ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 109/ मन्त्र 15
ऋषिः - अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - भुरिगार्चीगायत्री
स्वरः - षड्जः
पिब॑न्त्यस्य॒ विश्वे॑ दे॒वासो॒ गोभि॑: श्री॒तस्य॒ नृभि॑: सु॒तस्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपिब॑न्ति । अ॒स्य॒ । विश्वे॑ । दे॒वासः॑ । गोभिः॑ । श्री॒तस्य॑ । नृऽभिः॑ । सु॒तस्य॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पिबन्त्यस्य विश्वे देवासो गोभि: श्रीतस्य नृभि: सुतस्य ॥
स्वर रहित पद पाठपिबन्ति । अस्य । विश्वे । देवासः । गोभिः । श्रीतस्य । नृऽभिः । सुतस्य ॥ ९.१०९.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 109; मन्त्र » 15
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(नृभिः, सुतस्य) संयमपुरुषैः साक्षात्कृतस्य (गोभिः, श्रीतस्य) ज्ञानवृत्त्या दृढाभ्यस्तस्य (अस्य) अस्य परमात्मन आनन्दं (विश्वे, देवासः) सर्वे विद्वांसः (पिबन्ति) अनुभवन्ति ॥१५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(नृभिः, सुतस्य) संयमी पुरुषों द्वारा साक्षात्कार किया हुआ (गोभिः, श्रीतस्य) जो ज्ञानवृत्तियों से दृढ़ अभ्यास किया गया है, (अस्य) उससे परमात्मा के आनन्द को (विश्वे, देवासः) सम्पूर्ण विद्वान् (पिबन्ति) पान करते हैं ॥१५॥
भावार्थ
परमात्मा का आनन्द इन्द्रियसंयम द्वारा दृढ़ अभ्यास के विना कदापि नहीं मिल सकता, इसलिये पुरुष को चाहिये कि वह श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन द्वारा दृढ़ अभ्यास करके परमात्मा के आनन्द को लाभ करें ॥१५॥
विषय
गोभिः श्रीतस्य
पदार्थ
(विश्वे) = सब (देवासः) = देववृत्ति के पुरुष ही (अस्य पिबन्ति) = इस सोम का शरीर में पान करते हैं। सोमरक्षण के लिये देववृत्ति अतिशयेन सहायक होती है। सुरक्षित सोम ही उन्हें 'देव' बनाता है। शरीरस्थ इन्द्रियाँ भी देव कहलाती हैं, ये भी इस सोम का पान करती हुई ही शक्तिशाली बनती हैं। ये देव उस सोम का पान करते हैं जो (गोभिः श्रीतस्य) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा परिपक्व होता है [श्रि पाके] । स्वाध्याय में लगे रहने से सोम शरीर में सुरक्षित रहता है और ठीक प्रकार से इसका परिपाक होता है । (नृभिः सुतस्य) = यह उन्नतिपथ पर चलनेवाले मनुष्यों से उत्पन्न किया जाता है । सदा आगे और आगे बढ़नेवाले पुरुष ही इसको अपने शरीर में उत्पन्न करके परिपक्व करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- स्वाध्याय में लगे रहना व उन्नति के मार्ग पर बढ़ना ही सोमरक्षण का साधन हो जाता है । सब देव इस सोम का पान करते हैं।
विषय
प्रभु के परम रस की प्राप्ति।
भावार्थ
(नृभिः सुतस्य) नेता, उत्तम मनुष्यों से पूजित, संस्कृत और (गोभिः श्रीतस्य) उत्तम वाणियों द्वारा सेवित, (अस्य) इस के परम रस का (विश्वे देवासः) समस्त विद्वान् लोग पान करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वरा ऋषयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ७, ८, १०, १३, १४, १५, १७, १८ आर्ची भुरिग्गायत्री। २–६, ९, ११, १२, १९, २२ आर्ची स्वराड् गायत्री। २०, २१ आर्ची गायत्री। १६ पादनिचृद् गायत्री॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
All the divine nobilities and brilliancies of the world drink of this soma sweetness of divine joy realised by leading lights of humanity and exalted with the beauty and grace of art and imagination.
मराठी (1)
भावार्थ
इंद्रिय संयमाद्वारे दृढ अभ्यासाशिवाय परमात्म्याचा आनंद कधीही मिळू शकत नाही. त्यासाठी पुरुषाने श्रवण, मनन, निदिध्यासनाद्वारे दृढ अभ्यास करून परमेश्वराच्या आनंदाचा लाभ घ्यावा. ॥१५॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal