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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 66/ मन्त्र 14
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - सूर्यः छन्दः - आर्षीविराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    उदु॒ त्यद्द॑र्श॒तं वपु॑र्दि॒व ए॑ति प्रतिह्व॒रे । यदी॑मा॒शुर्वह॑ति दे॒व एत॑शो॒ विश्व॑स्मै॒ चक्ष॑से॒ अर॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ऊँ॒ इति॑ । त्यत् । द॒र्श॒तम् । वपुः॑ । दि॒वः । ए॒ति॒ । प्र॒ति॒ऽह्व॒रे । यत् । ई॒म् । आ॒शुः । वह॑ति । दे॒वः । एत॑शः । विश्व॑स्मै । चक्ष॑से । अर॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदु त्यद्दर्शतं वपुर्दिव एति प्रतिह्वरे । यदीमाशुर्वहति देव एतशो विश्वस्मै चक्षसे अरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । ऊँ इति । त्यत् । दर्शतम् । वपुः । दिवः । एति । प्रतिऽह्वरे । यत् । ईम् । आशुः । वहति । देवः । एतशः । विश्वस्मै । चक्षसे । अरम् ॥ ७.६६.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 66; मन्त्र » 14
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वत्संसर्गेण शुद्धान्तःकरणानां परमात्मप्राप्तिः कथ्यते।

    पदार्थः

    (त्यत्, दर्शतं, वपुः) पूर्वोक्तं ब्रह्मणः स्वरूपं (दिवः, प्रतिह्वरे) प्रकाशमानान्तःकरणे (एति) प्रकाशितं भवति। (विश्वस्मै, चक्षसे) तस्मै सर्वद्रष्टे (देवः) परमात्मने (एतशः) गमनशीलाः (यदीं) याः चित्तवृत्तयः (आशुः) शीघ्रं यथा तथा (वहति) जीवात्मानं प्राप्नुवन्ति ताः (अरं) अलं भवन्ति ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब उपर्युक्त विद्वानों के सत्सङ्ग से शुद्ध हुए अन्त:करण द्वारा परमात्मा की प्राप्ति कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (त्यत्, दर्शतं, वपुः, उत्) उस अमृत पुरुष का दर्शनीय स्वरूप (यत्) जो (दिवः, प्रतिह्वरे) प्रकाशमान अन्त:करण में (एति) प्रकाशित होता है, उस (विश्वस्मै, चक्षसे) सम्पूर्ण संसार के द्रष्टा (देवः) देव को (एतशः, यत्, ईम्) ये गमनशील अन्त:करण की वृत्तियें (आशुः, वहति) शीघ्र ही प्राप्त कराने में (अरं) समर्थ होती हैं। मन्त्र में “उ” पादपूर्ति के लिए है ॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में यह उपदेश किया है कि अनृत से द्वेष तथा सत्य से प्यार करनेवाले सत्पुरुषों के सत्सङ्ग से शुद्धान्त:करणपुरुष उस परमात्मदेव को प्राप्त करते हैं। अर्थात् उनके अन्त:करण की वृत्तियाँ उस सर्वद्रष्टा देव को प्राप्त करने के लिए शीघ्र ही समर्थ होती हैं और उन्हीं के द्वारा वह देव प्रकाशित होता है, मलिनान्त:करण पुरुष उनको प्राप्त करने में सर्वथा असमर्थ होते हैं, इसलिए हे सांसारिक जनों ! तुम सत्सङ्ग द्वारा उस अमृतस्वरूप को प्राप्त करो, जो तुम्हारा एकमात्र आधार है ॥१४॥

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    विषय

    सूर्यवत् तेजस्वी शासक का वर्णन, उसके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (दिवः प्रतिहरे ) आकाश में प्रत्यक्ष प्रतीयमान वक्राकार वृत्त मार्ग में ( त्यत् दर्शतं वपुः उत् एति उ ) वह दर्शनीय रूप वाला सूर्यमण्डल उदय होता है । और ( यत् ) जो (ईम्) सब तरफ़ से ( आशुः ) वेग से गतिमान् ( देवः ) तेजस्वी, प्रकाशप्रद, ( एतशः ) शुक्ल वर्ण होकर (विश्वस्मै चक्षसे अरं) समस्त संसार को दिखाने के लिये पर्याप्त होता है उसी प्रकार ( त्यत् ) वह ( दर्शतं वपुः ) दर्शनीय शरीराकृति धारण करने वाला तेजस्वी पुरुष (प्रतिह्वरे ) प्रत्येक कुटिल व्यवहार के ऊपर ( दिवः ) अपने तेज के कारण ( उत् एति उ ) उत्तम होकर विराजता है, उस पर शासन करता है, ( यत् ) जो ( ईम् ) सब ओर ( आशुः ) शीघ्रकारी, अश्व के समान बलवान्, समान बलवान्, ( देवः ) विद्वान् (एतशः) शुक्लकर्मा, सदाचारी होकर ( विश्वस्मै चक्षसे ) सबको ज्ञान-मार्ग दिखाने और सत् उपदेश करने के लिये ( अरं वहतिं ) बहुत अधिक ज्ञान और बलको, रथ को उत्तम अश्व के समान अपने कन्धे उठाकर चलाने में समर्थ होता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १—३, १७—१९ मित्रावरुणौ। ४—१३ आदित्याः। १४—१६ सूर्यो देवता। छन्दः—१, २, ४, ६ निचृद्गायत्री। ३ विराड् गायत्री। ५, ६, ७, १८, १९ आर्षी गायत्री । १७ पादनिचृद् गायत्री । ८ स्वराड् गायत्री । १० निचृद् बृहती । ११ स्वराड् बृहती । १३, १५ आर्षी भुरिग् बृहती । १४ आ आर्षीविराड् बृहती । १६ पुर उष्णिक् ॥

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    विषय

    सदाचारी पुरुष

    पदार्थ

    पदार्थ- जैसे (दिवः प्रतिह्वरे) = आकाश में प्रत्यक्ष वक्र, वृत्त मार्ग में (त्यत् दर्शतं वपुः उत् एति उ) = वह दर्शनीय रूपवाला सूर्य उदय होता है और (यत्) = जो (ईम्) = सब तरफ से (आशुः) = वेग से गतिमान् (देवः) = प्रकाशप्रद, (एतश:) = शुक्ल वर्ण होकर (विश्वस्मै चक्षसे अरं) = समस्त संसार को दिखाने के लिये है वैसे ही (त्यत्) = वह (दर्शतं वपुः) = दर्शनीय शरीरवाला पुरुष (प्रतिह्वरे) = प्रत्येक कुटिल व्यवहार के ऊपर (दिवः) = अपने तेज के कारण (उत् एति उ) = उत्तम होकर शासन करता है, (यत्) = जो (ईम्) = सब ओर (आशुः) = शीघ्रकारी, (देव:) = विद्वान् (एतश:) = शुक्लकर्मा, सदाचारी होकर (विश्वस्मै चक्षसे) = सबको ज्ञान मार्ग दिखाने और सदुपदेश करने के लिये (अरं वहति) = अधिक ज्ञान और बल को, रथ को अश्व के समान चलाने में समर्थ होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- जब राष्ट्र में सदाचारी पुरुष राजा होता है तो वह अपने तेज से उत्तम शासन करता हुआ कुटिल व विध्वंसक तत्त्वों को नष्ट वा संयमित करके विद्वानों के सहयोग से शुभ कर्म,सत्य उपदेश, ज्ञान तथा बलों को बढ़ाकर राष्ट्र को उत्तम तथा उन्नत बनाने में समर्थ होता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And now (when we are at peace), the glorious vision of Divinity arises on the horizon of consciousness when the divine frequency of the illuminative mind with the divine communicates it to the consciousness instantly in response to meditative concentration for the man of universal vision.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात हा उपदेश केलेला आहे, की असत्याचा द्वेष व सत्यावर प्रेम करणाऱ्या सत्पुरुषांच्या सत्संगतीने शुद्ध अंत:करण असलेले पुरुष त्या परमेश्वराला प्राप्त करतात. अर्थात, त्यांच्या अंत:करणाच्या वृत्ती त्या सर्वदृष्ट्या देवाला प्राप्त करण्यासाठी तात्काळ समर्थ होतात व त्यांच्याद्वारेच तो देव प्रकट होतो. मलिन अंत:करणाचे पुरुष त्याला प्राप्त करण्यासाठी सर्वस्वी असमर्थ असतात. त्यासाठी हे सांसारिक माणसांनो! तुम्ही सत्संगाद्वारे त्या अमृतस्वरूपाला प्राप्त करा. तो तुमचा आधार आहे. ॥१४॥

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