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यजुर्वेद अध्याय - 29

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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 12
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - यजमानो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    71

    यदक्र॑न्दः प्रथ॒मं जाय॑मानऽउ॒द्यन्त्स॑मु॒द्रादु॒त वा॒ पुरी॑षात्।श्ये॒नस्य॑ प॒क्षा ह॑रि॒णस्य॒ बा॒हूऽउ॑प॒स्तुत्यं॒ महि॑ जा॒तं ते॑ऽअर्वन्॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। अक्र॑न्दः। प्र॒थ॒मम्। जाय॑मानः। उ॒द्यन्नित्यु॒त्ऽयन्। स॒मु॒द्रात्। उ॒त। वा॒। पुरी॑षात्। श्ये॒नस्य॑। प॒क्षा। ह॒रि॒णस्य॑। बा॒हूऽइति॑ बा॒हू। उ॒प॒स्तुत्य॒मित्यु॑प॒ऽस्तुत्य॑म्। महि॑। जा॒तम्। ते॒ अ॒र्व॒न् ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदक्रन्दः प्रथमञ्जायमान उद्यन्त्समुद्रादुत वा पुरीषात् । श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहूऽउपस्तुत्यम्महि जातन्तेऽअर्वन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। अक्रन्दः। प्रथमम्। जायमानः। उद्यन्नित्युत्ऽयन्। समुद्रात्। उत। वा। पुरीषात्। श्येनस्य। पक्षा। हरिणस्य। बाहूऽइति बाहू। उपस्तुत्यमित्युपऽस्तुत्यम्। महि। जातम्। ते अर्वन्॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 12
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे अर्वन् विद्वन्! यत्समुद्रादुत वा पुरीषात् प्रथमं जायमानो वायुरिवोद्यंस्त्वमक्रन्दस्तदा ते हरिणस्य बाहू श्येनस्य पक्षेव एतत् महि जातमुपस्तुत्यं भवति॥१२॥

    पदार्थः

    (यत्) यदा (अक्रन्दः) शब्दं कुरुषे (प्रथमम्) (जायमानः) (उद्यन्) उदयं प्राप्नुवन् (समुद्रात्) अन्तरिक्षात्। समुद्र इत्यन्तरिक्षनामसु पठितम्॥ (निघ॰१।३) (उत) अपि (वा) (पुरीषात्) पालकात् परमात्मनः (श्येनस्य) पक्षिणः (पक्षा) पक्षौ (हरिणस्य) हर्त्तुं शीलस्य वीरस्य (बाहू) भुजौ (उपस्तुत्यम्) उपगतस्तुतिविषयम् (महि) महत् कर्म (जातम्) (ते) तव (अर्वन्) अश्व इव वेगवद्विद्वन्॥१२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः! यथाऽन्तरिक्षात् प्रकटो वायुः कर्माणि कारयति, तथा शुभान् नृगुणान् यूयं स्वीकुरुत। यथा पशूनां मध्येऽश्वो वेगवानस्ति तथा शत्रूणां निग्रहे वेगवन्तः श्येन इव वीरसेना प्रगल्भा भवत यद्येवं कुरुत तर्हि सर्वं युष्माकं प्रशंसितं स्यात्॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अर्वन्) घोड़े के तुल्य वेग वाले विद्वान् पुरुष! (यत्) जब (समुद्रात्) अन्तरिक्ष (उत, वा) अथवा (पुरीषात्) रक्षक परमात्मा से (प्रथमम्) पहिले (जायमानः) उत्पन्न हुए वायु के समान (उद्यन्) उदय को प्राप्त हुए (अक्रन्दः) शब्द करते हो तब (हरिणस्य) हरणशील वीरजन (ते) आप के (बाहू) भुजा (श्येनस्य) श्येनपक्षी के (पक्षा) पंखों के तुल्य बलकारी हैं, यह (महि) महत् कर्म (जातम्) प्रसिद्ध (उपस्तुत्यम्) समीपस्थ स्तुति का विषय होता है॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे अन्तरिक्ष से उत्पन्न हुआ वायु कर्मों को कराता, वैसे मनुष्यों के शुभगुणों को तुम लोग ग्रहण करो। जैसे पशुओं में घोड़ा वेगवान् है, वैसे शत्रुओं को रोकने में वेगवान् श्येन पक्षी के तुल्य वीर पुरुषों की सेना वाले दृढ़ ढीठ होओ, यदि ऐसे करो तो सब कर्म तुम्हारा प्रशंसित होवे॥१२॥

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    विषय

    उदयः होते सूर्य, बाज और वेगवान् हरणि के समान सेनानायक का स्तुत्य रूप ।

    भावार्थ

    हे ( अर्वन् ) वेग से प्रयाण करनेहारे राजन् ! (यत्) जब तू ( समुद्रात् उद्यन् ) समुद्र से ऊपर उठते हुए सूर्यं या मेघ के समान उदय को प्राप्त होकर (प्रथमं जायमानः) पहले-पहल उत्पन्न होकर, राजा बनाया जाकर (वा) और ( पुरीषात् ) ऐश्वर्य से ऊपर उठता हुआ, उन्नत राजपद पर विराजता हुआ (अक्रन्दः) शब्द करता, आज्ञा प्रदान करता है, गर्जना या घोषणा करता है उस समय तेरी ( पक्षा ) दोनों बाजू ( श्येनस्य) बाज पक्षी के समान अति वेग से शत्रु पर आक्रमण करने में समर्थ दायें बायें दो सेनाओं के दस्ते (Wings) और (हरिणस्य) हरिण की ( बाहू) भगली टांगों के समान अति शीघ्रगामी दो सेनादल समान शत्रुपीड़न में समर्थ दोनों बाहू आगे होते हैं और उस समय (ते) तेरा स्वरूप (महि) बहुत अधिक ( उपस्तुत्यं जातम् ) वर्णन करने योग्य हो जाता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    [ १२–२३ ] भार्गवो जमदग्निर्दीर्घतमाश्च ऋषी । अश्वस्तुतिः । यजमानः. त्रिष्टुप् । धैवतः॥

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    विषय

    अर्वा

    पदार्थ

    १. अब अध्याय के अन्त तक मन्त्र 'भार्गवजमदग्नि' के हैं। 'भृगु का अपत्य' भार्गव है, अपने ज्ञान को पूर्ण परिपाक करनेवाला [ भ्रस्ज पाके]। जिसके वहाँ अग्नियाँ जीमती हैं, अग्नियों को हव्य पदार्थ प्राप्त होते हैं, वह 'जमदग्नि' है। यह निमयपूर्वक अग्निहोत्रादि करनेवाला है। यह (समुद्रात्) = ज्ञान के समुद्र आचार्य से ['तपोऽतिष्ठत् तप्यमानः समुद्रे 'तप करता हुआ आचार्य के समीप रहता है] । उद्यन् उदय को प्राप्त होता हुआ उत वा तथा पुरीषात् = [पृ पालनपूरणयोः] तीनों आश्रमियों का पालन व पूरण करनेवाले इस गृहस्थाश्रम से (उद्यन्) = उदय को प्राप्त करता हुआ (यत्) = जो (जायमानः) = प्रतिदिन निद्रा की समाप्ति पर आविर्भूत जीवनवाला होता हुआ, अर्थात् जागरितावस्था में आता हुआ (प्रथमम्) = सबसे पहले, किसी भी अन्य क्रिया को करने से पहले (अक्रन्दः) = प्रभु का आह्वान करता है [क्रदि आह्वाने] २. इसके (पक्षौ) [ पक्ष परिग्रहे ] = ज्ञान व उपासनारूप पंख (श्येनस्य) = [श्यैङ गतौ ] बाज़ की भाँति गतिशील होते हैं, अर्थात् इसका ज्ञान इसे कर्म में प्रवृत्त करता है और यह कर्मों द्वारा ही प्रभु की उपासना करता है । ३. इसकी (बाहू) = बाहुएँ, भुजाएँ (हरिणस्य) = हरिण की भाँति दुःखों के हरण करनेवाले पुरुष की होती हैं, अर्थात् ये अपने प्रयत्नों से औरों के दुःख दूर करने में लगे रहते हैं। ४. हे (अर्वन्) = [अर्व to kill] प्रभु स्मरण के द्वारा कर्मों में लगे रहने के द्वारा तथा लोकहित में प्रवृत्ति से वासनाओं के संहार करनेवाले जीव ! (ते) = तेरा यह सब कर्म (महि उपस्तुत्यम्) = बड़ा स्तुति के योग्य जातम् हो गया है, अर्थात् इस मार्ग पर चलने से तुझे यश ही यश मिला है।

    भावार्थ

    भावार्थ- उठते ही हम प्रभु-स्तवन करें, आचार्य के समीप रहकर उन्नति को प्राप्त करें, गृहस्थ में सभी का पालन-पोषण करते हुए हम उन्नत हों। हमारा ज्ञान व उपासन हमें गतिशील बनाएँ। हमारे प्रयत्न औरों का दुःख हरण करने के लिए हों। इस प्रकार वासनाओं का संहार करने पर हमारा जीवन उत्तम होगा।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! अंतरिक्षातील वायू जसे कार्य करतो तसे तुम्ही माणसाच्या शुभ गुणांना स्वीकारा. जसे पशूंमध्ये गतिमान घोडा शत्रूंना रोखतो. तसे वेगवान श्येन पक्ष्याप्रमाणे वीर पुरुषांची दृढ व धीट सेना तयार करा. म्हणजे तुमच्या सर्व कर्माची प्रशंसा होईल.

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    विषय

    पुन्हा, त्या विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ -हे (अर्वन्) अश्‍वाप्रमाणे (विद्या-क्षेत्रात) वेग असणारे विद्वान महोदय, (यत्) जेव्हां (समुद्रात्) अंतरिक्षात उत्पन्न (उत, वा) अथवा (पुरीषात्) रक्षक परमेश्‍वराने (प्रथमम्) प्रथम वा सृष्टीच्या आरंभी (जायमानः) मिर्नित वायुप्रमाणे विद्यमान (उद्यन्) उदय वा वर्धित होत तुम्ही (अक्रन्दः) मोठा शब्द वा गर्जना करता, तेव्हा (हरिणस्य) (दुःख, भय व शत्रू) यांचे हरण करणार्‍या वीरपुरूषाप्रमाणे (ते) तुमच्या (बाहू) दोन्ही भुजा (श्येनस्य) बहिरी ससाणा पक्ष्याच्या (पक्षा) पंखाप्रमाणे हे (महि) महान कर्म करतात त्यामुळे आपण (जातम्) ख्याती प्राप्त करता आणि (उपस्तुत्यम्) स्तुती प्राप्त करता ॥12॥

    भावार्थ

    भावार्थ -या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे मनुष्यांनो, जसे अंतरिक्षात उत्पन्न वायू अनेक कर्म (वृष्टी, शुद्धी आदी) करवितो, तसे तुम्हीही मनुष्यांकडून सत्कर्म करून घ्या जसा पशूपैकी घोडा वेगवान आहे, आणि बहिरी ससाणा पक्षी पक्षापैकी सर्वाधिक बलवान आहे, तसे तुम्ही शत्रुसैन्याला न ऐकणार्‍या वीर पुरूषाप्रमाणे वीर व्हा, दृढ रहा-जर तुम्ही असे वागाल, तर सर्वजण तुमच्या कार्याची प्रशंसा करतील ॥12॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, active like a horse, when thou roarest with full splendour, like air created in the beginning by God from the atmosphere, and the arms of thy hero become strong like eagle-pinions, thou deservest applause for this glaring great deed.

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    Meaning

    Man of knowledge of the speed of sun-beams, whether you emerge from the depths of meditation or from the consciousness of the Divine like energy of the wind, first-born of nature, then whatever you speak or do becomes great and worthy of celebration like flights of the hawk or bounds of the deer.

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    Translation

    O sun, we glorify your rising. At times you appear to be springing from the firmament or from the ocean with the roar of sea-waves. You rise higher and higher as if possessed with the wings of a falcon and the lumbs of a deer (1)

    Notes

    Prathamam jayamanaḥ udyan samudrāt uta vā purīşāt, first born out of samudra or of purișa. Samudra is the mid-space or antarikṣa. (Dayā. ). Purișa is the full cause, purna kāraṇa, the material cause. Śyenasya pakṣā, पक्षौ, two wings of a falcon. Harinasya bāhū, two limbs or forelegs of a deer.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অর্বন্) অশ্বতুল্য বেগযুক্ত বিদ্বান্ পুরুষ ! (য়ৎ) যখন (সমুদ্রাৎ) অন্তরিক্ষ (উত, বা) অথবা (পুরীষাৎ) রক্ষক পরমাত্মা দ্বারা (প্রথমম্) প্রথমে (জায়মানঃ) উৎপন্নবায়ুর সমান (উদ্যন্) উদয়কে প্রাপ্ত হইয়া (অক্রন্দঃ) শব্দ কর তখন (হরিণস্য) হরণশীল বীরজন (তে) আপনার (বাহূ) ভুজ (শ্যেনস্য) শ্যেনপক্ষীর (পক্ষা) পক্ষ তুল্য শক্তিশালী, এই (মহি) মহৎ কর্ম (জাতম্) প্রসিদ্ধ (উপস্তুত্যম্) সমীপস্থ স্তুতির বিষয় হয় ॥ ১২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ ! যেমন অন্তরিক্ষ হইতে উৎপন্ন বায়ু কর্ম্ম করায়, সেইরূপ মনুষ্যদিগের শুভগুণ সমূহকে তোমরা গ্রহণ কর । যেমন পশুদিগের মধ্যে অশ্ববেগবান্ সেইরূপ শত্রুদিগকে প্রতিহত করিতে বেগবান্ শ্যেনপক্ষী তুল্য বীর পুরুষদিগের সেনা সম্পন্ন দৃঢ়, স্থিরমতি হও । যদি এমন করিতে পার তবেই সকল কর্ম্ম তোমার প্রশংসিত হইবে ॥ ১২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়দত্র॑ôন্দঃ প্রথ॒মং জায়॑মানऽউ॒দ্যন্ৎস॑মু॒দ্রাদু॒ত বা॒ পুরী॑ষাৎ ।
    শ্যে॒নস্য॑ প॒ক্ষা হ॑রি॒ণস্য॒ বা॒হূऽউ॑প॒স্তুত্যং॒ মহি॑ জা॒তং তে॑ऽঅর্বন্ ॥ ১২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়দক্রন্দ ইত্যস্য ভার্গবো জমদগ্নির্ঋষিঃ । য়জমানো দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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