ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 66/ मन्त्र 6
उ॒त स्व॒राजो॒ अदि॑ति॒रद॑ब्धस्य व्र॒तस्य॒ ये । म॒हो राजा॑न ईशते ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । स्व॒ऽराजः॑ । अदि॑तिः । अद॑ब्धस्य । व्र॒तस्य॑ । ये । म॒हः । राजा॑नः । ई॒श॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत स्वराजो अदितिरदब्धस्य व्रतस्य ये । महो राजान ईशते ॥
स्वर रहित पद पाठउत । स्वऽराजः । अदितिः । अदब्धस्य । व्रतस्य । ये । महः । राजानः । ईशते ॥ ७.६६.६
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 66; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ये) ये (राजानः) सम्राजः (अदब्धस्य, व्रतस्य, महः) महतो व्रतस्य (स्वराजः) स्वामिनो भवन्ति (उत) अन्यच्च ते (ईशते) ऐश्वर्ययुक्ता भवन्तीत्यर्थः, तथा (अदितिः) सूर्यवत् प्रकाशका भवन्ति ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ये) जो (राजानः) राजा लोग (अदब्धस्य, महः, व्रतस्य) अखण्डित महाव्रत को (ईशते) करते हैं, वे (स्वराजः) सब के स्वामी (उत) और (अदितिः) सूर्य्य के समान प्रकाशवाले होते हैं ॥६॥
भावार्थ
न्यायपूर्वक प्रजाओं का पालन करना राजाओं का “अखण्डित महाव्रत” है। जो राजा इस व्रत का पालन करता है अर्थात् किसी पक्षपात से न्याय को भङ्ग नहीं करता, वह स्वराज्य=अपनी स्वतन्त्र सत्ता से सदा विराजमान होता है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है कि “स्वयं राजते इति स्वराट्”=जो स्वतन्त्र सत्ता से विराजमान हो, उसका नाम “स्वराट्” और “स्वयं राजते इति स्वराज:”=जो स्वयं विराजमान हो, उसको “स्वराज” कहते हैं और यह बहुवचन में बनता है। यहाँ “स्वराज” शब्द “राजान:” का विशेषण है। अर्थात् वे ही राजा लोग स्वराज का लाभ करते हैं, जो न्याय-नियम से प्रजापालक होते हैं, अन्य नहीं ॥ कई एक मन्त्रों में “स्वराज” शब्द ईश्वर के लिए भी आता है, क्योंकि वह वास्तव में अपनी सत्ता से विराजमान है और अन्य सब राजा प्रजा किसी न किसी प्रकार से परतन्त्र ही रहते हैं, सर्वथा स्वतन्त्र कदापि नहीं हो सकते ॥ और जहाँ “स्वाराज्य” शब्द आता है, वहाँ यह अर्थ होते हैं कि “स्वर् राज्यं स्वाराज्यं” =जो देवताओं का राज्य हो, वह “स्वाराज्य” कहलाता है। इस पद में “स्वर” तथा “राज” दो शब्द हैं, “स्वर” शब्द के रकार का लोप होकर पूर्वपद को दीर्घ हो जाने से “स्वाराज” बनता और इसी के भाव को “स्वराज्य” कहते हैं, इस प्रकार कहीं “स्वराज्य” और कहीं “स्वराज” ये दोनों शब्द वेदों के अनेक मन्त्रों में आते हैं, जो कहीं ईश्वर के अर्थ देते और कहीं देवताओं के राज्य के अर्थ देते हैं, इनसे भिन्न अर्थ में इनका व्यवहार नहीं देखा जाता ॥ और जो आजकल कई एक लोग परराज्य की अपेक्षा से अपने राज्य के लिए “स्वराज्य” शब्द का व्यवहार करते हैं, वह वेद तथा शास्त्रों में कहीं नहीं पाया जाता, क्योंकि वैदिक सिद्धान्त में जो उत्तम गुणों से सम्पन्न हो, वह देवता और जो उक्त गुणों से रहित हो, उसको असुर कहते हैं, इस परिभाषा के अनुसार जो देवता है, वह अपना और असुर पराया है, यही मर्यादा सदा से चली आई है ॥६॥
विषय
सूर्यवत् तेजस्वी पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(स्व-राजः) स्वयं अपने तेज से प्रकाशित होने वाले (स्व-राज :) धनैश्वर्य से चमकने वाले, धनों और स्वराष्ट्र निज-भृत्य मित्र बन्धु प्रजाजनों के राजा और ( अदितिः ) अखण्ड शासनकर्त्री, सभा वा सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष, ( ये ) जो ( अदब्धस्य ) अखण्डित ( व्रतस्य ) कर्म को करने में (ईशते ) समर्थ होते हैं वे ( महा-राजानः ) बड़े ऐश्वर्य के राजा, स्वामी, तेजस्वी होते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १—३, १७—१९ मित्रावरुणौ। ४—१३ आदित्याः। १४—१६ सूर्यो देवता। छन्दः—१, २, ४, ६ निचृद्गायत्री। ३ विराड् गायत्री। ५, ६, ७, १८, १९ आर्षी गायत्री । १७ पादनिचृद् गायत्री । ८ स्वराड् गायत्री । १० निचृद् बृहती । ११ स्वराड् बृहती । १३, १५ आर्षी भुरिग् बृहती । १४ आ आर्षीविराड् बृहती । १६ पुर उष्णिक् ॥
विषय
सभा का कर्त्तव्य
पदार्थ
पदार्थ - (स्व-राजः) = स्वयं प्रकाशित, (स्व-राज:) = धनैश्वर्य से चमकनेवाले, प्रजाजनों के राजा और (अदितिः) = अखण्ड शासनकर्त्री सभा वा तेजस्वी पुरुष, (ये) = जो (अदब्धस्य) = अखण्डित (व्रतस्य) = कर्म करने में (ईशते) = समर्थ हैं वे (महः-राजानः) = बड़े ऐश्वर्य के राजा, स्वामी हैं।
भावार्थ
भावार्थ- राजसभा को योग्य है कि वह ऐसे तेजस्वी व ऐश्वर्य सम्पन्न पुरुष को राजा के पद पर आसीन करे जो निरन्तर राष्ट्रोन्नति के कार्य को करने तथा प्रजा जनों का पालन करने में सक्षम हो।
इंग्लिश (1)
Meaning
And the self-refulgent Adityas, self-governing and great imperishable ruling powers of nature, and mother Infinity, who observe and maintain the great law of existence and disciplines of life, may guide us and protect us over the paths of progress.
मराठी (1)
भावार्थ
न्यायपूर्वक प्रजेचे पालन करणे राजाचे ‘अखंडित महाव्रत’ आहे. जो राजा या व्रताचे पालन करतो. अर्थात, भेदभावाने न्यायभंग करीत नाही. तो स्वराज्य=आपल्या स्वतंत्र सत्तेने विराजमान असतो. याची उत्पत्ती अशा प्रकारे ‘स्वयं राजते इति स्वराट्:’ जो स्वतंत्र सत्तेने विराजमान आहे व ‘स्वयं राजते इति स्वराज:’ जो स्वत: विराजमान असतो. त्याला ‘स्वराज्य’ म्हणतात व हे बहुवचनात होते येथे ‘स्वराज्य’ शब्द ‘राजान’चे विशेषण आहे. अर्थात, तेच राजे स्वराजचा लाभ घेतात जे न्याय-नियमाने प्रजापालक बनतात, इतर नव्हे!
टिप्पणी
कित्येक मंत्रांत ‘स्वराज’ शब्द ईश्वरासाठीही आलेला आहे. कारण तो आपल्या सत्तेने विराजमान आहे व इतर सर्व राजा, प्रजा कोणत्या ना कोणत्या प्रकारे परतंत्रच असतात. सर्वस्वी स्वतंत्र कधीच नसतात. $ जेथे ‘स्वाराज्य’ शब्द येतो तेथे हा अर्थ होतो ‘स्वर राज्यं स्वाराज्यं’= जे देवतांचे राज्य असते ते ‘स्वाराज्य’ म्हणविले जाते. या पदात ‘स्वर’ व ‘राज’ दोन शब्द आहेत. ‘स्वर’ शब्दाच्या रकाराचा लोप होऊन पूर्वपद दीर्घ झाल्याने ‘स्वाराज्य’ शब्द बनतो. याच भावाला ‘स्वाराज्य’ म्हणतात. या प्रकारे कुठे ‘स्वाराज्य’ तर कुठे ‘स्वराज’ हे दोन्ही शब्द वेदात अनेक मंत्रांत येतात. जे कुठे ईश्वराच्या अर्थाने तर कुठे देवतांच्या राज्याच्या अर्थाने येतात. यापेक्षा वेगळा अर्थ व्यवहारात दिसत नाही. $ आजकाल कित्येक लोक परराज्यापेक्षा आपल्या राज्यासाठी ‘स्वराज्य’ शब्दाचा वापर करतात तो वेद व शास्त्रात कुठेही आढळत नाही. कारण वैदिक सिद्धान्तात जे उत्तम गुणांनी संपन्न असतील ते देवता व वरील गुणांनी रहित असतील, तर त्यांना असुर म्हणतात. या परिभाषेनुसार जो देवता आहे तो आपला व असुर परका, हीच मर्यादा सदैव चालत आलेली आहे. ॥६॥
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