ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 69/ मन्त्र 14
अतीदु॑ श॒क्र ओ॑हत॒ इन्द्रो॒ विश्वा॒ अति॒ द्विष॑: । भि॒नत्क॒नीन॑ ओद॒नं प॒च्यमा॑नं प॒रो गि॒रा ॥
स्वर सहित पद पाठअति॑ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । श॒क्रः । अ॒ह॒ते॒ । इन्द्रः॑ । विश्वाः॑ । अति॑ । द्विषः॑ । भि॒नत् । क॒नीनः॑ । ओ॒द॒नम् । प॒च्यमा॑नम् । प॒रः । गि॒रा ॥
स्वर रहित मन्त्र
अतीदु शक्र ओहत इन्द्रो विश्वा अति द्विष: । भिनत्कनीन ओदनं पच्यमानं परो गिरा ॥
स्वर रहित पद पाठअति । इत् । ऊँ इति । शक्रः । अहते । इन्द्रः । विश्वाः । अति । द्विषः । भिनत् । कनीनः । ओदनम् । पच्यमानम् । परः । गिरा ॥ ८.६९.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 69; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, the sovereign soul of self-power, transcends all jealousy, malignity and enmity and, blest with top handsomeness and grace of the spirit, breaks open into words the mature knowledge and self-realised spiritual food for the seekers.
मराठी (1)
भावार्थ
साधक जेव्हा संपूर्ण द्वेष भावनांवर विजय प्राप्त करतो तेव्हाच त्याचे मन परमेश्वराच्या ध्यानात संलग्न होते व पुन्हा हळूहळू जेव्हा त्याचा प्रबोध परिपक्व होतो, पूर्ण होऊ लागतो तेव्हा उपदेष्टा बनून तो अंशत: ते ज्ञान विभाजित करतो. ॥१४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्रः) ऐश्वर्य साधक (विश्वाः) सम्पूर्ण (द्विषः) द्वेष भावनाओं को (अति) जीतकर (अति, इत्) उच्च अवस्था में पहुँचा हुआ (ओहते) समाधियोग में लगता है। पुनश्च (परः कनीनः) उत्कृष्ट व कान्तियुक्त होकर (पच्यमानम्) प्रत्यक्ष होते हुए या पूर्णता को पाते हुए (ओदनम्) चावलों के समान सुपच, बुद्धिस्थ होने वाले प्रबोध रूपी भक्ष्य को (गिरा) स्व वाणी से (भिनत्) अंश-अंश करके बाँट देता है॥१४॥
भावार्थ
जब साधक सभी द्वेष-भावनाओं पर विजय पा लेता है तभी उसका मन भगवान् के ध्यान में सम्यक् रूप से संलग्न होता है और फिर धीरे-धीरे जब उसका अपना प्रबोध पूर्ण होने लगता है तब उपदेष्टा के रूप में वह उसे अंश-अंश कर वितरित करने लगता है॥१४॥
विषय
पक्व ओदन के तुल्य शिष्य का गुरु से ज्ञान
भावार्थ
( इन्द्रः ) सत्यदर्शी, तेजस्वी पुरुष वीर और विद्वान् ( विश्वाः द्विषः अति ) समस्त द्वेषों और द्वेषियों को अतिक्रमण कर, उनसे बढ़कर ( शक्रः ) शक्तिशाली, सर्ववशकारी होकर ( अति इत् उ ) अति अधिक ही ( ओहते ) बढ़ जाता है। जिस प्रकार ( पच्यमानं ओदनं ) पकते हुए चावल को कान्तियुक्त अग्नि ( भिनत् ) भेद देता है, उसका दाना दाना अलग कर देता है और जिस प्रकार ( कनीनः ) कान्तियुक्त सूर्य ( पच्यमानं ओदनं ) प्रकट हुए मेघ को ( भिनत् ) तेज से छिन्न भिन्न कर देता है उसी प्रकार गुरु से तत्वदर्शी विद्वान् ( कनीनः ) तेजस्वी कनिष्ठ शिष्य होकर ( गिरा ) वाणी द्वारा ( पच्यमानं ) प्रकट किये जाते हुए ( ओदनं ) प्रजापति के ( परः ) परम स्वरूप को ( भिनत्) और अधिक खोले, उसको लक्ष्यवत् भेदे।
टिप्पणी
पच्यमानं,—पचि विस्तारवचने।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रियमेध ऋषिः॥ देवताः—१—१०, १३—१८ इन्द्रः। ११ विश्वेदेवाः। ११, १२ वरुणः। छन्दः—१, ३, १८ विराडनुष्टुप्। ७, ९, १२, १३, १५ निचूदनुष्टुप्। ८ पादनिचृदनुष्टुप्। १४ अनुष्टुप्। २ निचृदुष्णिक्। ४, ५ निचृद् गायत्री। ६ गायत्री। ११ पंक्तिः। १६ निचृत् पंक्तिः। १७ बृहती। १८ विराड् बृहती॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'मुक्तिप्रदाता' प्रभु
पदार्थ
[१] (शक्रः) = वह सर्वशक्तिमान् प्रभु (इत् उ) = निश्चय ही (अति ओहते) = हमें भवसागर के पार ले जाता है। (इन्द्रः) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला प्रभु (विश्वाः द्विषः) = सब द्वेषों के (अति) = पार प्राप्त करता है। [२] वह (कनीनः) = [ कन दीप्तौ ] दीप्त प्रभु - प्रकाशमय प्रभु (परः) = सबसे परस्तात् वर्तमान हैं-सब गुणों के दृष्टिकोण से परे हैं- उत्कृष्ट हैं। वे प्रभु ही (गिराः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा (पच्यमानं) = परिपक्व किये जाते हुए इस (ओदनं) = हमारे अन्नमय कोश को इस स्थूल शरीर के (भिनत्) = हमारे से पृथक् करते हैं-हमें मुक्ति के मार्ग पर आगे ले चलते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही ' शक्र' हैं, 'इन्द्र ' हैं। वे ही हमें सब द्वेषों से ऊपर उठाते हैं और ज्ञानाग्नि में परिपक्व करके हमें मुक्त करते हैं।
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