ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 66/ मन्त्र 5
सु॒प्रा॒वीर॑स्तु॒ स क्षय॒: प्र नु याम॑न्त्सुदानवः । ये नो॒ अंहो॑ऽति॒पिप्र॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒प्र॒ऽअ॒वीः । अ॒स्तु॒ । सः । क्षयः॑ । प्र । नु । याम॑न् । सु॒ऽदा॒न॒वः॒ । ये । नः॒ । अंहः॑ । अ॒ति॒ऽपिप्र॑ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुप्रावीरस्तु स क्षय: प्र नु यामन्त्सुदानवः । ये नो अंहोऽतिपिप्रति ॥
स्वर रहित पद पाठसुप्रऽअवीः । अस्तु । सः । क्षयः । प्र । नु । यामन् । सुऽदानवः । ये । नः । अंहः । अतिऽपिप्रति ॥ ७.६६.५
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 66; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सुदानवः) हे यजमानाः ! भवतां (यामन्) मार्गं (सः) पूर्वोक्तः परमात्मा (क्षयः) विघ्नरहितं करोतु (नु) अपरञ्च स मार्गः (सुप्रावीः) रक्षायुक्तः (अस्तु) भवतु अन्यच्च (ये) यानि (नः) अस्माकं (अंहः) पापानि (अतिपिप्रति) दूरीकरोतु भवानिति शेषः ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सुदानवः) हे यजमान लोगों ! तुम्हारे (यामन्) मार्ग (सः) वह परमात्मा (क्षयः) विघ्नरहित करे (नु) और (सुप्रावीः, अस्तु) रक्षायुक्त हो। तुम लोग यह प्रार्थना करो कि (ये) जो (नः) हमारे (अंहः) पाप हैं, उनको आप (अतिपिप्रति) हम से दूर करें ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि दानी तथा यज्ञशील यजमानों के मार्ग सदा निर्विघ्न होते और उनके पापों का सदैव क्षय होता है। अर्थात् जब वे अपने शुद्ध हृदय द्वारा परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि हे भगवन् ! आप हमारे पापों का क्षय करें, तब उनको इस कर्म का फल अवश्य शुभ होता है। यद्यपि वैदिक मत में केवल प्रार्थना का फल मनोऽभिलषित पदार्थों की प्राप्ति नहीं हो सकता, तथापि प्रार्थना द्वारा अपने हृदय की न्यूनताओं को अनुभव करने से उद्योग का भाव उत्पन्न होता है, जिसका फल परमात्मा अवश्य देते हैं, या यों कहों कि अपनी न्यूनताओं को पूर्ण करते हुए जो प्रार्थना की जाती है, वह सफल होती है ॥५॥
विषय
सूर्यवत् तेजस्वी पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( ये ) जो ( नः ) हमें ( अंहः ) पाप कर्म से ( अतिपिप्रति ) पार करते हैं ऐसे ( सु-दानवः ) उत्तम ज्ञान का उपदेश करने वाले विद्वान् धर्मात्मा पुरुषो ! आप लोगों से प्रार्थना है कि ( यामन् ) राज्य के नियन्त्रण और शत्रु पर चढ़ाई के कार्य में ( सः ) वह ( क्षयः ) शत्रुओं का नाशकारी पुरुष ( नु ) निश्चय से ( नः क्षयः ) हमारे गृह के समान ही (सुप्रावीः अस्तु नु) हमारी उत्तम रीति से रक्षा करने हारा भी हो । ( यामन् ) विवाह बन्धन का कार्य हो चुकने पर ( सः क्षयः ) वह ऐश्वर्य युक्त, बसने वाला गृहपति ( सु-प्रावीः प्र अस्तु ) उत्तम गृहरक्षक होकर रहे । इत्यष्टमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १—३, १७—१९ मित्रावरुणौ। ४—१३ आदित्याः। १४—१६ सूर्यो देवता। छन्दः—१, २, ४, ६ निचृद्गायत्री। ३ विराड् गायत्री। ५, ६, ७, १८, १९ आर्षी गायत्री । १७ पादनिचृद् गायत्री । ८ स्वराड् गायत्री । १० निचृद् बृहती । ११ स्वराड् बृहती । १३, १५ आर्षी भुरिग् बृहती । १४ आ आर्षीविराड् बृहती । १६ पुर उष्णिक् ॥
विषय
उपदेशक का कर्त्तव्य
पदार्थ
पदार्थ- (ये) = जो (नः) = हमें (अंहः) = पाप कर्म से (अतिपिप्रति) = पार करते हैं ऐसे (सु-दानवः) = उत्तम उपदेशक, विद्वान् पुरुषो! आप लोगों से प्रार्थना है कि (यामन्) = राज्य के नियन्त्रण और शत्रु पर चढ़ाई के कार्य में (सः) = वह (क्षयः) = शत्रुओं का नाशक पुरुष (नु) = निश्चय से (क्षयः) = गृह के समान (सुप्रावी: अस्तु नु) = उत्तम रीति से रक्षक हो । (यामन्) = विवाह बन्धन का कार्य हो चुकने पर (सः क्षयः) = वह ऐश्वर्य - युक्त, नव गृहपति (सु-प्रावीः प्र अस्तु) = उत्तम गृहरक्षक हो ।
भावार्थ
भावार्थ- उत्तम विद्वान् पुरुष लोगों को उत्तम उपदेश करे जिससे वे पाप कर्मों से दूर रहें तथा राजनियमों के पालन और शत्रुओं के नाश में सहयोगी होकर राष्ट्र की रक्षा उत्तम रीति से कर सकें। और सद्गृहस्थ बनकर राष्ट्र रक्षा में सहयोगी बनें।
इंग्लिश (1)
Meaning
O self-refulgent Adityas, immortal powers of light, generous givers of wisdom and vision, who protect us from sin and darkness, may that home, homeland and dominion of ours be protected, protective and full of peace throughout our paths of onward progress.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर उपदेश करतो, की दानशील व यज्ञशील यजमानाचे मार्ग सदैव निर्विघ्न असतात व त्यांच्या पापाचा सदैव क्षय होतो. अर्थात, जेव्हा ते आपल्या पवित्र हृदयाद्वारे परमेश्वराची प्रार्थना करतात, की हे भगवान! तू आमच्या पापाचा नाश कर, तेव्हा त्यांना या कर्माचे फळ अवश्य शुभ मिळते. जरी वैदिक मतानुसार केवळ प्रार्थनेचे फळ-मनोभिलाषित पदार्थांची प्राप्ती होऊ शकत नाही. तरीही प्रार्थनेद्वारे आपल्या हृदयाच्या न्यूनतेचा अनुभव घेतल्याने कर्मशीलतेचा भाव उत्पन्न होतो. त्याचे फळ परमेश्वर देतो किंवा असे म्हणता येईल, की आपल्या न्यूनता नाहीशा करून जी प्रार्थना केली जाते ती सफल होते. ॥५॥
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