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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 66/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - आदित्याः छन्दः - स्वराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    रा॒या हि॑रण्य॒या म॒तिरि॒यम॑वृ॒काय॒ शव॑से । इ॒यं विप्रा॑ मे॒धसा॑तये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रा॒या । हि॒र॒ण्य॒ऽया । म॒तिः । इ॒यम् । अ॒वृ॒काय॑ । शव॑से । इ॒यम् । विप्रा॑ । मे॒धऽसा॑तये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    राया हिरण्यया मतिरियमवृकाय शवसे । इयं विप्रा मेधसातये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    राया । हिरण्यऽया । मतिः । इयम् । अवृकाय । शवसे । इयम् । विप्रा । मेधऽसातये ॥ ७.६६.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 66; मन्त्र » 8
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विप्रा) विविधानर्थानस्य प्राप्तुं धातीति विप्रः “विप्र इति मेधाविनामसु पठितम्” ॥ निरु० ३।१९।२॥ हे मेधाविनः ! भवतां (मतिरियं) इयं बुद्धिः (अवृकाय, शवसे) अहिंसकबलाय भवतु तथा (इयम्) मतिः (मेधसातये) यज्ञस्य निर्विघ्नसमाप्त्यर्थं भवतु अन्यच्च (हिरण्यया, राया) ऐश्वर्याय भवतु इत्यर्थः ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विप्रा) हे विद्वान् लोगो ! तुम्हारी (इयं) यह (मतिः) बुद्धि (अवृकाय) अहिंसाप्रधान हो और (इयं) यह मति (शवसे) बल की वृद्धि, (मेधसातये) यज्ञ की निर्विघ्न समाप्ति तथा (हिरण्यया, राया) ऐश्वर्य्य को बढ़ानेवाली हो ॥८॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यों ! तुम ऐसी बुद्धि उत्पन्न करो, जिससे किसी की हिंसा न हो और जो बुद्धि ज्ञानयज्ञ, योगयज्ञ, तथा कर्मयज्ञ आदि सब यज्ञों को सिद्ध करनेवाली हो, इस प्रकार की बुद्धि धारण करने से तुम बलवान् तथा ऐश्वर्य्यसम्पन्न होगे, इसलिए तुमको “धियो यो नः प्रचोदयात्” इस गायत्री तथा अन्य मन्त्रों द्वारा सदैव शुभमति की प्रार्थना करनी चाहिए ॥८॥

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    विषय

    सूर्यवत् तेजस्वी पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (विप्राः ) विद्वान् लोगो ! ( अवृकाय ) अचौर, अदाम्भिक निश्छल और ( अवृकाय ) जिसका ज्ञान का प्रकाश प्राप्त नहीं हुआ ऐसे पुरुष के लिये उसके (शवसे) ज्ञान और बल वृद्धि के लिये ( राया ) ऐश्वर्य के साथ २ ( हिरण्यया ) हित और रमणीय, मनोहारिणी ( इयं मतिः ) यह उत्तम बुद्धि वा ज्ञान ( मेध-सातये ) उत्तम अन्न, यज्ञ फलादि के प्राप्त करने के लिये सदा बनी रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १—३, १७—१९ मित्रावरुणौ। ४—१३ आदित्याः। १४—१६ सूर्यो देवता। छन्दः—१, २, ४, ६ निचृद्गायत्री। ३ विराड् गायत्री। ५, ६, ७, १८, १९ आर्षी गायत्री । १७ पादनिचृद् गायत्री । ८ स्वराड् गायत्री । १० निचृद् बृहती । ११ स्वराड् बृहती । १३, १५ आर्षी भुरिग् बृहती । १४ आ आर्षीविराड् बृहती । १६ पुर उष्णिक् ॥

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    विषय

    विद्वानं का कर्त्तव्य

    पदार्थ

    पदार्थ - हे (विप्राः) = विद्वान् लोगो! (अवृकाय) = निश्छल और जिसको ज्ञान प्रकाश प्राप्त नहीं ऐसे पुरुष के लिये उसके (शवसे) = ज्ञान, बल वृद्धि हेतु (राया) = ऐश्वर्य के साथ-साथ हिरण्यया हित और रमणीय (इयं मतिः) = यह उत्तम बुद्धि, वा ज्ञान (मेध-सातये) = उत्तम अन्न, यज्ञ फलादि प्राप्त करने के लिये सदा रहो।

    भावार्थ

    भावार्थ-विद्वान् पुरुषों को योग्य है कि वे राष्ट्र में लोगों को ज्ञान, विद्या और उत्तम बुद्धि प्रदान करें जिससे वे लोग निश्छल भाव से पुरुषार्थ पूर्वक ऐश्वर्य, उत्तम अन्न तथा यज्ञों के उत्तम फलों को प्राप्त कर सकें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O saints and sages of dynamic will and wisdom, let this golden wealth of divinity, this intelligence and the song of praise be for the growth of holy strength free from sin, and for the accomplishment of yajnic acts for human progress and prosperity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की हे माणसांनो! तुम्ही अशी बुद्धी उत्पन्न करा, की ज्यामुळे कुणाचीही हिंसा होता कामा नये. ती बुद्धी ज्ञानयज्ञ, योगयज्ञ व कर्मयज्ञ इत्यादी सर्व यज्ञांना सिद्ध करणारी असावी. या प्रकारे बुद्धी धारण करण्याने तुम्ही बलवान व ऐश्वर्यसंपन्न व्हाल. त्यासाठी तुम्हाला ‘धियो यो न: प्रचोदयात’ गायत्री मंत्राने व इतर मंत्रांनी सदैव शुद्ध बुद्धीची प्रार्थना केली पाहिजे. ॥८॥

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