ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 66/ मन्त्र 19
आ या॑तं मित्रावरुणा जुषा॒णावाहु॑तिं नरा । पा॒तं सोम॑मृतावृधा ॥
स्वर सहित पद पाठआ । या॒त॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । जु॒षा॒णौ । आऽहु॑तिम् । न॒रा॒ । पा॒तम् । सोम॑म् । ऋ॒त॒ऽवृ॒धा॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यातं मित्रावरुणा जुषाणावाहुतिं नरा । पातं सोममृतावृधा ॥
स्वर रहित पद पाठआ । यातम् । मित्रावरुणा । जुषाणौ । आऽहुतिम् । नरा । पातम् । सोमम् । ऋतऽवृधा ॥ ७.६६.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 66; मन्त्र » 19
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ऋतावृधा) हे ज्ञानयज्ञयोगयज्ञकर्मयज्ञादियज्ञानां वर्द्धयितारो मित्रावरुणौ, (नरा) नरौ ! युवाम् (आ, यातं) आगच्छतं (आहुतिम्) मम सत्कारम् (जुषाणौ) अभिलष्यन्तौ (सोमम्, पातं) सोमं पिबतमित्यर्थः, अत्रापि द्विवचनं ज्ञानविज्ञानशक्तिद्वयसूचनार्थम् ॥१९॥ इति षट्षष्टितमं सूक्तम् एकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ऋतावृधा) हे ज्ञानयज्ञ, योगयज्ञ, कर्मयज्ञ आदि यज्ञों के बढ़ानेवाले (मित्रावरुणा, नरा) मित्र वरुण विद्वान् लोगों ! तुम (आ, यातं) सत्कारपूर्वक आओ और हमारी इस शान्ति की (आहुतिं) आहुति को (जुषाणौ) सेवन करते हुए (सोमं, पातं) पवित्र सोम का पान करो ॥१९॥
भावार्थ
परमात्मा आज्ञा देते हैं कि हे ज्ञानादि यज्ञों के अनुष्ठानी विद्वानों ! तुम लोग सत्कारपूर्वक अपने यजमानों को प्राप्त होओ और सोमपान करते हुए उनके हृदय को शान्तिधाम बनाओ अर्थात् अपने अनुष्ठानरूप ज्ञान से उनको ज्ञानयज्ञ, योगयज्ञ, तथा कर्मयज्ञादि वैदिक कर्मों का अनुष्ठानी बनाकर पवित्र करो और शान्ति की आहुति देते हुए संसार भर में शान्ति फैलाओ, जो तुम्हारा कर्त्तव्य है ॥१९॥११॥ यह ६६ वाँ सूक्त और ११ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
उत्तम स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( मित्रावरुणा ) दिन रात्रि वा सदा परस्पर स्नेही और परस्पर के वरण करने वाले ( ऋत-वृधा ) सत्य से बढ़ने और अन्यों को बढ़ाने वाले होकर ( सोमम् पातम् ) प्रजावर्ग और शिष्यवर्ग सबको ( पातं ) पालन करो। और आप दोनों ( नरा ) उत्तम स्त्री पुरुष ( आहुतिम् जुषाणा) आदरपूर्वक दिये दान को प्रेमपूर्वक स्वीकार करते हुए, ( आ पातम् ) हमें प्राप्त हूजिये ॥ इत्येकादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १—३, १७—१९ मित्रावरुणौ। ४—१३ आदित्याः। १४—१६ सूर्यो देवता। छन्दः—१, २, ४, ६ निचृद्गायत्री। ३ विराड् गायत्री। ५, ६, ७, १८, १९ आर्षी गायत्री । १७ पादनिचृद् गायत्री । ८ स्वराड् गायत्री । १० निचृद् बृहती । ११ स्वराड् बृहती । १३, १५ आर्षी भुरिग् बृहती । १४ आ आर्षीविराड् बृहती । १६ पुर उष्णिक् ॥
विषय
प्रजापालन
पदार्थ
पदार्थ - हे (मित्रावरुणा) = दिन-रात्रि वा सदा परस्पर स्नेही और वरण करनेवाले (ऋतवृधा) = सत्य से बढ़ने-बढ़ानेवाले होकर (सोमम् पातम्) = प्रजा और शिष्यवर्ग को (पातं) = पालन करो और आप दोनों (नरा) = स्त्री-पुरुष (आहुतिम् जुषाणा) = आदर से दिये दान को स्वीकार करते हुए, (आ यातम्) = प्राप्त हों।
भावार्थ
भावार्थ- उत्तम स्त्री-पुरुष सदाचारी होकर सत्य के द्वारा अपनी प्रजा तथा शिष्यों को ज्ञान प्रदान कर उनकी रक्षा करें तथा उन शिष्यों वा प्रजाओं के द्वारा श्रद्धा से दिए गए दान को स्वीकार करें। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ और देवता अश्विनौ है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Come Mitra and Varuna, leaders and pioneers of light and judgement, delighting in our yajna and oblations of soma, protect our yajna, drink of soma and advance the law of truth and rectitude.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा ही आज्ञा देतो, की हे ज्ञान इत्यादी अनुष्ठान करणाऱ्या विद्वानांनो! तुम्ही आपल्या यजमानाजवळ येऊन सत्कार करून घ्या व सोमपान करीत त्यांच्या हृदयाला शांतिधाम बनवा. आपल्या अनुष्ठानरूपी ज्ञानाने त्यांना ज्ञानयज्ञ, योगयज्ञ व कर्मयज्ञ इत्यादी वैदिक कर्मांचे अनुष्ठानी बनवून पवित्र करा व जगात शांती पसरवा, जे तुमचे कर्तव्य आहे. ॥१९॥
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