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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    स यो॑जते अरु॒षा वि॒श्वभो॑जसा॒ स दु॑द्रव॒त्स्वा॑हुतः। सु॒ब्रह्मा॑ य॒ज्ञः सु॒शमी॒ वसू॑नां दे॒वं राधो॒ जना॑नाम् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । यो॒ज॒ते॒ । अ॒रु॒षा । वि॒श्वऽभो॑जसा । सः । दु॒द्र॒व॒त् । सुऽआ॑हुतः । सु॒ऽब्रह्मा॑ । य॒ज्ञः । सु॒ऽशमी॑ । वसू॑नाम् । दे॒वम् । राधः॑ । जना॑नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स योजते अरुषा विश्वभोजसा स दुद्रवत्स्वाहुतः। सुब्रह्मा यज्ञः सुशमी वसूनां देवं राधो जनानाम् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। योजते। अरुषा। विश्वऽभोजसा। सः। दुद्रवत्। सुऽआहुतः। सुऽब्रह्मा। यज्ञः। सुऽशमी। वसूनाम्। देवम्। राधः। जनानाम् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा किं कुर्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यदि स्वाहुतः स सुब्रह्मा यज्ञः सुशमी वसूनां राधो जनानां देवं विश्वभोजसा अरुषा योजयन् दुद्रवत् सन् योजते स सिद्धेच्छो जायते ॥२॥

    पदार्थः

    (सः) (योजते) (अरुषा) अश्वाविव जलाऽग्नी (विश्वभोजसा) विश्वस्य पालकौ (सः) (दुद्रवत्) भृशं गच्छेत् (स्वाहुतः) सुष्ठुकृताह्वानः (सुब्रह्मा) शोभनानि ब्रह्माणि धनाऽन्नानि यस्य यद्वा सुष्ठु चतुर्वेदवित् (यज्ञः) पूजनीयः (सुशमी) शोभनकर्मा (वसूनाम्) धनानाम् (देवम्) दिव्यस्वरूपम् (राधः) धनम् (जनानाम्) मनुष्याणाम् ॥२॥

    भावार्थः

    यो राजा प्रजापालनाय सदा सुस्थिरस्तं ये दुःखनिवारणायाह्वयेयुस्तान् सद्यः प्राप्य सुखिनः करोत्युत्तमाचरणो विद्वान् सन्प्रजाहितं प्रतिक्षणं चिकीर्षति स एव सर्वैः पूजनीयो भवति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! यदि (सः) वह (स्वाहुतः) सुन्दर प्रकार आह्वान किया हुआ (सः) वह (सुब्रह्मा) सुन्दर अन्न वा धनों से युक्त वा अच्छे प्रकार चारों वेद का ज्ञाता (यज्ञः) सत्कार के योग्य (सुशमी) सुन्दर कर्मोंवाला (वसूनाम्) धनों का (राधः) धन (जनानाम्) मनुष्यों के बीच (देवम्) उत्तम (विश्वभोजसा) विश्व के रक्षक (अरुषा) घोड़ों के तुल्य जल-अग्नि को युक्त करता और (दुद्रवत्) शीघ्र प्राप्त होता हुआ (योजते) युक्त करता है, वह इच्छा सिद्धिवाला होता है ॥२॥

    भावार्थ

    जो राजा प्रजापालन के अर्थ सदा सुस्थिर है, उसको जो दुःख निवारण के लिये बुलावें उनको शीघ्र प्राप्त होकर सुखी करता है, उत्तम आचरणोंवाला विद्वान् होता हुआ प्रतिक्षण प्रजा के हित की इच्छा करता है, वही सब को पूजनीय होता है ॥२॥

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    विषय

    सुब्रह्मा, वेदज्ञ का आदर ।

    भावार्थ

    (सः ) वह विद्वान् पुरुष ( अरुषा ) तेज से युक्त अश्वों के समान ( विश्व-भोजसा ) समस्त विश्व के पालक, जल और अग्नि तत्व को ( योजते ) रथ में संयुक्त करता है ( सः स्वाहुतः ) वह उत्तम रीति से आदृत ( दुद्रवत् ) अति वेग से जाने में समर्थ होता है । इसी प्रकार वह ( सु-ब्रह्मा ) उत्तम वेदों का ज्ञाता विद्वान् और उत्तम धनसम्पन्न राजा, ( यज्ञः ) पूजनीय, ( सु-शमी ) सुकर्मा और उत्तम, शम का साधक ( वसूनां जनानां ) वसी प्रजाओं में से (देवं ) सुख देने वाले ( राधः ) ऐश्वर्य को भी ( दुद्रवत् ) प्राप्त होता है । ( २ ) इसी प्रकार जो 'विश्व' नाम जीवात्मा के पालक अश्ववत् नियुक्त प्राण अपान दोनों को ( योजते ) योग द्वारा वश करता है वह (सु-आहुतः ) उत्तम ज्ञानी, यष्टा, सुकर्मा, होकर वसु, जीवों के आराध्य परम देव को प्राप्त है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्द्रः - १ स्वराडनुष्टुप्। ५ निचृदनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्।। ११ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिग्बृहती। ३ निचृद् बृहती। ४, ९, १० बृहती। ६, ८, १२ निचृत्पंक्तिः।।

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    विषय

    अरुषा-विश्वभोजसा [हरी]

    पदार्थ

    [१] (सः) = वे प्रभु हमारे शरीर-रथों में (अरुषा) = आरोचमान तथा (विश्वभोजसा) = सबका पालन करनेवाले इन्द्रियाश्वों को योजते जोड़ते हैं। प्रभु के उपासक की ज्ञानेन्द्रियाँ आरोचमान होती हैं तथा कर्मेन्द्रियाँ यज्ञ आदि पालनात्मक कर्मों में प्रवृत्त होती हैं। (सः दुद्रवत्) = वे प्रभु सर्व (प्राणिहित) = वे के लिये निरन्तर गतिशील हैं, (स्वाहुत:) = चारों ओर उत्तम दानोंवाले हैं। प्रभु ने हमारे लिये उत्तमोत्तम वस्तुओं को प्रदान किया है। [२] (सुब्रह्मा) = हमारे इस जीवनयज्ञ के उत्कृष्ट ब्रह्मा प्रभु ही हैं। हम भूल करते हैं, तो वे ठीक करने की प्रेरणा देते ही हैं। जितने अंश में हम प्रेरणा को सुनते हैं यज्ञ ठीक चलता ही है। (यज्ञः) = वे प्रभु ही उपासनीय हैं, सुशमी उत्तम कर्मोंवाले हैं। इन (वसूनाम्) = सब वसुओं के (देवम्) = देनेवाले, (जनानाम्) = लोगों के (राध:) = सच्चे ऐश्वर्यभूत प्रभु को [आहुवे] = पुकारता हूँ। [गत मन्त्र से यह 'आहुवे' क्रिया अनुवृत्त हुई है]। इन प्रभु को ही हम अपना वास्तविक धन जानें।

    भावार्थ

    भावार्थ-प्रभु उत्तम इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कराते हैं। हमारे हित के लिये सतत प्रवृत्त हैं। हमारे जीवन-यज्ञ के 'ब्रह्मा' है। सब धनों के देनेवाले व सच्चे ऐश्वर्य हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो राजा प्रजापालन स्थिरपणे करतो त्याला दुःख निवारण्यासाठी बोलवावे. तेव्हा तो तात्काळ तुम्हाला सुखी करतो. उत्तम आचरण करणारा विद्वान प्रतिक्षणी प्रजेच्या हिताची इच्छा बाळगतो, तो सर्वांना पूजनीय वाटतो. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That Agni, leading power of nature and humanity, uses bright natural elements of universal value such as sun rays, fire and water, like horses harnessed to the chariot, and, when invoked and raised, would move at the fastest speed. He is the master of natural knowledge and natural materials, adorable, noble and potent worker, and the accomplisher of means, materials and projects of humanity for common success and progress.

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