ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 66/ मन्त्र 16
तच्चक्षु॑र्दे॒वहि॑तं शु॒क्रमु॒च्चर॑त् । पश्ये॑म श॒रद॑: श॒तं जीवे॑म श॒रद॑: श॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । चक्षुः॑ । दे॒वऽहि॑तम् । शु॒क्रम् । उ॒त्ऽचर॑त् । पश्ये॑म । श॒रदः॑ । श॒तम् । जीवे॑म । श॒रदः॑ । श॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तच्चक्षुर्देवहितं शुक्रमुच्चरत् । पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतम् ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । चक्षुः । देवऽहितम् । शुक्रम् । उत्ऽचरत् । पश्येम । शरदः । शतम् । जीवेम । शरदः । शतम् ॥ ७.६६.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 66; मन्त्र » 16
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सर्वद्रष्टुः परमात्मनः प्रार्थनाप्रकारः कथ्यते।
पदार्थः
(तत्) ब्रह्म (चक्षुः) सर्वस्य द्रष्टा (देवहितं) देवानां हितकारकं (शुक्रम्) बलस्वरूपं (उच्चरत्) सर्वोपरिविराजमानम्, तत्कृपया वयं (शरदः, शतं, जीवेम) शतवर्षपर्यन्तं जीवेम (शरदः, शतं, पश्येम) तथा शतवर्षपर्यन्तं तन्महिमानमनुभवाम ॥१६॥
हिन्दी (3)
विषय
अब उस सर्वद्रष्टा परमात्मा से प्रार्थना करने का प्रकार कथन करते हैं।
पदार्थ
(तत्) वह परमात्मा जो (चक्षुः) सर्वद्रष्टा (देवहितं) विद्वानों का हितैषी (शुक्रं) बलवान् (उच्चरत्) सर्वोपरि विराजमान है, उनकी कृपा से हम (जीवेम, शरदः, शतं) सौ वर्ष पर्य्यन्त प्राणधारण करें और (पश्येम, शरदः, शतं) , सौ वर्ष पर्य्यन्त उसकी महिमा को देखें अर्थात् उसकी उपासना में प्रवृत्त रहें ॥१६॥
भावार्थ
सर्वप्रकाशक, सबका हितकारी तथा बलस्वरूप परमात्मा ऐसी कृपा करे कि हम सौ वर्ष जीवित रहें और सौ वर्ष तक उसको देखें। यहाँ “पश्येम” के अर्थ आँखों से देखने के नहीं, किन्तु ध्यान द्वारा ज्ञानगोचर करने के हैं, जैसा कि “दृश्यते त्वग्र्या बुद्ध्या” कठ० ३।१२॥ इस वाक्य में “दृश्यते” के अर्थ बुद्धि से देखने के हैं अथवा उसकी इस रचनारूप महिमा को देखते हुए उसकी महत्ता का अनुभव करके उपासन में प्रवृत्त हों, यह आशय है ॥ यहाँ विचारणीय यह है कि यही मन्त्र यजुर्वेद में इस प्रकार है कि “तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरद: शतं, जीवेम शरद: शतं शृणुयाम शरद: शतं, प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: स्याम शरद: शतं भूयश्च शरदः शतात्॥” अर्थात् उपर्युक्त ऋग् मन्त्र में लिखे−“पश्येम शरद: शतं, जीवेम शरद: शतं” तक ही नहीं, किन्तु “शृणुयाम शरद: शतं, प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: स्याम शरद: शतं०” इत्यादि प्रकार से भिन्न है, जो लोग वेदों पर पुनरुक्त होने का दोष लगाते हैं, उनको इस भेद की ओर ध्यान करना चाहिए कि भिन्नार्थप्रतिपादन में वाक्य कदापि पुनरुक्त नहीं होते, किन्तु भिन्नार्थ के प्रतिपादक प्रकरणभेद वा आकारभेद से होते हैं, जैसा कि “तच्चक्षुर्देवहितं शुक्रमुच्चरत्” यह पाठ ऋग् का है, जिसके अर्थ ऊपर किये गये हैं और “तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्” यह पाठ यजुर्वेद का है, जिसका भाव यह है कि हम ऋषि-मुनियों के समान ज्ञानी विज्ञानी होकर देखें, सुनें और जीवें, प्राकृत लोगों के समान नहीं, इस प्रकार वेदों में आकारभेद वा प्रकरणभेद से जो मन्त्र पुन:-पुन: आते हैं, वे पुनरुक्त नहीं हो सकते, इसी प्रकार “सहस्रशीर्षादि” मन्त्र भी पुनरुक्त नहीं ॥१६॥
विषय
सूर्यवत् तेजस्वी शासक का वर्णन, उसके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(तत्) वह (देव-हितं) समस्त विद्वानों और इन्द्रियों, प्राणों के बीच ( हितम् ) विद्यमान, सर्व कल्याणकारी (शुक्रम् ) शुद्ध, सूर्यवत् तेजस्वी (उत्-चरत्) उत्तम पद को प्राप्त करे और हम उसके अनुग्रह से (शरदः शतं पश्येम ) सौ बरस तक देखें। ( शरदः शतं जीवेम ) सौ बरस तक जीवें । इति दशमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ १—३, १७—१९ मित्रावरुणौ। ४—१३ आदित्याः। १४—१६ सूर्यो देवता। छन्दः—१, २, ४, ६ निचृद्गायत्री। ३ विराड् गायत्री। ५, ६, ७, १८, १९ आर्षी गायत्री । १७ पादनिचृद् गायत्री । ८ स्वराड् गायत्री । १० निचृद् बृहती । ११ स्वराड् बृहती । १३, १५ आर्षी भुरिग् बृहती । १४ आ आर्षीविराड् बृहती । १६ पुर उष्णिक् ॥
विषय
शतायु भव
पदार्थ
पदार्थ- (तत्) = वह (देव-हितं) = विद्वानों, प्राणों के बीच विद्यमान, कल्याणकारी (शुक्रम्) = सूर्यवत् तेजस्वी (उत्-चरत्) = उत्तम पद को प्राप्त करे और हम उसकी कृपा से (शरदः शतं पश्येम) = सौ बरस तक देखें, (शरदः शतं जीवेम) = सौ बरस तक जीवें।
भावार्थ
भावार्थ- विद्वानों के संसर्ग में रहकर मनुष्य लोग प्राणायाम आदि योग के अंगों का अभ्यास करके सौ वर्ष तक की स्वस्थ आयु को प्राप्त होवें।
इंग्लिश (1)
Meaning
That Light Divine, pure and potent, universal eye that watches all and blesses noble humanity, rises and radiates for all time. May the Lord bless us that we may live a hundred years watching it full for all the hundred years.
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व प्रकाशक, सर्वहितकारी व बलस्वरूप परमेश्वराने अशी कृपा करावी, की आम्ही शंभर वर्षे जीवित राहावे. येथे पश्येमचा अर्थ डोळ्यांनी पाहणे नव्हे, तर ध्यानाद्वारे ज्ञान गोचर करणे होय. जसे ‘दृश्यते त्वग्रया बुद्ध या’ ॥क. ३।१२॥ या वाक्यात ‘दृश्यते’चा अर्थ बुद्धीने पाहण्याचा आहे किंवा त्याची रचनारूपी महिमा पाहून त्याच्या महानतेचा अनुभव करणे व उपासनेमध्ये प्रवृत्त व्हावयाचे आहे. हाच आशय आहे.
टिप्पणी
हाच मंत्र यजुर्वेदात या प्रकारे आहे - $ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् । $ पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतँ् $ शृणुयाम शरद: शतं प्रब्रवाम शरद शतम- $ दीना स्याम शरद: शतं भूयश्च शरद: शतात् ॥ $ यजु. ३६/२४ $ वरील ऋग्. मंत्रात ‘पश्येम शरद: शतं, जीवेम शरद: शतं’पर्यंतच नाही, तर ‘शृणुयाम शरद: शतं, प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: स्याम शरद: शतं.’ इत्यादी प्रकाराने भिन्न आहे. जे लोक वेदांवर पुनरुक्त होण्याचा दोष लावतात त्यांनी या भेदाकडे लक्ष दिले पाहिजे, की भिन्नार्थ प्रतिपादनात वाक्य कधीही पुनरुक्त होत नाहीत, तर भिन्नार्थाचे प्रतिपादक प्रकरणभेद किंवा आकारभेदाने होतात. जसे ‘तच्चक्षुर्देवहितं शुक्रमुच्चरत’ हा पाठ ऋग्.चा आहे. ज्याचा अर्थ वर केलेला आहे व ‘तच्चक्षर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्’ हा यजुर्वेदाचा पाठ आहे. ज्याचा भाव हा आहे, की आम्ही ऋषी-मुनींप्रमाणे ज्ञानी-विज्ञानी बनून पाहावे, ऐकावे, जीवित राहावे प्राकृत लोकांप्रमाणे नव्हे. या प्रकारे वेदात आकारभेद किंवा प्रकरणभेदाने जे मंत्र पुन्हा पुन्हा येतात ते पुनरुक्त होऊ शकत नाहीत. याच प्रकारे ‘सहस्रशीर्षादि’ मंत्रही पुनरुक्त नाहीत ॥१६॥
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