ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 69/ मन्त्र 17
तं घे॑मि॒त्था न॑म॒स्विन॒ उप॑ स्व॒राज॑मासते । अर्थं॑ चिदस्य॒ सुधि॑तं॒ यदेत॑व आव॒र्तय॑न्ति दा॒वने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । घ॒ । ई॒म् । इ॒त्था । न॒म॒स्विनः॑ । उप॑ । स्व॒ऽराज॑म् । आ॒स॒ते॒ । अर्थ॑म् । चि॒त् । अ॒स्य॒ । सुऽधि॑तम् । यत् । एत॑वे । आ॒ऽव॒र्तय॑न्ति । दा॒वने॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं घेमित्था नमस्विन उप स्वराजमासते । अर्थं चिदस्य सुधितं यदेतव आवर्तयन्ति दावने ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । घ । ईम् । इत्था । नमस्विनः । उप । स्वऽराजम् । आसते । अर्थम् । चित् । अस्य । सुऽधितम् । यत् । एतवे । आऽवर्तयन्ति । दावने ॥ ८.६९.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 69; मन्त्र » 17
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 7
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Thus do yajnic and meditative souls holding havis for homage adore and worship self-refulgent Indra when, in order to realise the nature, character and generosity, indeed the very presence of the lord, they turn their self-controlled mind to the Divine Soul in order to reach him.
मराठी (1)
भावार्थ
पूर्व मंत्रात जीवात्म्याला उपदेश केलेला आहे की, त्याने प्रभूला आपल्या समीप जाणावे. पण कसे?
टिप्पणी
याचे उत्तर असे की, वारंवार त्याच्या गुणाचे कीर्तन करावे. गुणांचे कीर्तन करण्याने त्या गुणांच्या प्राप्तीचा संकल्प वाढेल व या संकल्पबलाच्या साह्याने त्याचे गुण जीव धारण करू शकेल. हीच त्याची खरी उपासना पद्धती आहे. ॥१७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्) जब (अस्य) इस (दावने) दाता इन्द्र, की (एतये वे? ) प्राप्ति हेतु और (सुधितम्) इसके सुनिहित अर्थ-प्राप्ति योग्य गुण व इसके दिये हुए द्रव्य समूह को (चित्) भी प्राप्त करने के लिये (आवर्तयन्ति) इसके गुणों का बार-बार गान करते हैं, (घ) निश्चय ही (नमस्विनः) आज्ञानुवर्ती साधक (तम्) उस (स्वराजम्) स्वयं प्रकाशित प्रभु की (इत्था) इसी प्रकार (उप, आसते) पूजा करते हैं॥१७॥
भावार्थ
पहले मन्त्र में जीवात्मा को कहा गया है कि वह प्रभु को अपने समीप बैठाए, किन्तु कैसे? उत्तर यह है कि बार-बार उसके गुणों का कीर्तन करे; उससे उन गुणों की प्राप्ति का संकल्प बढ़ेगा और इस संकल्प बल के सहारे उसके गुण जीव धारण करेगा; यही उसकी सच्ची उपासना की पद्धति है।॥१७॥
विषय
राजतन्त्रवत् अध्यात्मस्वराट् की उपासना।
भावार्थ
जिस प्रकार राजा के ( सु-धितम् ) उत्तम रीति से धारित ( अर्थं ) अभिप्राय या ऐश्वर्य को ( एतवे ) प्राप्त करने के लिये (दावने) दान देने के लिये ( आवर्तयन्ति ) पुन: २ आपस में लेते देते हैं। और इस प्रकार ( नमस्विनः ) अन्नादिवान् प्रजाजन ( स्वराजम् ) अर्थ धनादि से प्रकाशित धन के स्वामी राजा की ( उपासते ) उपासना करते हैं। उसी प्रकार ( अस्य सुधितं अर्थं एतवे दावने ) इस प्रभु के सुष्टु धारित अभिप्राय का जानने और अन्य को उपदेशदान द्वारा जनाने के लिये भी ( यत् ) जो उसका ( आवर्तयन्ति ) पुनः अभ्यास करते हैं वे (घ) निश्चय से ( इत्था ) इस प्रकार ( नमस्विनः ) अति विनीत होकर ( स्वराजम् उप आसते ) स्वयं प्रकाशमान परमेश्वर की उपासना करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रियमेध ऋषिः॥ देवताः—१—१०, १३—१८ इन्द्रः। ११ विश्वेदेवाः। ११, १२ वरुणः। छन्दः—१, ३, १८ विराडनुष्टुप्। ७, ९, १२, १३, १५ निचूदनुष्टुप्। ८ पादनिचृदनुष्टुप्। १४ अनुष्टुप्। २ निचृदुष्णिक्। ४, ५ निचृद् गायत्री। ६ गायत्री। ११ पंक्तिः। १६ निचृत् पंक्तिः। १७ बृहती। १८ विराड् बृहती॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सुधितम् अर्थम्
पदार्थ
[१] (तं स्वराजं) = उस स्वयं देदीप्यमान प्रभु को (इत्था) = सचमुच (घा ईम्) = निश्चय से (नमस्विनः) = नमस्कारवाले (उपासते) = उपासित करते हैं। [२] (अस्य) = इस उपासक का (अर्थं) = प्राप्तव्य धन (चित्) = निश्चय से (सुधितम्) = सम्यक् स्थापित होता है । (यत्) = जो धन (एतवे) = जीवन के कार्यों को संचालित करने के लिए होता है और इस धन को वे दावने हवि आदि के देने के लिए दान के लिए (आवर्तयन्ति) = आवृत्त करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- नमन से युक्त होकर हम प्रभु का उपासन करते हैं। प्रभु हमें धन देते हैं। यह धन कार्यसंचालन व दान में विनियुक्त होता है।
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