ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 109/ मन्त्र 18
ऋषिः - अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - भुरिगार्चीगायत्री
स्वरः - षड्जः
प्र सो॑म या॒हीन्द्र॑स्य कु॒क्षा नृभि॑र्येमा॒नो अद्रि॑भिः सु॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सो॒म॒ । या॒हि॒ । इन्द्र॑स्य । कु॒क्षा । नृऽभिः॑ । ये॒मा॒नः । अद्रि॑ऽभिः । सु॒तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सोम याहीन्द्रस्य कुक्षा नृभिर्येमानो अद्रिभिः सुतः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सोम । याहि । इन्द्रस्य । कुक्षा । नृऽभिः । येमानः । अद्रिऽभिः । सुतः ॥ ९.१०९.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 109; मन्त्र » 18
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 8
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 8
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे सर्वोत्पादक ! भवान् (इन्द्रस्य) कर्मयोगिनः (कुक्षा) अन्तःकरणे (याहि) गच्छतु कथम्भूतः (अद्रिभिः, सुतः) चित्तवृत्तिभिः साक्षात्कृतः (नृभिः, येमानः) संयमिनां लक्ष्यीभूतश्च ॥१८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अद्रिभिः, सुतः) चित्तवृत्तियों के संयम द्वारा साक्षात्कार किये हुए (नृभिः, येमानः) संयमी पुरुषों के लक्ष्य (सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! आप (इन्द्रस्य) कर्मयोगी के (कुक्षा) अन्तःकरण में (याहि) प्राप्त हों ॥१८॥
भावार्थ
इस मन्त्र का भाव यह है कि जो पुरुष उसी एकमात्र परब्रह्म परमात्मा को अपना लक्ष्य बनाते हैं, उनको परमपिता परमात्मा अवश्य देदीप्यमान करते हैं ॥१८॥
विषय
नभिः येमानः
पदार्थ
हे (सोम) = वीर्य ! तू (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (कुक्षा) = उदर में (प्रयाहि) = प्रकर्षेण गतिवाला हो । इस जितेन्द्रिय पुरुष के शरीर में ही तू व्याप्तिवाला हो। (नृभिः) = उन्नतिपथ पर चलानेवाले मनुष्यों से तू (येमान:) = नियम्यमान होता है। इनके सामने निरन्तर आपके बढ़ने की भावना होती है, सो ये सोम का रक्षण करते हैं । (अद्रिभिः सुतः) = प्रभु के उपासकों से यह अपने अन्दर उत्पन्न किया जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के लिये 'जितेन्द्रियता, उन्नतिपथ पर चलना व प्रभु का उपासन' साधन बनते हैं ।
विषय
साधक को उपदेश।
भावार्थ
हे (सोम) प्रयत्नशील साधक ! तू (अद्रिभिः) दृढ़ आचारवान्, आदर योग्य (नृभिः) सन्मार्ग से लेजाने वाले गुरुजनों से (सुतः) प्रेरित होकर (येमानः) यम नियम का पालन करता हुआ, (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर के (कुक्षौ) बीच वा तत्वदर्शी गुरु के विद्यामय गर्भ में (प्र याहि) आगे, सन्मार्ग में गमन कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वरा ऋषयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ७, ८, १०, १३, १४, १५, १७, १८ आर्ची भुरिग्गायत्री। २–६, ९, ११, १२, १९, २२ आर्ची स्वराड् गायत्री। २०, २१ आर्ची गायत्री। १६ पादनिचृद् गायत्री॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma spirit of divinity, pursued in practice by men and realised in name and presence through senses, mind and intelligence of the yogis, come and abide in the heart core of the soul.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्राचा भाव हा आहे की जे पुरुष एकमेव परब्रह्म परमात्म्याला आपले लक्ष्य बनवितात, त्यांना परमपिता परमात्मा अवश्य देदीप्यमान करतो. ॥१८॥
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