ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 69/ मन्त्र 15
अ॒र्भ॒को न कु॑मार॒कोऽधि॑ तिष्ठ॒न्नवं॒ रथ॑म् । स प॑क्षन्महि॒षं मृ॒गं पि॒त्रे मा॒त्रे वि॑भु॒क्रतु॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्भ॒कः । न । कु॒मार॒कः । अधि॑ । ति॒ष्ठ॒त् । नव॑म् । रथ॑म् । सः । प॒क्ष॒त् । म॒हि॒षम् । मृ॒गम् । पि॒त्रे । मा॒त्रे । वि॒भु॒ऽक्रतु॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्भको न कुमारकोऽधि तिष्ठन्नवं रथम् । स पक्षन्महिषं मृगं पित्रे मात्रे विभुक्रतुम् ॥
स्वर रहित पद पाठअर्भकः । न । कुमारकः । अधि । तिष्ठत् । नवम् । रथम् । सः । पक्षत् । महिषम् । मृगम् । पित्रे । मात्रे । विभुऽक्रतुम् ॥ ८.६९.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 69; मन्त्र » 15
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Neither a child nor an adolescent, the man of mature mind abiding in a healthy body practices meditation and realises the great, supreme, omnipotent cosmic soul of universal holy action for the enlightenment of all about Mother Nature and the father of creation.
मराठी (1)
भावार्थ
ऐश्वर्याच्या इच्छुक माणसाचे अंतिम व महान लक्ष्य परमेश्वर आहे. त्याचे मार्गण-अन्वेषण त्याच्या प्राप्तीसाठी प्रयत्न करणेच माणसाचे महान लक्ष्य आहे, असे म्हटले जाते - ‘अन्तर्यश्च मुमुक्षुभिनिर्यमितप्राणादिभिर्मुग्यते’ ज्या जीवाची वाहक इन्द्रिये, बुद्धिरूपी सारथी व मनरूपी लगाम पूर्णपणे वशमध्ये असतील तोच प्रशंसनीय शरीररथ असतो. या द्वारेच प्रभूचे प्रत्यक्ष (दर्शन) होते. ॥१५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
ऐश्वर्य साधक इन्द्र (न अर्भकः) न तो शैशव अवस्था वाला हो और (कुमारकः) न बालक ही; अपितु सर्वथा युवा सशक्त शरीरादि का हो तो वह (नवम्) स्तुतियोग्य (रथम्) शरीररूपी रथ पर (तिष्ठन्) आरूढ़ होकर (सः) वह साधक (पित्रे, मात्रे) पिता व माता के पद पर प्रतिष्ठित करने हेतु (महिषम्) महान् (मृगम्) अनुसन्धातव्य (विभुक्रतुम्) व्यापक प्रज्ञा व कर्मों वाले भगवान् को (पक्षत्) प्रत्यक्ष करता है॥१५॥
भावार्थ
ऐश्वर्य-इच्छुक व्यक्ति का अन्तिम व महान् लक्ष्य प्रभु ही है। उसका मार्गदर्शन अन्वेषण, उसकी प्राप्ति के लिये यत्न करना ही व्यक्ति का महान् लक्ष्य है। प्रशंसनीय शरीररथ वही है कि जिसके वाहक इन्द्रियाश्व, बुद्धिरूपी सारथि व मनरूपी प्रग्रह के माध्यम से जीव के पूर्णतया वश में हों। इसी से प्रभु प्रत्यक्ष होता है॥१५॥
विषय
राजकुमार के रथारोहणवत्। राष्ट्र शासन पद का आरोहण, और जीव का ब्रह्मपद-आरोहण।
भावार्थ
( अर्भकः कुमारकः न ) जिस प्रकार छोटे शरीर का भी युवराज ( नवं रथं अधि तिष्ठत ) नये रथ पर बैठ कर ( मात्रे पित्रे ), माता पिता की प्रसन्नता के लिये ( विभु-क्रतुम् ) बड़े सामर्थ्यवान् ( महिषं मृगं ) बड़े अश्वोंको ( पक्षत् ) वश कर लेता है। उसी प्रकार राजा भी ( नवं रथं अधितिष्ठिन् ) नये रथवत् नये रमणीय ऐश्वर्ययुक्त राज्य को अधिष्ठित होता हुआ ( विभु-क्रतुम् ) अधिक प्रज्ञावान् ( महिषं ) पूज्य ( मृगं ) शुद्ध चारित्रवान् पुरुष को ( मात्रे पित्रे ) माता पिता के योग्य पद के निमित्त अपने ऊपर ( पक्षत् ) स्वीकार करे। इसी प्रकार यह जीव भी इस देह रूप रथ को प्राप्त कर महाप्रज्ञ एवं ( महिषं ) बड़े ऐश्वर्य के दाता ( मृगं ) शुद्ध स्वरूप सर्वशोधक परम पावन प्रभु को माता पिता रूप से स्वीकार करे वह उसे 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव' समझे। ( ३ ) (सः) वह आचार्य शिष्य के प्रति महाप्रज्ञ प्रभु को ही माता पिता होने योग्य महान् ऐश्वर्यप्रद सब से मृग्य, शुद्ध ( पक्षत् ) बतलावे। उसका विस्तार से उपदेश करे। अथवा वह शिष्य के प्रति भी ( अर्भकः = अर्हकः ) आदर भाव से यथा योग्य वर्तनेवाला हो। ( न कु-मारकः) कुत्सित रूप में उसको मारने वाला न हो। अथवा नश्चार्थ:। वह उसका योग्य आदर्त्ता और कुत्सित चेष्टाओं पर दण्ड देने और कुत्सित भावों को नाश करने वाला हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रियमेध ऋषिः॥ देवताः—१—१०, १३—१८ इन्द्रः। ११ विश्वेदेवाः। ११, १२ वरुणः। छन्दः—१, ३, १८ विराडनुष्टुप्। ७, ९, १२, १३, १५ निचूदनुष्टुप्। ८ पादनिचृदनुष्टुप्। १४ अनुष्टुप्। २ निचृदुष्णिक्। ४, ५ निचृद् गायत्री। ६ गायत्री। ११ पंक्तिः। १६ निचृत् पंक्तिः। १७ बृहती। १८ विराड् बृहती॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'त्वमेव माता च पिता त्वमेव '
पदार्थ
जीव को चाहिए कि (अर्भकः न) = एक छोटे बालक के समान हो । (कुमारकः) = वह सब क्रीड़ा को करनेवाला हो As innocent as a child = एक बालक के समान निर्दोष व्यवहारवाला हो- व्यर्थ में चुस्त चालाक न बने। (नवं रथं अधितिष्ठन्) = इस स्तुत्य व गतिशील [नु स्तुतौ, नव गतौ] शरीररथ पर आरूढ़ होता हुआ (सः) = वह (पित्रे मात्रे) = पिता व माता के लिए उस (महिष) = पूजनीय (मृगं) = अन्वेषणीय (विभुक्रतुम्) = सर्वव्यापक प्रज्ञानस्वरूप प्रभु को (पक्षत्) = परिगृहीत करे [पक्ष परिग्रहे]।
भावार्थ
भावार्थ- हम बालकों की तरह निर्दोष जीवनवाले बनें। शरीररथ को स्तुत्य व गतिशील बनाएँ। प्रभु को ही माता व पिता समझें । प्रभु पूज्य हैं, अन्वेषणीय हैं, सर्वव्यापक व प्रज्ञानस्वरूप हैं।
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