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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 69/ मन्त्र 10
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ यत्पत॑न्त्ये॒न्य॑: सु॒दुघा॒ अन॑पस्फुरः । अ॒प॒स्फुरं॑ गृभायत॒ सोम॒मिन्द्रा॑य॒ पात॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । यत् । पत॑न्ति । ए॒न्यः॑ । सु॒ऽदुघाः॑ । अन॑पऽस्फुरः । अ॒प॒ऽस्फुर॑म् । गृ॒भा॒य॒त॒ । सोम॑म् । इन्द्रा॑य । पात॑वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यत्पतन्त्येन्य: सुदुघा अनपस्फुरः । अपस्फुरं गृभायत सोममिन्द्राय पातवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । यत् । पतन्ति । एन्यः । सुऽदुघाः । अनपऽस्फुरः । अपऽस्फुरम् । गृभायत । सोमम् । इन्द्राय । पातवे ॥ ८.६९.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 69; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When the dynamic senses of perception and volition, controlled, unagitating and calmly withdrawn, concentrate in the inner mind, then you receive the showers of soma nectar of spiritual ananda for Indra, the soul.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    खऱ्या साधकाला अशा क्रियांची समज येऊ लागते की, जे करण्यामुळे जीवात्मा बलवान होतो. फक्त त्यांना क्रियेमध्ये परिणत करण्यात चुकता कामा नये.

    टिप्पणी

    विशेष- स्फुर - स्फुरणे - याचे दोन अर्थ आहेत. स्फुरित होणे व हलणे ‘अनपस्फुर:’ क्रियांचे विशेषण आहे. ज्यात स्फुर (समजणे) सुचणेच्या बरोबर दोन निषेधात्मक शब्द ‘न’ व ‘अप’च्या संयोगाने समजणे अर्थाला दृढ केलेले आहे. ‘अपस्फुर’ सोमचे विशेषक आहे. यात सोमच्या चंचलतेचा निषेध केलेला आहे. ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यत्) जब (सुदुघाः) सुगमता से दोहन योग्य, सुष्ठु फलदायिनी (एन्यः) गमन [प्रगति] शील व (अनपस्फुरः) अन्+अप+स्फुरः स्फुरित होने या सूझ जाने वाली शारीरिक तथा आत्मिक बल की साधक क्रियाएं [साधक के अन्तःकरण में] (आपतन्ति) आकर उपस्थित होती हैं तब (इन्द्राय पातवे) ऐश्वर्यसाधक जीवात्मा के उपभोग हेतु (अप स्फुरम्) न हिलने वाले (सोमम्) [उन क्रियाओं द्वारा निष्पादित] शारीरिक व आत्मिक बल को (गृभायत) ग्रहण करें॥१०॥

    भावार्थ

    सत्य साधक को उन क्रियाओं की सूझ-बूझ फलने लगती है कि जिन्हें करने से जीवात्मा बलशाली होता है। बस. इनको क्रिया में परिणत करने में न चूके॥१०॥ विशेष-स्फुर स्फुरणे-के दो अर्थ हैं; स्फुरित होना और हिलना। ‘अनपस्फुरः' क्रियाओं का विशेषण है जिसमें स्फुर (सूझना) के साथ दो निषेधार्थक शब्द 'न' तथा 'अप' के संयोग से 'सूझना' अर्थ दृढ़ किया गया है। 'अपस्फुर' 'सोम' का विशेषण है--इससे सोम की 'चंचलता' का निषेध है।

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    विषय

    गौओंवत् प्रजाओं का रूप। राजा का प्रजा के प्रति कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( यत् ) जिस प्रकार ( अनपस्फुरः ) न विदकने वाली ( सु-दुधा:) सुख से दोहन करने योग्य ( ऐन्यः ) शुद्ध श्वेत वर्ण की गौएं ( आप तन्ति ) आ जाती हैं तब ( इन्द्राय सोमं पातवे ) स्वामी के निमित्त दुग्धपान के लिये ( अनप-स्फुरं ) उद्वेगरहित शान्त गौ को ले लिया जाता है उसी प्रकार ( एन्यः ) शुद्ध वर्ण की शुद्ध चरित्र वाली प्रजाएं ( यत् ) जो ( अनपस्फुरः ) अ-भ्रष्टमार्ग वाली उत्पथ में न जाने वाली और ( सु-दुधाः ) धनादि से खूब पूर्ण, और राजा को भी धनादि से पूर्ण करने वाली हों। उनमें से भी ( इन्द्राय सोमं पातवे ) परमैश्वर्यवान् राजा को ऐश्वर्य उपभोग करने या राजा के ऐश्वर्य की रक्षा के लिये, (अप स्फुरं) उद्वेग, अराजकतादि से रहित, प्रजा को ( गृभायत ) वश करो। अथवा ( अपस्फुरं ) कुमार्ग में जाने वाले को ( गृभायत ) पकड़ो और कैद में धर दो। इति षष्ठो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रियमेध ऋषिः॥ देवताः—१—१०, १३—१८ इन्द्रः। ११ विश्वेदेवाः। ११, १२ वरुणः। छन्दः—१, ३, १८ विराडनुष्टुप्। ७, ९, १२, १३, १५ निचूदनुष्टुप्। ८ पादनिचृदनुष्टुप्। १४ अनुष्टुप्। २ निचृदुष्णिक्। ४, ५ निचृद् गायत्री। ६ गायत्री। ११ पंक्तिः। १६ निचृत् पंक्तिः। १७ बृहती। १८ विराड् बृहती॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अनपस्फुरः सुदुघा गौवें

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जब (अनपस्फुरः) = न बिदकनेवाली, (सुदुघाः) = सुख (संदोह्य एन्यः) = शुभ्रवर्ण की गौवें (आपतन्ति) = समन्तात् गृहों की ओर आनेवाली होती हैं, तो उस समय (अपस्फुरं) = हृदय कम्पन को दूर करनेवाले (सोमं) = सोम को ताजे दूध को - (गृभायत) = ग्रहण करो। यह दूध (इन्द्राय पातवे) = जितेन्द्रिय पुरुष के रक्षण के लिए होता है। [२] गौवें 'सुदुघा' होनी चाहिएँ, ये अनपस्फुर होंगी तो इनके दूध में किसी प्रकार का विष नहीं होगा। यह ताजा गोदुग्ध ही सोम है। यह हृदय की धड़कन को भी ठीक रखता है, अर्थात् एतत् सम्बद्ध सब रोगों से हमें बचानेवाला है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सुख संदोह्य गौवों के ताजे दूध का प्रयोग करें। यही सोम है। यह जितेन्द्रिय पुरुष का रक्षण करता है। उसे हृदय कम्पन आदि के रोग से बचाता है।

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