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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 69/ मन्त्र 3
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    ता अ॑स्य॒ सूद॑दोहस॒: सोमं॑ श्रीणन्ति॒ पृश्न॑यः । जन्म॑न्दे॒वानां॒ विश॑स्त्रि॒ष्वा रो॑च॒ने दि॒वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताः । अ॒स्य॒ । सूद॑ऽदोहसः । सोम॑म् । श्री॒ण॒न्ति॒ । पृश्न॑यः । जन्म॑न् । दे॒वाना॑म् । विशः॑ । त्रि॒षु । आ । रो॒च॒ने । दि॒वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता अस्य सूददोहस: सोमं श्रीणन्ति पृश्नयः । जन्मन्देवानां विशस्त्रिष्वा रोचने दिवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताः । अस्य । सूदऽदोहसः । सोमम् । श्रीणन्ति । पृश्नयः । जन्मन् । देवानाम् । विशः । त्रिषु । आ । रोचने । दिवः ॥ ८.६९.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 69; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Just as on the rise of dawn in the divine heaven of light, the edifying rays of the sun beatify the Indra- born beauty and freshness of life in the three regions of earth, heaven and the skies, similarly, on the dawn of divine vision in the intelligence of the soul, the revelations of divinity and reflections of omniscience refine, intensify and edify the energy, power and beauty of the soma gifts of Indra, this oceanic source of matter, energy and excellence of life, for the trinity of body, mind and soul.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशा गाई मधुर दूध देतात तसेच सर्व पदार्थ मधुरता उत्पन्न करतात. ते पाहा आणि विचार करा. ॥३॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    अस्य=सर्वत्र प्रसिद्धस्य । दिवः=प्रकाशमानस्येश्वरस्य । त्रिषु+आरोचने=आरोचनेषु=आरोचमानेषु पृथिव्यादि- स्थानेषु । देवानां=सकलपदार्थानाम् । जन्मन्=जन्मनि । याः कारणभूता विशः प्रजाः सन्ति । ताः+ सूददोहसः=कूपदोहनाः । पृश्नयः=गाव इव सोमं श्रीणन्ति । सूद इति कूपनाम ॥३ ॥

    टिप्पणीः

    ताः पृश्नय आपो गावो वाचो वा, अस्य सूददोहसः प्राणस्य वायुस्थस्य परमेश्वरस्य सोमं श्रीणन्ति । अदि्भर्हि संसृष्टो भवति सोमः पयआदिना च शृतो भवति मन्त्रैर्वा गृह्यते । ''अथ सूददोहाः प्राणो वै सूददोहाः''' इति श्रुतिश्च । शोभनमुदं कर्म ज्ञानं वा दोग्धीति सूददोहाः । उदेति उच्चो भवत्यनेन पुरुष इत्युदं ज्ञानादि । ''मनो वाव सोमः''' तद्वाचः श्रीणन्ति स्वार्थैः । प्रश्नयोग्यत्वात्पृश्नयो वाचः, प्रशंसनरूपत्वात्प्रशंसनीयत्वाद्वा । प्रशंसनीयत्वमेवापां गवां च । देवानां जन्मनि यज्ञे । तत्र हि तेषामभिव्यक्तिः । पूर्वं ज्ञाने वा विशः प्रजाश्च श्रीणन्ति । मुख्यतस्ता एव श्रीणन्तीति चशब्दवर्जनम् । दिवस्त्रिषु आरोचनेषु । आदित्यचन्द्रविद्युत्पर्यन्तं स्थितानां देवानां जन्मनि । ''यज्ञो वै देवजन्म तत्र हि देवाः प्रादुर्भवन्त्यासूर्याचन्द्रमसावाविद्युतम् । ते वै लोकानधिश्रिताः''' इत्यादिश्रुतेः । ''द्यौर्वाव विद्युत् तत्पतिं वायुमुपगम्य तेनैव परमुपगच्छति सैषा ब्रह्मलोके विराजते''' इत्यादि श्रुतेर्द्यौरेव विद्युत् ॥ ३ ॥ इति मध्वाचार्याः कर्मनिर्णये ।

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अस्य) इस सर्वत्र प्रसिद्ध (दिवः) परमात्मदेव के (त्रिषु+आरोचने) तीनों प्रकाशमान पृथिव्यादि लोकों में जो (देवानाम्+जन्मन्) समस्त पदार्थों की जन्मकारण (विशः) प्रजाएँ हैं, (ताः) वे सब ही (पृश्नयः) गौवों के समान (सोमम्+श्रीणन्ति) मधुर-मधुर पदार्थ दे रही हैं । कैसी गाएँ (सूददोहसः) कूप के समान थनवाली ॥३ ॥

    भावार्थ

    जैसे गाएँ मधुर दूध देती हैं, वैसे ही सब पदार्थ मधुरता उत्पन्न कर रहे हैं । इसको देखिये और विचारिये ॥३ ॥

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    विषय

    प्रजाओं द्वारा उत्तम शासक की स्थापना।

    भावार्थ

    वे ( पृश्नयः ) मेघमाला के समान ऐश्वर्य का वर्षण करने वाली वा उससे स्पर्श अर्थात् सम्बन्ध रखने वाली (विशः) प्रजाएं (सूद- दोहसः ) जल प्रदान करने वाले कूपों या मेघों के समान ( अस्य ) उसके ( सोमं ) अन्नवत् ऐश्वर्य को ( श्रीणन्ति ) प्राप्त कराती हैं। और ( दिवः ) सूर्य के समान तेजस्वी, ( त्रिषु ) तीनों लोकों में ( रोचने ) में प्रकाश करने वाले सर्व-रुचिकर आकाशवत् उच्च और ( देवानां जन्मनि ) देव, विद्वानों के बीच नवजन्म लेने के लिये शुभ गुणों के आश्रय पद पर उसे स्थापित या प्राप्त करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रियमेध ऋषिः॥ देवताः—१—१०, १३—१८ इन्द्रः। ११ विश्वेदेवाः। ११, १२ वरुणः। छन्दः—१, ३, १८ विराडनुष्टुप्। ७, ९, १२, १३, १५ निचूदनुष्टुप्। ८ पादनिचृदनुष्टुप्। १४ अनुष्टुप्। २ निचृदुष्णिक्। ४, ५ निचृद् गायत्री। ६ गायत्री। ११ पंक्तिः। १६ निचृत् पंक्तिः। १७ बृहती। १८ विराड् बृहती॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    दिव्यगुणों का जन्म

    पदार्थ

    [१] (ताः) = वे (अस्य) = इस प्रभु की (सूददोहस:) = [सूद - Pouring out] उच्चरित वाणियों का अपने में प्रपूरण करनेवाले (पृश्नयः) = ज्ञानदीप्तियों का स्पर्श करनेवाले लोग (सोमं श्रीणन्ति) = सोम का [वीर्यशक्ति का] अपने में परिपाक करते हैं। इसको अपने में ठीक प्रकार से परिपक्व करके ये अपने ज्ञानाग्नि को दीप्त कर पाते हैं। [२] ये वीर्य का ठीक से परिपाक करनेवाली (विशः) = प्रजाएँ (देवानां जन्मन्) = दिव्य गुणों की उत्पत्ति के विषय में तथा (त्रिषु) = प्रकृति, जीव व आत्मा के विषय में (दिवः अरोचने) = ज्ञान को दीप्त करने में समर्थ होती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सोमशक्ति को अपने ठीक प्रकार से परिपक्व करके ज्ञानाग्नि को दीप्त करें। इससे हमारे में दिव्यगुणों का विकास होगा और 'प्रकृति, जीव, परमात्मा' का ज्ञान प्राप्त होगा।

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