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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 66/ मन्त्र 18
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - आर्षीगायत्री स्वरः - षड्जः

    दि॒वो धाम॑भिर्वरुण मि॒त्रश्चा या॑तम॒द्रुहा॑ । पिब॑तं॒ सोम॑मातु॒जी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वः । धाम॑ऽभिः । व॒रु॒ण॒ । मि॒त्रः । च॒ । आ । या॒त॒म् । अ॒द्रुहा॑ । पिब॑तम् । सोम॑म् । आ॒तु॒जी इत्या॑ऽतु॒जी ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवो धामभिर्वरुण मित्रश्चा यातमद्रुहा । पिबतं सोममातुजी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवः । धामऽभिः । वरुण । मित्रः । च । आ । यातम् । अद्रुहा । पिबतम् । सोमम् । आतुजी इत्याऽतुजी ॥ ७.६६.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 66; मन्त्र » 18
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वरुणः, मित्रः) हे पूजनीयास्तथा परमप्रिया विद्वांसः, भवन्तः (अद्रुहा) द्वेषरहिताः सन्तः (दिवः, धामभिः) ज्ञानद्वारेण प्रकाशितैर्मार्गैः (आ, यातं) आगच्छन्तु (च) किञ्च (आतुजी, सोमम्) शान्तिप्रदं सोमं (पिबतं) पिबन्तु, अत्र द्विवचनं मित्रवरुणशक्तिद्वयप्राधान्यसूचनार्थं वस्तुतः सर्वे विद्वांसः सोमरसं पिबन्त्वित्यर्थः ॥१८॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वरुणः, मित्रः) हे पूजनीय तथा परमप्रिय विद्वान् पुरुषों ! आप लोग (अद्रुहा) राग-द्वेष को त्याग कर (दिवः, धामभिः) ज्ञान से प्रकाशित हुए मार्गों से (आ, यातं) उत्साहपूर्वक आओ (च) और (आतुजी, सोमं) शान्तिप्रदान करनेवाले सोमरस को (पिबतं) पीओ ॥१८॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे ज्ञान के प्रकाश से सदा तेजस्वी तथा रागद्वेषादि भावों से रहित विद्वान् पुरुषो ! तुम यजमानों से निमन्त्रित हुए उनके पवित्र घरों में आओ और सोमादि सात्त्विक पदार्थों का सेवन करते हुए उनको पवित्र धर्म का उपदेश करो, ताकि वे गृहस्थाश्रम के नियमपालन में विचल न हों ॥१८॥

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    विषय

    उत्तम स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( वरुण मित्रः च ) वरुण और मित्र, रात्रि दिन के तुल्य, आप स्त्री पुरुषो ! (अद्रुहा) परस्पर द्रोह न करते हुए (आतुजी) शत्रुओं का नाश और प्रजाओं का पालन करते हुए ( दिवः धामभिः ) सूर्य के प्रकाशमय तेजों से प्रभावित होकर ( सोमं पिबतु ) ऐश्वर्य को प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १—३, १७—१९ मित्रावरुणौ। ४—१३ आदित्याः। १४—१६ सूर्यो देवता। छन्दः—१, २, ४, ६ निचृद्गायत्री। ३ विराड् गायत्री। ५, ६, ७, १८, १९ आर्षी गायत्री । १७ पादनिचृद् गायत्री । ८ स्वराड् गायत्री । १० निचृद् बृहती । ११ स्वराड् बृहती । १३, १५ आर्षी भुरिग् बृहती । १४ आ आर्षीविराड् बृहती । १६ पुर उष्णिक् ॥

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    विषय

    तेजस्वी बनो

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (वरुणः मित्र: च) = वरुण और मित्र, रात्रि दिन के तुल्य, स्त्री-पुरुषो! आप (अद्रुहा) = परस्पर द्रोह न करते हुए (आतुजी) = शत्रुओं का नाश और प्रजाओं का पालन करते हुए (दिवः धामभिः) = सूर्य के प्रकाशमय तेजों से प्रभावित होकर (सोमं पिबतु) = ऐश्वर्य को प्राप्त हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- उत्तम स्त्री-पुरुष ब्रह्मचर्य पालन के द्वारा तेजस्वी होकर अपने आन्तरिक शत्रु काम, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि का नाश करके प्रीतिपूर्वक प्रजाओं का पालन करें। इससे प्रजाएँ भी तेजस्वी होंगी।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Varima and Mitra, powers of love and judgement free from hate, malice and jealousy, come and drink of the soothing and exhilarating soma at the yajna.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा हा उपदेश करतो, की हे ज्ञानप्रकाशाने सदैव तेजस्वी व रागद्वेष इत्यादी भावरहित विद्वानांनो! तुम्ही यजमानांनी निमंत्रित केलेल्या त्यांच्या पवित्र घरात या व सोम इत्यादी सात्त्विक पदार्थांचे सेवन करीत त्यांना पवित्र धर्माचा उपदेश करा. त्यामुळे ते गृहस्थाश्रमाच्या नियमापासून विचलित होता कामा नयेत ॥१८॥

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