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यजुर्वेद अध्याय - 29

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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 53
    ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः देवता - वीरो देवता छन्दः - विराट् जगती स्वरः - निषादः
    68

    दि॒वः पृ॑थि॒व्याः पर्योज॒ऽउद्भृ॑तं॒ वन॒स्पति॑भ्यः॒ पर्य्याभृ॑त॒ꣳ सहः॑।अ॒पामो॒ज्मानं॒ परि॒ गोभि॒रावृ॑त॒मिन्द्र॑स्य॒ वज्र॑ꣳ ह॒विषा॒ रथं॑ यज॥५३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वः। पृ॒थि॒व्याः। परि॑। ओजः॑। उद्भृ॑त॒मित्युत्ऽभृ॑तम्। वन॒स्पति॑भ्य॒ इति॒ वन॒स्पति॑ऽभ्यः। परि॑। आभृ॑त॒मित्याऽभृ॑तम्। सहः॑। अ॒पाम्। ओ॒ज्मान॑म्। परि॑। गोभिः॑। आवृ॑त॒मित्याऽवृ॑तम्। इन्द्र॑स्यः। वज्र॑म्। ह॒विषा॑। रथ॑म्। य॒ज॒ ॥५३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवः पृथिव्याः पर्याजऽउद्भृतँवनस्पतिभ्यः पर्याभृतँ सहः । अपामोज्मानम्परि गोभिरावृतमिन्द्रस्य वज्रँ हविषा रथँ यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दिवः। पृथिव्याः। परि। ओजः। उद्भृतमित्युत्ऽभृतम्। वनस्पतिभ्य इति वनस्पतिऽभ्यः। परि। आभृतमित्याऽभृतम्। सहः। अपाम्। ओज्मानम्। परि। गोभिः। आवृतमित्याऽवृतम्। इन्द्रस्यः। वज्रम्। हविषा। रथम्। यज॥५३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 53
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे विद्वंस्त्वं दिवः पृथिव्या उद्भृतमोजः परि यज वनस्पतिभ्य आभृतं सहः परि यज। अपां सकाशादोज्मानं परि यज। इन्द्रस्य गोभिरावृतं वज्रं रथं हविषा यज॥५३॥

    पदार्थः

    (दिवः) सूर्यात् (पृथिव्याः) भूमेः (परि) (ओजः) पराक्रमम् (उद्भृतम्) उत्कृष्टतया धृतम् (वनस्पतिभ्यः) वटादिभ्यः (परि) (आभृतम्) समन्तात् पोषितम् (सहः) बलम् (अपाम्) जलानां सकाशात् (ओज्मानम्) पराक्रमयुक्तं रसम् (परि) (गोभिः) किरणैः (आवृतम्) आच्छादितम् (इन्द्रस्य) सूर्यस्य (वज्रम्) कुलिशमिव (हविषा) आदानेन (रथम्) यानम् (यज)॥५३॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः पृथिव्यादिभ्यो भूतेभ्यस्तज्जायाः सृष्टेश्च सकाशाद् बलपराक्रमौ वर्द्धनीयौ तद्योगेन च विमानादीनि यानानि निर्मातव्यानि॥५३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिए, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन्! आप (दिवः) सूर्य और (पृथिव्याः) पृथिवी से (उद्भृतम्) उत्कृष्टता से धारण किये (ओजः) पराक्रम को (परि, यज) सब ओर से दीजिए (वनस्पतिभ्यः) वट आदि वनस्पतियों से (आभृतम्) अच्छे प्रकार पुष्ट किये (सहः) बल को (परि) सब ओर से दीजिए (अपाम्) जलों के सम्बन्ध से (ओज्मानम्) पराक्रम वाले रस को (परि) चारों ओर से दीजिए तथा (इन्द्रस्य) सूर्य को (गोभिः) किरणों से (आवृतम्) युक्त चिलकते हुए (वज्रम्) वज्र के तुल्य (रथम्) यान को (हविषा) ग्रहण से सङ्गत कीजिए॥५३॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिए कि पृथिवी आदि भूतों और उनसे उत्पन्न हुई सृष्टि के सम्बन्ध से बल और पराक्रमों को बढ़ावें और उनके योग से विमान आदि यानों को बनाया करें॥५३॥

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    विषय

    नाना दृष्टान्तों से सारभाग प्राप्त करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    (दिवः) सूर्य या धौलोक, आकाश से और (पृथिव्याः) पृथिवी से सब प्रकार का (ओजः) बल और पराक्रम (परिभृतं उद्ध्रितं च ) प्राप्त किया जाता और उत्पन्न किया जाता है और (वनस्पतिभ्यः) वट आदि वृक्षों से भी (सहः) शत्रुओं के विजय करने में समर्थ बल को ( परि आभृतम् ) संग्रह किया जाय । इसी प्रकार ( अपाम् ) जलों के ( ओज्मानम् ) बल को (परि) सब तरफ से एकत्र करके प्राप्त कर | (इन्द्रस्य) सूर्य के (गोभि:) किरणों से ( आभृतम् ) घिरे हुए ( वज्रम् ) प्रकाशमय तीक्ष्ण ताप रूप वज्र को भी ( हविषा ) ग्रहण करने वाले उपाय द्वारा ( रथम् ) रथ या रस, या सार को (यज) प्राप्त कर । (२) राष्ट्र पक्ष में- (दिवः) आकाश से जैसे सूर्य का प्रकाश रूप ओज प्राप्त होता है वैसे ज्ञानी पुरुषों से विज्ञान प्राप्त करो । पृथिवी से जैसे अन्न उत्पन्न किया जाता है वैसे पृथिवी निवासी प्रजा से अन्न संग्रह करो । वनस्पतियों से जैसे औषधसंग्रह किया जाता है वैसे प्रजा पालक माण्डलिक राजाओं से शत्रुओं का पराजयकारी सेनाबल संग्रह करो । जलों से जैसे नहरें एवं यन्त्रों के चलाने का बल प्राप्त किया जाता है वैसे आप्त प्रजाओं से पुरुष- बल प्राप्त किया जाय । सूर्य की किरणों से जैसे आतशी शीसे वा ता द्वारा तेज प्राप्त किया जाता है वैसे (इन्द्रस्य) सेनापति की (गोभिः ) आज्ञाओं द्वारा ( आवृतम् ) छिपे ( वज्रम् ) बल वीर्य को ( रथम् ) साररूप रस के समान, या शिल्पी जैसे रथ के नाना अंग जोड़कर रथ बनाता है वैसे (यज) उन सब बलों को प्राप्त करके ( हविषा ) उपाय से, संयोजित कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वीरः । विराड जगती । निषादः ॥

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    विषय

    ओजोभरण हविर्यजन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के शरीररूप रथ में (दिवः) = मस्तिष्करूप द्युलोक का तथा (पृथिव्या:) = पृथिवीरूप शरीर का (ओजः) = बल (परि) = सब प्रकार से (उद्धृतम्) = प्रकर्षपूर्वक पोषित किया गया है, अर्थात् यह ध्यान किया गया है कि मस्तिष्क में जितने ज्ञान का पोषण हो सकता है, वह किया जाए और शरीर को जितना भी सबल बनाया जा सकता है बनाया जाए। २. इसी उद्देश्य से इसमें (वनस्पतिभ्यः) = वनस्पतियों के द्वारा (सह:) = सहनशक्ति बढ़ानेवाला बल (पर्याभृतम्) = सब ओर से अच्छी प्रकार लाया गया है, अर्थात् वनस्पतियों के सेवन से इसमें उस बल की वृद्धि हुई है जिसके कारण इसमें सहनशक्ति है, यह शीघ्रता से क्रोध में नहीं आ जाता। ३. (अपाम्) = [आप: रेतः] रेतस् कणों के वीर्य-बिन्दुओं के (ओज्मानम्) = बल का पुंज यह (रथम्) = शरीररूप रथ (गोभिः) = गोदुग्धों से (परि आवृतम्) = अङ्ग प्रत्यङ्ग में वृत हुआ है, अर्थात् जिसके अङ्गों का निर्माण दूध से हुआ है, दूध को पीकर जिसके अङ्ग सुन्दर बने हैं अथवा जो रथ (गोभिः) = ज्ञान की किरणों से आवेष्टित है। यह शरीर (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (वज्रम्) = वज्रतुल्य दृढ़ है [ यदश्नामि बलं कुर्व इत्थं वज्रमाददे ] इस शरीर रथ को (हविषा) = हवि से यज-सङ्गत कर, अर्थात् यह सदा हवि का सेवन करनेवाला हो, दानपूर्वक अदन करनेवाला हो। इस हवि से ही तो हम प्रभु की भी अर्चना कर पाते हैं, अतः हम सदा दानपूर्वक अदन करनेवाले बनें। इस यज्ञशेष के सेवन से यह रथ अमृत बनेगा, रोगों का शिकार न होगा।

    भावार्थ

    भावार्थ - इस शरीर - रथ में हम मस्तिष्क को ज्ञानपूर्ण करें, शरीर को बल-सम्पन्न बनाएँ। वनस्पतियों के सेवन से सहनशील बनें। रेतस् कणों की रक्षा से ओजस्वी बनें। ज्ञानकिरणों से प्रकाशित इस रथ को जितेन्द्रियता द्वारा वज्रतुल्य बनाएँ और सदा यज्ञशेष का सेवन करनेवाले बनें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी पृथ्वी इत्यादी पंचमहाभूतापासून शक्ती प्राप्त करावी व पराक्रमी बनावे आणि त्या योगे विमान वगैरे याने तयार करावीत.

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    विषय

    मनुष्यांनी काय केले पाहिजे, या विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान, आपण (दिवः) सूर्य आणि (पृथिव्याः) पृथ्वीपासून (घद्घृतम्) जे तेज आणि (ओजः) पराक्रम (परि, यज) घेतले आहे, (त्यातील थोडा भाग) आम्हांस द्या (आम्हा सामान्यांना तेजस्वी व पराक्रमी बनवा) तसेच (वनस्पतिभ्यः) वर आदी वनस्पतीपासून (अभृतम्) घेतलेल्या पुष्टिकारक (सहः) शक्तीपैकी (थोडा भाग) (परि) सर्वतः) आम्हांस द्या (आम्हास शक्तिमान करा) तसेच (अपाम्) जल आदी इतर पौष्टिक (ओज्मानम्) पराक्रम देणारे रसांचे (परि) सर्वतः) सेवन करू द्या. तसेच (इन्द्रस्य) सूर्याच्या (गोभिः) किरणांनी (आवृतम्) चमक वा प्रभा दिलेल्या (वज्रम्) वज्राप्रमाणे (रथम्) आपल्या यानाला (हविषा) आवश्यक त्या पदार्थांनी युक्त करा (इंधन, जल, अग्नीशक्तीचा भरपूर संग्रह असू द्या.) ॥53॥

    भावार्थ

    भावार्थ – मनुष्यांसाठी हे हिताचे आहे की त्यांनी पंचभूतापासून आणि त्यापासून उत्पन्न सृष्टीतील पदार्थ वा ऊर्जा शक्तीचा वापर करून आपली शक्ती व पराक्रम वाढवावा आणि त्याद्वारे विमान आदी यानांची निर्मिती करावी ॥53॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, give us the vitality possessed by the Sun and Earth, the strength of trees, the vitalising juice of waters. Fill thy car with warlike weapons shining like the suns rays.

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    Meaning

    Man of knowledge and power, receive, cultivate and socially promote the light and energy emanating from the sun and earth. Receive, cultivate and promote the strength, courage and endurance emanated from the trees. Cultivate and promote the energy of the waters. Refine and strengthen the chariot invincible as thunder and blazing with the rays of the sun, and develop it further by sacrifice and investment.

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    Translation

    Show full respect to the chariot replete with synthesis of basic elements of heaven and earth — the divine extracted essence of the forest wood. It possesses the velocity of waters, and is encompassed with cow-hide and the thunderbolt. (1)

    Notes

    Divah, from heaven, the sky. Ojaḥ, strength. Sahaḥ, power of endurance; firmness. Gobhiḥ, गोविकारै:, with sinews and leather straps. 1 Yaja, show respect to; take care of.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মনুষ্যৈঃ কিং কর্ত্তব্যমিত্যাহ ॥
    পুনঃ মনুষ্যদিগকে কী করা উচিত, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে বিদ্বন্! আপনি (দিবঃ) সূর্য্য ও (পৃথিব্যাঃ) পৃথিবী দ্বারা (উদ্ধৃতম্) উৎকৃষ্টতা পূর্বক ধৃত (ওজঃ) পরাক্রমকে (পরি, য়জ) সব দিক দিয়া প্রদান করুন । (বনস্পতিভ্যঃ) বটাদি বনস্পতি দ্বারা (আভৃতম্) উত্তম প্রকার পুষ্ট কৃত (সহঃ) বলকে (পরি) সব দিক দিয়া প্রদান করুন । (অপাম্) জলের সম্পর্ক দ্বারা (ওজ্মানম্) পরাক্রম যুক্ত রসকে (পরি) চারি দিক দিয়া প্রদান করুন তথা (ইন্দ্রম্) সূর্য্যের (গোভিঃ) কিরণ দ্বারা (আবৃতম্) যুক্ত কিরণ দ্বারা আচ্ছাদিত (বজ্রম্) বজ্রের তুল্য (রথম্) যানকে (হবিষা) গ্রহণ দ্বারা সঙ্গত করুন ॥ ৫৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের উচিত যে, পৃথিবী আদি ভুতসমূহ এবং তাহা হইতে উৎপন্ন সৃষ্টির সম্পর্ক দ্বারা বজ্র ও পরাক্রমকে বৃদ্ধি করিবে এবং তাহাদের যোগ দ্বারা বিমানাদি যানগুলিকে নির্মাণ করিবে ॥ ৫৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দি॒বঃ পৃ॑থি॒ব্যাঃ পর্য়োজ॒ऽউদ্ভৃ॑তং॒ বন॒স্পতি॑ভ্যঃ॒ পর্য়্যাভৃ॑ত॒ꣳ সহঃ॑ ।
    অ॒পামো॒জ্মানং॒ পরি॒ গোভি॒রাবৃ॑ত॒মিন্দ্র॑স্য॒ বজ্র॑ꣳ হ॒বিষা॒ রথং॑ য়জ ॥ ৫৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দিব ইত্যস্য ভারদ্বাজ ঋষিঃ । বীরো দেবতা । বিরাট্ জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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