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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 69/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒भि प्र गोप॑तिं गि॒रेन्द्र॑मर्च॒ यथा॑ वि॒दे । सू॒नुं स॒त्यस्य॒ सत्प॑तिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । प्र । गोऽप॑तिम् । गि॒रा । इन्द्र॑म् । अ॒र्च॒ । यथा॑ । वि॒दे । सू॒नुम् । स॒त्यस्य॑ । सत्ऽप॑तिम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि प्र गोपतिं गिरेन्द्रमर्च यथा विदे । सूनुं सत्यस्य सत्पतिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । प्र । गोऽपतिम् । गिरा । इन्द्रम् । अर्च । यथा । विदे । सूनुम् । सत्यस्य । सत्ऽपतिम् ॥ ८.६९.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 69; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    To the best of your knowledge and culture and with the best of your language, worship and adore Indra, protector of stars and planets, lands and cows, language and culture, creator of the dynamics of existence and protector of its constancy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर प्रत्यक्ष दिसत नाही, त्यामुळे त्याचे अस्तित्व लोक संदिग्धपणे पाहतात. त्याची पूजा करण्याचा कंटाळा करतात. विश्वासार्थ असे म्हटले जाते की, विज्ञात पुरुष जशी त्याची पूजा करतात तशी तुम्ही करा. जर तो नसता तर ही पृथ्वी इत्यादी कुठून येईल? त्याचा विचार करा. ॥४॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे मनुष्यगण ! यथा+विदे=यथा विज्ञातं पुरुषमर्चसि तथैव । गिरा=वाण्या । तमिन्द्रम् । अभि=सर्वभावेन । प्रार्च=पूजय । कीदृशम् । गोपतिम्=पृथिव्यादिस्वामिनम् । सत्यस्य । सूनुमुत्पादकम् । पुनः सत्पतिम् ॥४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे मनुष्यगण ! (यथा+विदे) जैसे विज्ञान और प्रख्यात पुरुष को पूजते हो वैसे ही (गिरा) स्वस्ववाणी से (अभि) अन्तःकरण के सर्वभाव से (इन्द्रम्) उस परमात्मा को (प्रार्च) पूजो, जो जगदीश (गोपतिम्) पृथिव्यादि लोकों का रक्षक है, (सत्यस्य+सूनुम्) सत्य का जनयिता और (सत्पतिम्) सत्पति है ॥४ ॥

    भावार्थ

    परमेश्वर को प्रत्यक्ष देखते नहीं, अतः उसके अस्तित्व में लोग संदिग्ध रहते हैं और उसकी पूजा-पाठ में आलस्य करते हैं । इस कारण विश्वासार्थ कहा जाता है कि विज्ञात पुरुष जैसे देखते और उसको पूजते, तद्वत् उसको भी समझो । क्योंकि यदि वह न हो, तो ये पृथिवी आदि कहाँ से आएँ । उसको विचारो ॥४ ॥

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    विषय

    प्रजाओं द्वारा उत्तम शासक की स्थापना।

    भावार्थ

    ( यथा विदे ) यथावत् ज्ञान वा ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिये, ( सत्पतिम् ) सज्जनों के पालक, एवं सत् अविनाशी पदार्थों के स्वामी, ( सत्यस्य सूनुं ) सत्य के प्रेरक, सत्य के उत्पादक, उपदेशक ( गोपतिं ) जितेन्द्रिय, वाणी के पालक, भूमि के पालक ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् प्रभु की ( अभि प्र अर्च ) साक्षात् स्तुति कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रियमेध ऋषिः॥ देवताः—१—१०, १३—१८ इन्द्रः। ११ विश्वेदेवाः। ११, १२ वरुणः। छन्दः—१, ३, १८ विराडनुष्टुप्। ७, ९, १२, १३, १५ निचूदनुष्टुप्। ८ पादनिचृदनुष्टुप्। १४ अनुष्टुप्। २ निचृदुष्णिक्। ४, ५ निचृद् गायत्री। ६ गायत्री। ११ पंक्तिः। १६ निचृत् पंक्तिः। १७ बृहती। १८ विराड् बृहती॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    सत्यस्य सूत्रम् [अर्थ]

    पदार्थ

    [१] (यथाविदे) = यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिए गोपतिं ज्ञान की वाणियों के स्वामी (इन्द्रं) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की (गिरा) = स्तुतिवाणियों से (अभि प्र अर्च) = आभिमुख्येन खूब स्तुति कर । [२] उस प्रभु का तू अर्चन कर जो (सत्यस्य सूनुं) = सत्य की प्रेरणा देनेवाले हैं और (सत्यपतिम्) = सज्जनों के व सत्कर्मों के रक्षक हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुपूजन से यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। प्रभु ही सत्य की प्रेरणा प्राप्त कराते हैं और सत्कर्मों का रक्षण करते हैं।

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