अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 10
ऋषिः - अथर्वा
देवता - मधु, अश्विनौ
छन्दः - परोष्णिक्पङ्क्तिः
सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
60
स्त॑नयि॒त्नुस्ते॒ वाक्प्र॑जापते॒ वृषा॒ शुष्मं॑ क्षिपसि॒ भूम्या॒मधि॑। अ॒ग्नेर्वाता॑न्मधुक॒शा हि ज॒ज्ञे म॒रुता॑मु॒ग्रा न॒प्तिः ॥
स्वर सहित पद पाठस्त॒न॒यि॒त्नु: । ते॒ । वाक् । प्र॒जा॒ऽप॒ते॒ । वृषा॑ । शुष्म॑म् । क्षि॒प॒सि॒ । भूम्या॑म् । अधि॑ । अ॒ग्ने: । वाता॑त् । म॒धु॒ऽक॒शा । हि । ज॒ज्ञे । म॒रुता॑म् । उ॒ग्रा । न॒प्ति: ॥१.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तनयित्नुस्ते वाक्प्रजापते वृषा शुष्मं क्षिपसि भूम्यामधि। अग्नेर्वातान्मधुकशा हि जज्ञे मरुतामुग्रा नप्तिः ॥
स्वर रहित पद पाठस्तनयित्नु: । ते । वाक् । प्रजाऽपते । वृषा । शुष्मम् । क्षिपसि । भूम्याम् । अधि । अग्ने: । वातात् । मधुऽकशा । हि । जज्ञे । मरुताम् । उग्रा । नप्ति: ॥१.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(प्रजापते) हे प्रजापालक ! [परमेश्वर !] (ते) तेरी (वाक्) वाणी (स्तनयित्नुः) मेघ की गर्जन [समान] है, (वृषा) तू ऐश्वर्यवान् होकर (शुष्मम्) बल को (भूम्याम्) भूमि पर (अधि) अधिकारपूर्वक (क्षिपसि) फैलाता है। (मरुताम्) शूर पुरुषों की (उग्रा) प्रबल (नप्तिः) न गिरनेवाली शक्ति, (मधुकशा) मधुकशा [ब्रह्मविद्या] (हि) ही (अग्नेः) अग्नि से और (वातात्) वायु से (जज्ञे) प्रकट हुई है ॥१०॥
भावार्थ
परमात्मा की वेदवाणी स्पष्टरूप से संसार का हित करती है ॥१०॥ इस मन्त्र का उत्तर भाग मन्त्र ३ में ऊपर आया है ॥
टिप्पणी
१०−(स्तनयित्नुः) अ० १।१३।१। मेघशब्द इव (ते) तव (वाक्) मधुकशा (प्रजापते) हे प्रजारक्षक परमात्मन् (वृषा) अ० १।१२।१। ऐश्वर्यवान् (शुष्मम्) बलम्-निघ० २।९। (क्षिपसि) प्रसारयसि (भूम्याम्) (अधि) अधिकृत्य। अन्यत् पूर्ववत्-म० ३ ॥
विषय
ज्ञान+शक्ति [वाक् शुष्मम्]
पदार्थ
१. हे (प्रजापते) = प्रजाओं के रक्षक प्रभो! (ते वाक्) = आपकी वाणी (स्तनयित्नु:) = मेष-गर्जना के समान है [हरिरेति कनिक्रदत्०], सबसे सुनने के योग्य है, परन्तु दौर्भाग्यवश सामान्यत: लोग इसे सुनते नहीं। (वृषा) = शक्तिशाली आप (भूम्याम्) = हमारे शरीरों में (शुष्मं अधिक्षपसि) = शक्ति प्रेरित करते हैं। २. (मधुकशा) = मधुरता से ज्ञान का उपदेश करनेवाली वेदवाणी (अग्नेः वातात् हि जज्ञे) = अग्नि-वायु आदि पदार्थों के ज्ञान के हेतु से ही प्रादुर्भूत की गई है। प्रभु ने इन पदार्थों को प्राप्त कराया है तथा वेदवाणी द्वारा इनका ज्ञान दिया है। यह वेदवाणी (मरुताम्) = प्राणसाधकों की उग्रा नप्ति:-तेजस्विनी वन गिरने देनेवाली शक्ति है। वेदवाणी द्वारा ये प्राणसाधक सदा उत्थान के पद पर ही चलते हैं।
भावार्थ
प्रभु की वाणी मेष-गर्जना के समान है। उसे न सुनना हमारा दुर्भाग्य ही है। प्रभु हमें शक्ति प्राप्त कराते हैं और अग्नि, वायु आदि पदार्थों का वेदवाणी द्वारा ज्ञान देते हैं। यह वेदवाणी प्राणसाधक पुरुषों को तेजस्वी व उन्नत बनाती है।
भाषार्थ
(प्रजापते) हे प्रजाओं के पति परमेश्वर ! (स्तनयित्नुः) मेघगर्जन (ते) तेरी (वाक्) वाणी है, (वृषा) वर्षा करने वाला तू (भूम्याम् अधि) भूमि पर (शुष्मम्) बलशाली जल (क्षिपसि) फैंकता है। (अग्नेः वातात्) अग्नि से और वायु से (हि) वस्तुतः (मधुकशा) मीठी-चाबुक (जज्ञे) प्रादुर्भूत होती है, जोकि (मरुताम्) मानसून वायु की (उग्रा नप्तिः) उग्रा नाती है।
टिप्पणी
[प्रजापति द्वारा परमेश्वर का वर्णन हुआ है, जिसे कि पूर्व के मन्त्रों में परमेश्वरी माता कहा है। इसे दर्शाने के लिये मन्त्र के उत्तरार्थ में मधुकशा का वर्णन हुआ है। उत्तरार्ध के लिये देखो मन्त्र (३)। मन्त्र ८, ९, १० में मधुकशा द्वारा विद्युत् का वर्णन मुख्यरूप में हुआ है। परन्तु इसी मन्त्र में प्रजापति के भी वर्णन द्वारा प्रजापति तथा विद्युत् का पारस्परिक सम्बन्ध भी द्योतित किया है। शुष्मम् बलनाम (निघं० २।९) अर्थात् प्रजापति ही मेघ और विद्युत द्वारा वर्षा कराता है]
विषय
मधुकशा ब्रह्मशक्ति का वर्णन।
भावार्थ
हे (प्रजापते) प्रजापते परमात्मन् ! (ते वाक्) तेरी वाणी (स्तनयित्नुः) मेघ की गर्जना के समान गम्भीर, पिपासितों के हृदय में शान्तिप्रद और प्रजाजन को आश्वासन देनेवाली है। हे परमात्मन् ! तू ही (वृषा) वर्षणशील मेघ के समान समस्त सुखों को वर्षाने हारा, (भूम्याम् अधि) भूमि पर (शुष्मम्) अपने महान् बल को जल और विद्युत् के रूप में (क्षिपसि) नीचे फेंकता है। और वह (मधुकशा) मधुर रससे भरी मधु-लता जिस प्रकार (अग्नेः वातात्) अग्नि=विद्युत् और वात=वायु से मेघ जल प्राप्त करके उत्पन्न होती है उसी प्रकार इस हृदयभूमि में हे प्रभो ! आप अपना ज्ञान-बल और प्रेरणाबल फेंकते हो और (अग्नेः वातात्) तेरा ज्ञानमय स्वरूप और प्राणमय बल के ध्यान और प्राणायाम के अभ्यास से वह (मधुकशा) ब्रह्मरस से भरी आनन्द-मधुवल्ली (जज्ञे) प्रादुर्भूत होती है। वह ही (मरुताम्) प्राणों की (उग्रा) अति बलशालिनी (नप्तिः) बांधनेवाली आश्रय है। वही परम चेतना है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मधुकशा, अश्विनौ च देवताः। मधुसूक्तम्। १, ४, ५ त्रिष्टुभः। २ त्रिष्टुब्गर्भापंक्तिः। ३ पराऽनुष्टुप्। ६ यवमध्या अतिशाक्वरगर्भा महाबृहती। ७ यवमध्या अति जागतगर्भा महाबृहती। ८ बृहतीगर्भा संस्तार पंक्तिः। १० पराउष्णिक् पंक्तिः। ११, १३, १५, १६, १८, १९ अनुष्टुभः। १४ पुर उष्णिक्। १७ उपरिष्टाद् बृहती। २० भुरिग् विस्तारपंक्तिः २१ एकावसाना द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्। २२ त्रिपदा ब्राह्मी पुर उष्णिक्। २३ द्विपदा आर्ची पंक्तिः। २४ त्र्यवसाना षट्पदा अष्टिः। ९ पराबृहती प्रस्तारपंक्तिः॥
इंग्लिश (4)
Subject
Madhu Vidya
Meaning
O Prajapati, father and sustainer of living beings, the thunder and cloud is your language of power and generosity by which, generous lord, you send showers of strength and vitality on the earth. That thunder and lightning is the madhukasha of divinity with its gifts of food, energy and vitality, which arises spontaneously from fire and wind, lustrous child, in truth, of cosmic energy in fire and wind roaring with thunder.
Translation
O Lord of creature, thunder is your voice. You, O showerer, shower energy on earth and sky. Surely the honéy-string, the formidable daughter of the cloud-bearing winds (marutam naptih) is born from fire and wind.
Translation
O Lord of the creatures! thunder is thy voice (inarticulate).Thou art the giver of all prosperity and thou castest thy vigor on the earth. Madkukasha comes out from fire, air and it is binding force of gusts of winds.
Translation
O Lord of creatures, Thy Vedic speech assuages the hearts of men, as a thundering cloud moistens, the earth with rain. Through Thy supremacy. Thou castest vigor on the earth. Unfailing Vedic knowledge, the mighty resort of the valiant is realized in the shape of fire and wind.
Footnote
See the second part of verse 3 of this hymn.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(स्तनयित्नुः) अ० १।१३।१। मेघशब्द इव (ते) तव (वाक्) मधुकशा (प्रजापते) हे प्रजारक्षक परमात्मन् (वृषा) अ० १।१२।१। ऐश्वर्यवान् (शुष्मम्) बलम्-निघ० २।९। (क्षिपसि) प्रसारयसि (भूम्याम्) (अधि) अधिकृत्य। अन्यत् पूर्ववत्-म० ३ ॥
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