ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 69/ मन्त्र 12
सु॒दे॒वो अ॑सि वरुण॒ यस्य॑ ते स॒प्त सिन्ध॑वः । अ॒नु॒क्षर॑न्ति का॒कुदं॑ सू॒र्म्यं॑ सुषि॒रामि॑व ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽदे॒वः । अ॒सि॒ । व॒रु॒ण॒ । यस्य॑ । ते॒ । स॒प्त । सिन्ध॑वः । अ॒नु॒ऽक्षर॑न्ति । का॒कुद॑म् । सू॒र्म्य॑म् । सु॒षि॒राम्ऽइ॑व ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुदेवो असि वरुण यस्य ते सप्त सिन्धवः । अनुक्षरन्ति काकुदं सूर्म्यं सुषिरामिव ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽदेवः । असि । वरुण । यस्य । ते । सप्त । सिन्धवः । अनुऽक्षरन्ति । काकुदम् । सूर्म्यम् । सुषिराम्ऽइव ॥ ८.६९.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 69; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Varuna, master scholar and teacher, you are divinely brilliant and generous whose seven streams of knowledge and wisdom flow forth in words from the master’s voice to the seekers, like water flowing from a tube into many channels.
मराठी (1)
भावार्थ
श्रेष्ठ विद्वानाचे हे कर्तव्य आहे की, त्याने आपल्या ज्ञानेंद्रियांद्वारे एकत्रित ज्ञानरूपी जलाचा प्रयोग वाणीद्वारे करून दुसऱ्यांना उच्च स्वरात प्रबोध करावा. असा उपदेष्टा वास्तविक ज्ञान गंभीर समुद्र आहे. ॥१२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (वरुण) ज्ञानरूपी जलागार, श्रेष्ठ उपदेशकर्ता! तू (सुदेवः) शुभ प्रबोधदाता है; वह तू कि (यस्य ते) जिस तेरी जलवाहक नदियों-सरीखी (सप्त) सात या बहने वाली (सिन्धवः) सुख को बहा लाने वाली ज्ञानेन्द्रियाँ [२ आँख, २ कान, २ नाक और एक रसना] अपने निष्पादित ज्ञान को (काकुदम्) शब्द से प्रेरणा देनेवाले तालु में इस प्रकार (अनुक्षरन्ति) चुआती हैं जैसे कि (सुषिराम्) खोखली (सून॑) मूर्ति में जल चू जाता है॥१२॥
भावार्थ
श्रेष्ठ विद्वान् का यह कर्त्तव्य है कि वह अपनी ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा एकत्रित ज्ञानरूपी जल का प्रयोग वाणी के द्वारा उच्च स्वरों में दूसरों को प्रबोध देने में करे। ऐसा उपदेष्टा वास्तव में ज्ञान का गम्भीर सागर है॥१२॥
विषय
वरुण आचार्यवत्।
भावार्थ
हे ( वरुण ) वरण करने योग्य आचार्य ! ( यस्य ते ) जिस तेरे ( काकुदं अनु ) तालु के प्रति ( सप्त ) सातों छन्द ( सिन्धवः ) बहते नदधारों के समान ( सुषिराम् सूर्म्यं ) छिद्रवती लोह की नली में जल धारा के समान बहती हैं वह तू ( सुदेवः असि ) उत्तम ज्ञानदाता, ज्ञान का प्रकाशक है। (२) हे राजन् ! तू उत्तम तेजस्वी है। (ते) तेरे (काकुदं अनु) सर्वश्रेष्ठ ककुत्वत्, सर्वोपरि पद के अनुकूल (सप्त सिन्धवः) सातों प्रकार की प्रकृतियां समुद्र के प्रति नदियों के तुल्य वा तालु के प्रति सात प्राणों के तुल्य के ( अनु क्षरन्ति ) दिनों दिन बहती आवें, स्वभावतः तेरा अनुसरण करें॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रियमेध ऋषिः॥ देवताः—१—१०, १३—१८ इन्द्रः। ११ विश्वेदेवाः। ११, १२ वरुणः। छन्दः—१, ३, १८ विराडनुष्टुप्। ७, ९, १२, १३, १५ निचूदनुष्टुप्। ८ पादनिचृदनुष्टुप्। १४ अनुष्टुप्। २ निचृदुष्णिक्। ४, ५ निचृद् गायत्री। ६ गायत्री। ११ पंक्तिः। १६ निचृत् पंक्तिः। १७ बृहती। १८ विराड् बृहती॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सप्त सिन्धवः
पदार्थ
[१] हे (वरुण) = पापनिवारक प्रभो! आप (सुदेवः असि) = सर्वोत्तम देव हैं- देवों के अधिदेव हैं । (यस्य) = जिन (ते) = आपकी (सप्त सिन्धवः) = सात छन्दों में प्रवाहित होनेवाली ज्ञानजल की नदियाँ (काकुदं अनुक्षरन्ति) = हमारे तालु में बहती है, उसी प्रकार (इव) = जैसे (सूर्म्यं) = प्रकाश व रश्मिजाल (सुषिराम्) = सछिद्र वस्तु में प्रवेश करता है। [२] हम प्रभु का स्मरण करते हैं तो प्रभु की वेदवाणियाँ हमारे जीवन में इस प्रकार प्रवेश करती हैं, जैसे सछिद्र भित्ति में सूर्यरश्मियाँ । ये रश्मियाँ ही वेदवाणियों का प्रकाश ही हमारे जीवन को निर्मल बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का स्मरण करें। प्रभु का ज्ञान हमारे जीवन को निर्मल कर देगा। हमें यह प्रकाश 'सुदेव' बना देगा।
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