ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 69/ मन्त्र 7
उद्यद्ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टपं॑ गृ॒हमिन्द्र॑श्च॒ गन्व॑हि । मध्व॑: पी॒त्वा स॑चेवहि॒ त्रिः स॒प्त सख्यु॑: प॒दे ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । यत् । ब्र॒ध्नस्य॑ । वि॒ष्टप॑म् । गृ॒हम् । इन्द्रः॑ । च॒ । गन्व॑हि । मध्वः॑ । पी॒त्वा । स॒चे॒व॒हि॒ । त्रिः । स॒प्त । सख्युः॑ । प॒दे ॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्यद्ब्रध्नस्य विष्टपं गृहमिन्द्रश्च गन्वहि । मध्व: पीत्वा सचेवहि त्रिः सप्त सख्यु: पदे ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । यत् । ब्रध्नस्य । विष्टपम् । गृहम् । इन्द्रः । च । गन्वहि । मध्वः । पीत्वा । सचेवहि । त्रिः । सप्त । सख्युः । पदे ॥ ८.६९.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 69; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Up let us rise on top of the sun and vast spaces, reach the abode of Indra, and, having drunk the soma sweet of ecstasy, let us be together across and over the thrice seven stages of being in evolution in the purely spiritual state of the lord’s presence as a friend.$(The thrice seven are the steps of physical, mental and pychic evolutionary phases of existence in three qualitative modes of being in the process of becoming. The seven states of evolution in descending order from pure being are: mahat, Ahankara and the five elements, akasha, vayu, agni, apah and prthivi. The three qualitative modes are sattva, rajas and tamas or thought, energy and matter. Another way to explain the twenty one is: five elements, five pranic energies, five perceptive organs and five organs of volition, the twenty-first is antahkarana or psychic self. When the psychic self or the soul in the existential state wishes to rise back to the purely spiritual state, it has to cross the twenty one stages and then be in the company of Indra, the cosmic self, and even later, in the transcendental state of absolute Being, the Spirit, the Brahmic state.$This is set out it detail in the Sankhya, Yoga and Vedanta philosophy.)
मराठी (1)
भावार्थ
त्रि:+सप्त = २१ भाष्यकार सायण इत्यादी समजतात की, देवतांच्या स्थानी एकविसावे उत्तम सूर्याचे स्थान आहे. तेच परम पदही म्हणविले जाते; परंतु ही व्याख्या वेदाची असू शकत नाही. कारण देवाची सर्व स्थाने मिळून (२१) एकवीस आहेत. याचाही निश्चय नाही. त्यासाठी हे वर्णन आध्यात्मिक आहे. या मस्तकात दोन डोळे, दोन कान, दोन नासिका व एक रसना. हे सातही आपापल्या विषयांचे विचारकर्ते आहेत. उत्तम, मध्यम, अधम भेदाने यांचे तीन प्रकारचे विचार आहेत. त्यासाठी ७ेर्३ = २१ प्रकारचे अनुभव किंवा विचार या डोक्यात सदैव असतात. त्यामुळे हे मस्तक एकवीस विचारांनी युक्त असते. सखा = परमेश्वराचा सखा जीव आहे. त्याचे मुख्य स्थान मस्तक आहे. जसे लोक मित्रांना बोलावून सत्कार करतात तसेच उपासक जीवात्मा परमात्म्याला आपल्या स्थानी (अंत:करणात) आमंत्रित करतो व त्याला मधु अर्पित करतो.
टिप्पणी
वेदभगवान मानवस्वभावाचा निरुपक ग्रंथ आहे. आम्हा लोकांच्या बुद्धीची गती जितकी असू शकते तितके त्यात वर्णन आहे. याच कारणाने वेदात अनेक ठिकाणी सांगितलेले आहे की, जरी तो अपरिमित व अपरिच्छिन्न असला तरी तो ऋचीसम = ऋचेच्या बरोबर आहे. वेदवाणी जिथपर्यंत पोचते तितका ईश्वर आहे. वेदवाणी बहुतेक मानवबुद्धीच्या अनुरूप आहे. क्वचित वेदात असेही वर्णन आहे, जेथे बुद्धी पोचत नाही. जसे सृष्टीच्या उत्पत्तीचे वर्णन. ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
ब्रध्नस्य=सूर्य्यस्येव प्रकाशस्य शिरसः । यद् विष्टपं=विस्तृतं वितप्तं गृहमस्ति । तत्राहमुपासकः । इन्द्रश्च=परमात्मा च । उद्गन्वहि=उद्गच्छावः । पुनश्च तत्र मध्वः+पीत्वा=मधु पीत्वा । तस्मिन् त्रिः+सप्त= एकविंशतिविवेकयुक्ते । सख्युः=आत्मनः । पदे आवाम् । सचेवहि=संगतौ भवावः ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
यद्यपि ईश्वर दृष्टिगोचर नहीं, तथापि उसका अनुभव यह जीव करता है । वेद के अनुसार वह हमारा पिता और बन्धु है । वह रक्षक है, वह हमारी प्रार्थना सुनता और उसका फल देता है, इत्यादि विचारों के साथ वेद विद्यमान हैं । इस अवस्था में यह मन्त्र वक्ष्यमाण प्रकार का विचार उपस्थित करता है । अध्यात्मार्थ−(ब्रध्नस्य) सूर्य्यवत् प्रकाशक शिरसम्बन्धी (यत्+विष्टपम्) जो विस्तृत और वितप्त (गृहम्) गृह है, वहाँ मैं उपासक और (इन्द्रः+च) परमात्मा दोनों (उद्+गन्वहि) जावें और वहाँ (मध्वः+पीत्वा) मुक्ति का सुख भोगते हुए (त्रिः+सप्त) एकविंशति विवेकयुक्त (सख्युः+पदे) अपने मित्र के पद पर (सचेवहि) संयुक्त होवें ॥७ ॥
भावार्थ
त्रिः+सप्त=२१−भाष्यकार सायण आदि समझते हैं कि देवताओं के स्थानों में इक्कीसवाँ उत्तम सूर्य्य का स्थान है । वही परम पद भी कहलाता है । किन्तु यह व्याख्या वेद की नहीं हो सकती । क्योंकि देवों के सब स्थान मिलकर (२१) इक्कीस ही हैं, इसका भी कोई निश्चय नहीं । अतः यह वर्णन अध्यात्म है । इस शिर में दो नयन, दो कर्ण, दो नासिकाएँ और एक रसना, ये सातों अपने-अपने विषयों के विचारकर्ता हैं । उत्तम, मध्यम और अधम भेद से इनके तीन प्रकार के विचार हैं, अतः ७*३=२१ प्रकार के अनुभव या विचार इस शिर में सदा होते रहते हैं, अतः यही शिर एकविंशति विचारों से युक्त है । सखा=परमात्मा का सखा जीव है । उसका मुख्य स्थान शिर ही है । जैसे लोक में मित्र को बुलाकर लोग सत्कार करते हैं, वैसे ही यह उपासक जीवात्मा परमात्मा को अपने-अपने स्थान में बुलाता है और उसे मधु समर्पित करता है ।
टिप्पणी
वेदभगवान् मानवस्वभाव का निरूपक ग्रन्थ है । हम लोगों की बुद्धि की गति जितनी हो सकती है, उतना वर्णन रहता है । इसी कारण वेदों के बहुत स्थलों में कहा गया है कि यद्यपि वह अपरिमित और अपरिच्छिन्न है, तथापि वह ऋचीसम्=ऋचा के बराबर है । वेदवाणी जहाँ तक पहुँचती है, उतना ही ईश्वर है और वह वेदवाणी बहुधा मानवबुद्धि का अनुसरण करती है । हाँ, क्वचित् वेदों में ऐसा भी वर्णन है,जहाँ बुद्धि नहीं पहुँचती है । यथा सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन ॥७ ॥
विषय
प्राप्त पद सखावत् प्रभु का मोक्ष सुख का पद। सखा प्रभु।
भावार्थ
मैं और ( इन्द्रः च ) ऐश्वर्यवान् प्रभु, स्वामी दोनों ( ब्रध्नस्य ) बन्धन में बांधने वाले आश्रयभूत स्वामी के ( विष्टपं = वितपं ) ताप-दुःखादि से रहित सुखपूर्ण ( गृहम् उद् गन्वहि ) गृह को उत्तम रीति से प्राप्त हों, और ( मध्वः पीत्वा ) मधुर पदार्थ दुग्धादि का पान या मधुपर्कादि ग्रहण करने के अनन्तर ( त्रिः ) मनसा, वाचा, कर्मणा ( सख्युः सप्त पदे ) मित्र या सखा के सातवें पद पर (सचेवहि) हम दोनों मिलकर रहें। इस प्रकार वधू वर से कहे। अथवा—( सख्युः त्रिः सप्त पदे सचेवहि ) मित्र सखा के ३ ᳵ ७ = २१वें पद पर दोनों मिलें । * इसी प्रकार प्रजाभी राजाकी उपभोग्यवत् होकर पालनीय होने से पत्नीवत् और राजा उसका स्वामी है, वही प्रबन्धक होने से 'ब्रध्न' है दोनों ही मधुर अन्न-जल का उपभोग कर मित्रपद पर मिलें, दोनों एक दूसरे के मित्र होकर रहें। ( ३ ) इसी प्रकार परमेश्वर ‘ब्रध्न’ है , जीव इन्द्र प्रभु का पद तापरहित सुखमय होने से ‘विष्टप’ है, वहां दोनों आत्मा, ज्ञानपान कर मिलें, वे सखा होकर रहें।
टिप्पणी
* यह २१वां पद कौन सा है ? इस सम्बन्ध में सायण ने ऐतरेय ब्राह्मण (१।३०) का वचन उद्धृत किया है—त्रिः सप्तेत्यनेन देवलोकानामुत्तममेकविंशस्थानमुच्यते। आदित्यस्यैकविंशत्वात्। तथा च ब्राह्मणम्। द्वादश मासाः पञ्चर्तवस्त्रय इमे लोकाः असावादित्य एकविंश इति। इसके अनुसार भी १२ मासों, पांचों ऋतुओं और तीनों लोकों में दोनों संग रहें यह अभिप्राय निकलता है। द्वा सुपर्णा, सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। उपनिषत्। सखा होने के सात चरण—१. इष्, २. ऊर्ज, ३. रायस्पोष, ४. मायोभव्य, ५. प्रजा, ६. ऋतु ७. सख्यभाव। ( पारस्कर गृ० )
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रियमेध ऋषिः॥ देवताः—१—१०, १३—१८ इन्द्रः। ११ विश्वेदेवाः। ११, १२ वरुणः। छन्दः—१, ३, १८ विराडनुष्टुप्। ७, ९, १२, १३, १५ निचूदनुष्टुप्। ८ पादनिचृदनुष्टुप्। १४ अनुष्टुप्। २ निचृदुष्णिक्। ४, ५ निचृद् गायत्री। ६ गायत्री। ११ पंक्तिः। १६ निचृत् पंक्तिः। १७ बृहती। १८ विराड् बृहती॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सख्युः पदे
पदार्थ
[१] एक पत्नी यह कामना करती है कि मैं (च इन्द्रः) = और मेरा यह जितेन्द्रिय पति हम दोनों (उद्यद् ब्रध्नस्य) = उदय होते हुए अथवा जो उत्कृष्ट है उस सूर्य के (विष्टपं) = तापशून्य [वि + तप] अथवा विशिष्ट रूप से दीप्त (गृहं) = गृह को (गन्वहि) = जाएँ, अर्थात् हमारे घर में सूर्य की किरणें व प्रकाश खूब अच्छी प्रकार आएँ- सूर्यकिरणें इस गृह को तापशून्य व नीरोग बनानेवाली हों । [२] (मध्वः पीत्वा) = इस गृह में रहते हुए हम सोम का पान करके (सख्युः पदे) = उस परमसखा प्रभु के चरणों में (त्रिः सप्त) = इक्कीस शक्तियों को (सचेवहि) = प्राप्त करें।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे घर सूर्य किरणों से प्रकाशित हैं। इनमें हम प्रभु का स्मरण करते हुए सोमरक्षण द्वारा २१ शक्तियों को स्थिर रखें।
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