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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 107 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 107/ मन्त्र 9
    ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१०७
    38

    नि तद्द॑धि॒षेऽव॑रे॒ परे॑ च॒ यस्मि॒न्नावि॒थाव॑सा दुरो॒णे। आ स्था॑पयत मा॒तरं॑ जिग॒त्नुमत॑ इन्वत॒ कर्व॑राणि॒ भूरि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । तत् । द॒धि॒षे॒ । अव॑रे । परे॑ । च॒ । यस्म‍ि॑न् । आवि॑थ । अव॑सा । दु॒रो॒णे ॥ आ । स्था॒प॒य॒त॒ । मा॒तर॑म् । जि॒ग॒त्नु॒म् । अत॑: । इ॒न्व॒त॒ । कर्व॑राणि । भूरि॑ ॥१०७.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि तद्दधिषेऽवरे परे च यस्मिन्नाविथावसा दुरोणे। आ स्थापयत मातरं जिगत्नुमत इन्वत कर्वराणि भूरि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि । तत् । दधिषे । अवरे । परे । च । यस्म‍िन् । आविथ । अवसा । दुरोणे ॥ आ । स्थापयत । मातरम् । जिगत्नुम् । अत: । इन्वत । कर्वराणि । भूरि ॥१०७.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    १-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमात्मन् !] (अवरे) छोटे (च) और (परे) बड़े मनुष्य में (तत्) उस [घर] को (नि) निश्चय करके (दधिषे) तूने पोषण किया है, (यस्मिन्) जिस (दुरोणे) कष्ट से भरने योग्य घर में (अवसा) अन्न से (आविथ) तूने रक्षा की है। [हे मनुष्यो !] (जिगत्नुम्) सर्वव्यापक (मातरम्) माता [परमेश्वर] को (आ) भली-भाँति (स्थापयत) [हृदय में] ठहराओ और (अतः) इसी से (भूरि) बहुत से (कर्वराणि) कर्मों को (इन्वत) सिद्ध करो ॥९॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर की उपासनापूर्वक अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करके अपने सब काम सिद्ध करें ॥९॥

    टिप्पणी

    ४-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ।२।१-९ ॥

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    विषय

    'अवर व पर' धन

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! (यस्मिन् दुरोणे) = जिस यज्ञशील पुरुष के इस शरीररूप गृह में (अवसा) = [protection, food, wealth] रक्षण के द्वारा, उत्तम भोजन के द्वारा तथा न्याय्य धनों के द्वारा (आविथ) = आप रक्षण करते हो (तत्) = उस शरीरगृह को आप (अवरे) = निचले शक्तिरूप धन में (च) = तथा परे उत्कृष्ट ज्ञान-धन में (निदधिषे) = निश्चय से स्थापित करते हो। यह बल-[क्षत्र] रूप धन हमें रोगों से बचाता है और ज्ञान-[ब्रह्म]-रूप धन वासनाओं से आक्रान्त नहीं होने देता। २. हे प्रभो! आपका हमें यही उपदेश है कि (जिगत्नुम्) = गतिशील बनानेवाली (मातरम्) = वेदमाता : को (आस्थापयत) = अपने में स्थापित करो, (अत:) = इस वेदमाता के अपने में स्थापन से (भूरि) = खूब ही (कर्वराणि) = कर्मों को (इन्वत) = व्यास करो। वस्तुत: यह वेदमाता उसी प्रकार हमें कर्मों की प्रेरणा देती है जैसे एक माता अपने शिशु को।

    भावार्थ

    प्रभु हमें शक्ति व ज्ञान प्राप्त कराते हैं। प्रभु इस वेदमाता के द्वारा हमें कर्मों की प्रेरणा देते हैं।

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    भाषार्थ

    हे परमेश्वर! (अवरे) अवरकालीन (च) और (परे) पूर्वकालीन (यस्मिन् दुरोणे) जिस हृदय-गृह में, (अवसा) उपासक की रक्षा की दृष्टि से (आविथ) आप प्रवेश कर लेते हैं, (तत्) उस उपासक का आप (नि दधिषे) पूर्णतया धारण-पोषण करते हैं। इसलिए हे उपासको! तुम (जिगत्नुम्) सर्वविजयी (मातरम्) तथा मातृवत् स्नेहकारी परमेश्वर को अपने हृदय-मन्दिरों में (आ स्थापयत) स्थापित करो। और (अतः) इस माता से प्रेरणाएँ पाकर, (भूरि) प्रभूत (कर्वराणि) श्रेष्ठ कर्मों को (इन्वत) करो। [कर्वराणि=कृ+वर।]

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    विषय

    परमेश्वर।

    भावार्थ

    (४-१२) ये ९ मन्त्र देखो अथर्व० का० ५। २। १-९॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१-३ वत्सः, ४-१२ बृहद्दिवोऽथर्वा, १३-१४ ब्रह्मा, १५ कुत्सः। देवता—१-१२ इन्द्र, १३-१५ सूर्यः। छन्दः—१-३ गायत्री, ४-१२,१४,१५ त्रिष्टुप, १३ आर्षीपङ्क्ति॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Agni Devata

    Meaning

    You sustain this visible world of physical reality and the other invisible world of meta-physical and spiritual reality in which you maintain and protect everything with your might in their very home. And you hold and stabilise the revolving motherly earth and heaven, inspire many great actions therein and see them accomplished.

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    Translation

    O Almighty God, you in that house which is distant and which is near (i.e. the earth and heaven)guard with protection and grain. O men, you establish God who is the mother of all and the most victorious power in your heart and you through Him bring many deeds to completion.

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    Translation

    O Almighty God, you in that house which is distant and which is near (i.e. the earth and heaven)guard with protection and grain. O men, you establish God who is the mother of all and the most victorious power in your heart and you through Him bring many deeds to completion.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४-१२−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अथ० ।२।१-९ ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ১-১২ পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে পরমাত্মন্ !] (অবরে) ছোটো (চ)(পরে) বড়ো মনুষ্যের মধ্যে (তৎ) সেই [ঘর] কে (নি) নিশ্চিতরূপে (দধিয়ে) তুমি পোষণ করেছো। (যস্মিন্) যে (দুরোণে) কষ্টের ঘরে (অবসা) অন্ন দ্বারা (আবিথ) তুমি রক্ষা করেছো। [হে মনুষ্যগণ !] (জিগত্নুম্) সর্ব ব্যাপক (মাতরম্) মাতা [পরমেশ্বর]-কে (আ) উত্তমরূপে (স্থাপয়ত) [হৃদয়ে] স্থাপন করো এবং (অতঃ) এর দ্বারা (ভূরি) বহু/বিবিধ (কর্বরাণি) কর্ম (ইন্বত) সিদ্ধ করো ॥৯॥

    भावार्थ

    মনুষ্য পরমেশ্বরের উপাসনাপূর্বক অন্নাদি পদার্থ প্রাপ্ত করে, নিজের সব কার্য সিদ্ধ করুক ॥৯॥

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    भाषार्थ

    হে পরমেশ্বর! (অবরে) অবরকালীন (চ) এবং (পরে) পূর্বকালীন (যস্মিন্ দুরোণে) যে হৃদয়-গৃহে, (অবসা) উপাসকের রক্ষার দৃষ্টিতে (আবিথ) আপনি প্রবেশ করেন, (তৎ) সেই উপাসকের আপনি (নি দধিষে) পূর্ণরূপে ধারণ-পোষণ করেন। এইজন্য হে উপাসকগণ! তোমরা (জিগত্নুম্) সর্ববিজয়ী (মাতরম্) তথা মাতৃবৎ স্নেহকারী পরমেশ্বরকে নিজের হৃদয়-মন্দিরে (আ স্থাপয়ত) স্থাপিত করো। এবং (অতঃ) এই মাতা থেকে প্রেরণা প্রাপ্ত করে, (ভূরি) প্রভূত (কর্বরাণি) শ্রেষ্ঠ কর্ম (ইন্বত) করো। [কর্বরাণি=কৃ+বর।]

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