ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 16/ मन्त्र 12
तं होता॑रमध्व॒रस्य॒ प्रचे॑तसं॒ वह्निं॑ दे॒वा अ॑कृण्वत। दधा॑ति॒ रत्नं॑ विध॒ते सु॒वीर्य॑म॒ग्निर्जना॑य दा॒शुषे॑ ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठतम् । होता॑रम् । अ॒ध्व॒रस्य॑ । प्रऽचे॑तसम् । वह्नि॑म् । दे॒वाः । अ॒कृ॒ण्व॒त॒ । दधा॑ति । रत्न॑म् । वि॒ध॒ते । सु॒ऽवीर्य॑म् । अ॒ग्निः । जना॑य । दा॒शुषे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं होतारमध्वरस्य प्रचेतसं वह्निं देवा अकृण्वत। दधाति रत्नं विधते सुवीर्यमग्निर्जनाय दाशुषे ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठतम्। होतारम्। अध्वरस्य। प्रऽचेतसम्। वह्निम्। देवाः। अकृण्वत। दधाति। रत्नम्। विधते। सुऽवीर्यम्। अग्निः। जनाय। दाशुषे ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 16; मन्त्र » 12
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरध्यापकाः अध्येतारः किं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
योऽग्निरिव विधते दाशुषे जनाय सुवीर्यं रत्नं दधाति यं देवा अध्वरस्य होतारं वह्निं प्रचेतसमकृण्वत तं सर्वे सुशिक्षयन्तु ॥१२॥
पदार्थः
(तम्) (होतारम्) विद्याया आदातारम् (अध्वरस्य) अहिंसामयस्य यज्ञस्य (प्रचेतसम्) प्रकर्षेण ज्ञापयितारम् (वह्निम्) वोढारम् (देवाः) विद्वांसः (अकृण्वत) कुर्वन्तु (दधाति) (रत्नम्) रमणीयं धनम् (विधते) विधानं कुर्वते (सुवीर्यम्) सुष्ठु पराक्रमम् (अग्निः) वह्निरिव वर्त्तमानः (जनाय) परोपकारे प्रसिद्धाय (दाशुषे) दात्रे ॥१२॥
भावार्थः
हे विद्वांसो ! ये जितेन्द्रियास्तीव्रप्रज्ञा विद्याग्रहणाय प्रवृत्ता विद्यार्थिनस्युस्तानहिंस्रान् प्राज्ञान् विद्याधर्मधरान्कुरुतेति ॥१२॥ अत्राग्निविद्वद्राजयजमानपुरोहितोपदेशकविद्यार्थिकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षोडशं सूक्तं द्वाविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर अध्यापक और अध्येता क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (अग्निः) अग्नि के तुल्य वर्त्तमान विद्वान् (विधते) विधान करते हुए (दाशुषे) दाता (जनाय) जन के लिये (सुवीर्यम्) सुन्दर पराक्रम युक्त (रत्नम्) रमणीय धन को (दधाति) धारण करता जिसको (देवाः) विद्वान् लोग (अध्वरस्य) अहिंसारूप यज्ञ के कर्त्ता वा (होतारम्) विद्या के ग्रहीता (वह्निम्) कार्य्यों के चलाने और (प्रचेतसम्) अच्छे प्रकार जतानेवाले जन को (अकृण्वत) करें (तम्) उसको सब सुशिक्षित करावें ॥१२॥
भावार्थ
हे विद्वानो ! जो जितेन्द्रिय, तीव्रबुद्धिवाले, विद्या ग्रहण के अर्थ प्रवृत्त विद्यार्थी हों, उनको अहिंसाशील, बुद्धिमान्, विद्या और धर्म के धारक करो ॥१२॥ इस सूक्त में अग्नि, विद्वान्, राजा, यजमान, पुरोहित, उपदेशक और विद्यार्थी के कृत्य का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सोलहवाँ सूक्त और बाईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
उससे नाना प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
( देवः ) विद्वान् लोग ( होतारं ) विद्या के ग्रहण करने और शिष्यों व जनों के प्रदान करने वाले (अध्वरस्य ) अहिंसामय यज्ञ के ( प्र-चेतसम् ) उत्तम ज्ञाता, पुरुष को ( वह्निम् अकृण्वत ) अग्नि के समान कार्य का बोझ उठाने वाला, आश्रय बनावें । वह ( अग्निः ) अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष (विधते) विशेष कर्म करने वाले को ( रत्नं ) उत्तम सुखकारी फल ( दधाति ) प्रदान करता और वही ( दाशुषे ) दानशील पुरुष को ( सु-वीर्यम् दधाति ) उत्तम वीर्य, बल प्रदान करता है । इति द्वाविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्द्रः - १ स्वराडनुष्टुप्। ५ निचृदनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्।। ११ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिग्बृहती। ३ निचृद् बृहती। ४, ९, १० बृहती। ६, ८, १२ निचृत्पंक्तिः।।
विषय
रत्नम्-सुवीर्यम्
पदार्थ
[१] (देवाः) = देववृत्ति के लोग (तम्) = उस (प्रचेतसम्) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले (वह्निम्) = सब कार्यों के साधक प्रभु को (अध्वरस्य) = इस जीवन यज्ञ का (होतारम्) = होता (अकृण्वत) = करते हैं। प्रभु को ही इस शरीर रथ का सारथि बनाते हैं। प्रभु इस यात्रा को पूर्ण करानेवाले होते हैं। [२] (अग्निः) = वे अग्रेणी प्रभु (विधते) = प्रभु का पूजन करनेवाले (दाशुषे) = दानशील (जनाय) = व्यक्ति के लिये (रत्नम्) = रमणीय धनों को तथा (सुवीर्यम्) = उत्तम शक्ति को दधाति धारण करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम इस जीवनयज्ञ का होता प्रभु को ही जानें। दान द्वारा प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमें 'रत्न व सुवीर्य' प्राप्त करायेंगे। अगले सूक्त के ऋषि देवता भी 'वसिष्ठ' व 'अग्नि' हैं-
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वानांनो ! जे जितेंद्रिय, तीव्र प्रज्ञावान विद्या प्राप्त करण्याकडे प्रवृत्त होणारे विद्यार्थी असतात त्यांना अहिंसक, बुद्धिमान विद्या व धर्माचे धारक करा. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let the brilliant, noble and generous leaders of humanity choose, sanctify and anoint that intelligent all-aware person as Agni, leader, ruler and high-priest of the yajnic social order of love, peace and non violence, who would create and bear the jewel wealth and values of life and high power and prestige of the noblest order for generous self-sacrificing people dedicated to the yajna of the social system.
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