अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 107/ मन्त्र 7
ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-१०७
58
यदि॑ चि॒न्नु त्वा॒ धना॒ जय॑न्तं॒ रणे॑रणे अनु॒मद॑न्ति॒ विप्राः॑। ओजी॑यः शुष्मिन्त्स्थि॒रमा त॑नुष्व॒ मा त्वा॑ दभन्दु॒रेवा॑सः क॒शोकाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । चि॒त् । नु । त्वा॒ । धना॑ । जय॑न्तम् । रणे॑ऽरणे । अ॒नु॒मद॑न्ति । विप्रा॑: ॥ ओजी॑य: । शु॒ष्मि॒न् । स्थि॒रम् । आ । त॒नु॒ष्व॒ । मा । त्वा॒ । द॒भ॒न् । दु॒:ऽएवा॑स: । क॒शोका॑: ॥१०७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
यदि चिन्नु त्वा धना जयन्तं रणेरणे अनुमदन्ति विप्राः। ओजीयः शुष्मिन्त्स्थिरमा तनुष्व मा त्वा दभन्दुरेवासः कशोकाः ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । चित् । नु । त्वा । धना । जयन्तम् । रणेऽरणे । अनुमदन्ति । विप्रा: ॥ ओजीय: । शुष्मिन् । स्थिरम् । आ । तनुष्व । मा । त्वा । दभन् । दु:ऽएवास: । कशोका: ॥१०७.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(यदि) जो (चित्) निश्चय करके (विप्राः) पण्डित जन (रणेरणे) प्रत्येक रण में (नु) शीघ्र (धना) धनों को (जयन्तम्) जीतनेवाले (त्वा) तेरे (अनुमदन्ति) पीछे-पीछे आनन्द पाते हैं। (शुष्मिन्) हे बलवन् परमात्मन् ! (ओजीयः) अधिक बलवान् (स्थिरम्) स्थिर मोक्ष सुख (आ) सब ओर से (तनुष्व) फैला, (दुरेवासः) दुष्ट गतिवाले (कशोकाः) परसुख में शोक करनेवाले जन (त्वा) तुझको (मा दभन्) न सतावें ॥७॥
भावार्थ
बुद्धिमान् मनुष्य विघ्नों को हटाकर कठिन-कठिन कार्य सिद्ध करके स्थिर सुख पाते हैं ॥७॥
टिप्पणी
४-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ।२।१-९ ॥
विषय
धन के साथ प्रभु-स्मरण
पदार्थ
१. (यदि चत् नु) = यदि निश्चय से अब (रणे रणे) = प्रत्येक संग्राम में (धना जयन्तं त्वा) = धनों का विजय करानेवाले आपको (विप्रा:) = ये ज्ञानी पुरुष (अनुमदन्ति) = प्रतिदिन स्तुत करते हैं तो हे (शुष्मिन्) = शत्रु-शोषक बलोंवाले प्रभो! इन उपासकों में (ओजीयः) = ओजस्विता से पूर्ण (स्थिरम्) = स्थिर धन को (आतनुष्व) = विस्तृत कीजिए। वस्तुत: प्रभु-उपासना होने पर धन के विजय का अहंकार नहीं होता, विषयों की ओर झुकाव न होकर ओजस्विता बनी रहती है तथा धन का विषयों में विनाश भी नहीं हो जाता। २. हे प्रभो! इन धनों के कारण (दरेवा:) = दुर्गमनवाले (कशोका:) = विनाशक भाव [to destroy] अथवा अभिमान के प्रलाप [to serend] (त्वा मा दभन्) = आपके स्मरण को हमारे हृदयों से हिंसित न कर दें। हम धनों के गर्व में अभिमानयुक्त होकर घातपात की क्रियाओं में न लग जाएँ।
भावार्थ
हम धनों को प्रभु से प्राप्त कराया जाता हुआ जानें। ये धन हमारी ओजस्विता व चित्तवृत्ति की स्थिरता को नष्ट करनेवाले न हों। धनों के अहंकार में विषय-प्रवण होकर हम प्रभु को भूल ही न जाएँ।
भाषार्थ
हे उपासक! (रणे-रणे) प्रत्येक देवासुर-संग्राम में (धना) आध्यात्मिक-धनों पर (जयन्तम्) विजय प्राप्त करते हुए (त्वा) तेरा, (यदि चित् नु) यदि (विप्राः) मेधावी उपासक, (अनुमदन्ति) अनुमोदन करते हैं, तब (शुष्मिन्) हे आध्यात्मिक बलवाले उपासक! तू (स्थिरम्) दृढ़ता पूर्वक (ओजीयः) अधिकाधिक ओज (तनुष्व) योगाभ्यास में फैलाता जा, ताकि (दुरेवासः) दुष्परिणाम पैदा करनेवाले (कशोकाः) कुत्सित-शोक-सन्ताप (त्वा) तुझे (मा दभन्) दबा न पाएँ।
टिप्पणी
[दुरेवासः=दूर्+ई+वनिप्+असुन्। कशोकाः=क+शोकाः=कुत्सिते “कः”, तस्य च पूर्वप्रयोगः छान्दसः अथवा “कुशोकाः”।]
विषय
परमेश्वर।
भावार्थ
(४-१२) ये ९ मन्त्र देखो अथर्व० का० ५। २। १-९॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१-३ वत्सः, ४-१२ बृहद्दिवोऽथर्वा, १३-१४ ब्रह्मा, १५ कुत्सः। देवता—१-१२ इन्द्र, १३-१५ सूर्यः। छन्दः—१-३ गायत्री, ४-१२,१४,१५ त्रिष्टुप, १३ आर्षीपङ्क्ति॥
इंग्लिश (4)
Subject
Agni Devata
Meaning
Thus with joy on every happy occasion of life, grateful people and vibrant sages celebrate you, winner, creator and giver of wealth and excellence. Illustrious lord of shattering power, expand the commonwealth of permanent values. Let not the crooked and fiendish forces on the prowl suppress the creative gifts of divine generosity.
Translation
O Powerful, bold mighty God, in you, the winner of all the riches, these learned men are joyful on the occasions of festivity. You spread firmness in the world and the malignant and evil forces can never overpower you.
Translation
O Powerful, bold mighty God, in you, the winner of all the riches, these learned men are joyful on the occasions of festivity. You spread firmness in the world and the malignant and evil forces can never overpower you.
Translation
See Atharva, 5.2. 5
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ।२।१-९ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
১-১২ পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(যদি) যে (চিৎ) নিশ্চিতরূপে (বিপ্রাঃ) পণ্ডিতগণ (রণেরণে) প্রত্যেক রণে/সংগ্রামে (নু) শীঘ্র (ধনা) ধন-সম্পদ (জয়ন্তম্) জয়কারী (ত্বা) তোমার (অনু মদন্তি) পেছনে পেছনে আনন্দ প্রাপ্ত করে। (শুষ্মিন্) হে বলবন্ পরমাত্মন্ ! (ওজীয়ঃ) অধিক বলবান্ (স্থিরম্) স্থির মোক্ষ সুখ (আ) সব দিক থেকে (তনুষ্ব) বিস্তৃত করো। (দুরেবাসঃ= দুরেবাঃ) দুষ্ট গতিসম্পন্ন (কশোকাঃ) পরসুখে শোকাকূল মনুষ্য (ত্বা) তোমাকে যেন (মা দভন্) উত্যক্ত না করে ॥৭॥
भावार्थ
বুদ্ধিমান্ মনুষ্য বিঘ্ন দূর করে কঠিন-কঠিন কার্য সিদ্ধ করে স্থির সুখ প্রাপ্ত করে ॥৭॥
भाषार्थ
হে উপাসক! (রণে-রণে) প্রত্যেক দেবাসুর-সংগ্রামে (ধনা) আধ্যাত্মিক-ধনের ওপর (জয়ন্তম্) বিজয় প্রাপ্ত করে (ত্বা) তোমার, (যদি চিৎ নু) যদি (বিপ্রাঃ) মেধাবী উপাসক, (অনুমদন্তি) অনুমোদন করে, তবে (শুষ্মিন্) হে আধ্যাত্মিক বলসম্পন্ন উপাসক! তুমি (স্থিরম্) দৃঢ়তা পূর্বক (ওজীয়ঃ) অধিকাধিক ওজ (তনুষ্ব) যোগাভ্যাসে বিস্তৃত হও/এগিয়ে যাও, যাতে (দুরেবাসঃ) দুষ্পরিণাম উৎপন্নকারী (কশোকাঃ) কুৎসিত-শোক-সন্তাপ (ত্বা) তোমাকে (মা দভন্) না দমন করতে পারে।
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