम् इन्धते ) खूब चमकाते और प्रदीप्त करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्द्रः - १ स्वराडनुष्टुप्। ५ निचृदनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्।। ११ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिग्बृहती। ३ निचृद् बृहती। ४, ९, १० बृहती। ६, ८, १२ निचृत्पंक्तिः।।

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    विषय

    हृदयों में प्रभु के प्रकाश को देखना

    पदार्थ

    [१] (अस्य) = इस (आजुह्वानस्य) = जिसके प्रति हम अपने को दे रहे हैं या जिसकी प्राप्ति के लिये यज्ञों को कर रहे हैं, उस (मीढुषः) = सुखों का सेचन करनेवाले प्रभु की (शोचिः) = ज्ञानदीप्ति - (उद् अस्थात्) = हमारे हृदयों में उठती है। हम निर्मल हृदयों में उस प्रभु के प्रकाश को देखते हैं। [२] इस प्रभु के (अरुषासः) = आरोचमान, (दिविस्पृशः) = द्युलोक का स्पर्श करानेवाली-देवलोक में जन्म को प्राप्त करानेवाली (धूमासः) = ज्ञानाग्नि द्वारा वासनाओं को कम्पित करने की शक्तियाँ (उत्) = ऊपर उठती हैं हम सब वासनाओं को कम्पित करके दूर करनेवाले होते हैं। इसीलिए (नरः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले मनुष्य (अग्निम्) = उस अग्रेणी प्रभु को (समिन्धते) = समिद्ध करते हैं। अपने हृदयों में प्रभु के प्रकाश को देखने के लिये यत्नशील होना ही वह उपाय है जिससे कि हम जीवन में उन्नत होते हैं और पथभ्रष्ट नहीं होते।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु प्राप्ति के लिये यज्ञशील बनें। प्रभु सब सुखों का वर्षण करेंगे। प्रभु की ज्ञानदीप्तियाँ हमारी वासनाओं का विध्वंस करेंगी। हमारा कर्त्तव्य है कि प्रभु के प्रकाश को देखने का प्रयत्न करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! तुम्ही ऊर्ध्वगामी धूमध्वजायुक्त तेजोमय वृष्टी इत्यादीने प्रजेचा रक्षक असलेल्या अग्नीला सम्यक् प्रयुक्त करा. ज्यामुळे तुमच्या कार्याची सिद्धी व्हावी. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    High rises the radiant glory of this fire of Agni fed on holy food while the flames and fragrance soar and touch the skies, when people light and raise the fire with profuse oblations of ghrta offered to the bountiful power.

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