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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 13
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मधु, अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
    58

    यथा॒ सोम॑स्तृ॒तीये॒ सव॑न ऋभू॒णां भ॑वति प्रि॒यः। ए॒वा म॑ ऋभवो॒ वर्च॑ आ॒त्मनि॑ ध्रियताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । सोम॑: । तृतीये॑ । सव॑ने । ऋ॒भू॒णाम् । भव॑ति । प्रि॒य: । ए॒व । मे॒ । ऋ॒भ॒व॒: । वर्च॑: । आ॒त्मनि॑ । ध्रि॒य॒ता॒म् ॥१.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा सोमस्तृतीये सवन ऋभूणां भवति प्रियः। एवा म ऋभवो वर्च आत्मनि ध्रियताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । सोम: । तृतीये । सवने । ऋभूणाम् । भवति । प्रिय: । एव । मे । ऋभव: । वर्च: । आत्मनि । ध्रियताम् ॥१.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यथा) जैसे (सोमः) ऐश्वर्यवान् [वृद्ध पुरुष] (तृतीये सवने) तीसरे यज्ञ [वृद्ध अवस्था] में (ऋभूणाम्) बुद्धिमानों का (प्रियः) प्रिय (भवति) होता है। (एव) वैसे ही (ऋभवः) हे बुद्धिमानो ! (मे आत्मनि) मेरे आत्मा में (वर्चः) प्रकाश (ध्रियताम्) धरा जावे ॥१३॥

    भावार्थ

    मनुष्य प्रयत्न करें कि उत्तम शिक्षण और परीक्षण से वे वृद्धपन में माननीय होवें ॥१३॥

    टिप्पणी

    १३−(सोमः) ऐश्वर्यवान्। वृद्धपुरुषः (तृतीये) शैशवयौवनवार्धकानां पूरके (सवने) यज्ञे। वृद्धभाव इत्यर्थः। (ऋभूणाम्) अ० १।२।३। मेधाविनाम्-निघ० ३।१५। (ऋभवः) हे मेधाविनः। शिष्टं पूर्ववत् ॥

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    विषय

    अश्विनोः, इन्द्राग्न्यो:, ऋभूणाम्

    पदार्थ

    १. जीवन में प्रथम २४ वर्ष ही जीवन-यज्ञ का प्रात:सवन है। (यथा) = जैसे इस (प्रात:सवने) = प्रात:सवन में (सोम:) = शरीर में रस, रुधिर आदि क्रम से उत्पन्न सोम (अश्विनो:) = प्राणापान के साधकों का (प्रियः भवति) = प्रिय होता है। सोमरक्षण से ही प्राणापान की शक्ति बढ़ती है और प्राणसाधना से सोम का रक्षण होता है, (एव) = इसी प्रकार हे (अश्विना) = प्राणापानो! (मे आत्मनि) = मेरी आत्मा में (वर्च: ध्रियताम्) = ब्रह्मवर्चस्-ज्ञानप्रकाश का धारण किया जाए। हम जीवन के इस प्रथम आश्रम में प्राणसाधना द्वारा सोमरक्षण करते हुए ब्रह्मवर्चस्वाले बनें-ज्ञान संचय करें। २. जीवन के अगले ४४ वर्ष माध्यन्दिन सवन है। गृहस्थ का काल ही माध्यन्दिन सवन है। (यथा) = जैसे (द्वितीये सवने) = जीवन के द्वितीये [माध्यन्दिन] सवन में (सोमः) = सोम (इन्द्राग्न्यो: प्रियः भवति) = इन्द्र और अग्नि का प्रिय होता है, अर्थात् जितेन्द्रिय [इन्द्र] व प्रगतिशील [अग्नि] बनकर एक गृहस्थ भी सोम का रक्षण कर पाता है, (एव) = इसी प्रकार हे (इन्द्राग्री) =  जितेन्द्रियता व प्रगतिशीलता! (मे आत्मनि) = मेरे आत्मा में (वर्च:) = शक्ति (धियताम्) = धारण की जाए। गृहस्थ में भी जितेन्द्रिय व प्रगतिशील बनकर हम शक्तिशाली बने रहें। ३. जीवन के अन्तिम ४८ वर्ष जीवन का तृतीय सवन है। (यथा) = जैसे इस (तृतीये सवने) = तृतीय सवन में वानप्रस्थ व संन्यास में (सोमः ऋभूणां प्रियः भवति) = सोम ऋभुओं का [ऋतेन भान्ति, उरु भान्ति वा] प्रिय होता है। ये ऋभ वानप्रस्थ में नित्य स्वाध्याययुक्त होकर ज्ञान से खूब ही दीप्त होते हैं तथा संन्यास में पूर्ण सत्य का पालन करते हुए सत्य से देदीप्यमान होते हैं, एव-इसी प्रकार से ऋभव:-ज्ञानदीस व सत्यदीस व्यक्तियो! मे आत्मनि वर्चः भियताम्-मेरी आत्मा में भी वर्चस् का धारण किया जाए। ज्ञानदीसि व सत्यदीप्ति से मेरा जीवन भी दीप्त हो।

    भावार्थ

    हम जीवन में प्रथमाश्रम में प्राणसाधना द्वारा प्राणापान की शक्ति का वर्धन करते हुए सोम का रक्षण करें। गृहस्थ में भी जितेन्द्रिय व प्रगतिशील बनकर सोमी बनें तथा अन्त में ज्ञान व सत्य से दीप्स बनकर सोम-रक्षण द्वारा वर्चस्वी बनें।

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    भाषार्थ

    (तृतीये सवने) तृतीय सवन में (यथा) जैसे (सोमः) सोम (ऋभूणाम्) ऋभुओं को (प्रियः भवति) प्रिय होता है, (एवा) इसी प्रकार (ऋभवः) हे ऋभु ! (मे आत्मनि) मेरी आत्मा में (वर्चः) वर्चस् (ध्रियताम्) स्थापित हो।

    टिप्पणी

    [मन्त्र ११, १२, १३ का विनियोग वेदारम्भ संस्कार के सम्बन्ध में हुआ है (कौशिक सूत्र १३९।१५)। तीनों मन्त्रों में "सोम" का वर्णन हुआ है। ब्रह्मचारी तीन प्रकार के होते हैं वसु, रुद्र, आदित्य। २४ वर्षों की आयु के होते हैं, वसु१ ४४ वर्षों की आयु के होते हैं रुद्र१ और ४८ वर्षों की आयु के होते हैं आदित्य१। तीनों को सोम कहा है, जब तक वसु, रुद्र, और आदित्य ब्रह्मचर्याश्रम में रह कर आचार्यों द्वारा शिक्षा प्राप्त करते हैं तब तक इन्हें "सौम्य प्रकृति" हो कर शिक्षा प्राप्त करनी चाहिये, इसी लिये इन्हें "सोम" कहा है। तथा देखो (१।१।५ सूक्त)। "सोम" का अर्थ ब्रह्मचारी होता है। यथा “बृहस्पतिः प्रायच्छद्वास एतत् सोमाय राज्ञे परिधातवा उ" (अथर्व० २।१३।२), अर्थात् बृहस्पति-आचार्य ने यह वस्त्र दिया है सोमराजा के पहिनने के लिये तथा "यस्य ते वासः प्रथमवास्यं हरामः" (अथर्व० २।१३।५) में सोम के "प्रथमवास्य वासः" का वर्णन है। "प्रथमवास्य" का अभिप्राय है ब्रह्मचर्याश्रम में प्रविष्ट होने के काल का वस्त्र। व्याख्याकारों ने इन तीन मन्त्रों में "सोम ओषधि" का वर्णन माना है, जो कि अयुक्त है। उपर्युक्त तीन मन्त्रों में "सवने" शब्द पठित है। याज्ञिक विधि से "सवन" का अर्थ किया जाता है सोम-ओषधि को पीस कर उस से सोमरस निकालने का काल। यथा "सूयते अभिषूयते सोमः अत्रेति सवनःकालः" (सायण, अथर्व ७।८१।२)। छान्दोग्य उपनिषद् ३।१६ में "चतुर्विंशति वर्षाणि तत् प्रातसवनम्"; चतुश्चत्वारि शद्वर्षाणि तन्माध्यन्दिन सवनम् "अष्टाचत्वारिशद्वर्षाणि तत् तृतीयसवनम्"— द्वारा तीन प्रकार के ब्रह्मचारियों के त्रिविध ब्रह्मचर्यकालों को तीन सवन१ कहा है। अतः व्याख्येय (मन्त्र ११-१३) ब्रह्मचर्य विषयक ही प्रतीत होते हैं। ब्रह्मचर्य काल में वेदाध्ययन किया जाता है। इस प्रकार "मधुकशा" का तीसरा अर्थ "मधुमयी वेदवाणी" भी सार्थक हो जाता है। तीन मन्त्रों में "अश्विनोर्भवति प्रियः" इन्द्राग्न्योर्भवति प्रियः"; तथा "ऋभूणां भवति प्रियः"— ऐसा उपक्रम कर के, उपसंहार में "एवा मे वर्च आत्मनि ध्रियताम्" द्वारा "इसी प्रकार मेरी आत्मा में वर्चस् स्थापित हो,"— वर्चस् की प्राप्ति का वर्णन हुआ है। उपक्रम में सोम की प्रियता का तथा उपसंहार में वर्चस् का वर्णन परस्पर समन्वित प्रतीत नहीं होता। इस लिये उदाहरण के रूप में निम्न प्रकार अर्थ होना चाहिये। यथा “जैसे सोम अश्वियों को प्रिय होता है और इसलिये सोम में वर्चस् स्थापित होता है, इसी प्रकार मैं भी अश्वियों को प्रिय होऊं ताकि मेरी आत्मा में भी वर्चस् स्थापित हो"। अश्विनोः अश्विना,— अश्विनौ सम्बन्धी सूक्तों के अध्येताओं और तद्वेत्ताओं को, जोकि इन सूक्तों के मर्मज्ञ हैं, उन्हें मन्त्र में "अश्विनौ" कहा प्रतीत होता है। जैसे कि यजुर्वेद की कठ शाखा और चरक शाखा के अध्येताओं और तद्वेत्ताओं को "कठाः" तथा "चरकाः" कहा जाता है। इसी प्रकार सब वेदों के अध्येताओं को "सर्ववेद" कहते हैं। वर्तमान में भी,—जिन्हें कि वेद कण्ठस्थ हैं "वेदमूर्तयः" कहा जाता है। वेदमूर्ति का अभिप्रायः वेद ही है। इस प्रकार के अश्विनों के शिष्य, इन अश्वियों के प्रिय बन जाते हैं। गुरु और शिष्य में यथोचित शिष्टाचार के रहते परस्पर प्रेमभाव का हो जाना स्वाभाविक ही है। गुरु द्वारा अश्विनौ सूक्तों के अध्ययन तथा तत्प्रतिपादित कर्त्तव्यों के पालन द्वारा "अश्विनौ" सम्बन्धी वर्चस् शिष्यों की आत्माओं में स्थापित हो जाता है। समीस्थ गुरुकुलों में गृहस्थी भी समय समय पर जाकर जब तत्सम्बन्धी सदुपदेशों के लिये प्रार्थनाएं करते हैं तब उन की आत्माओं में तत्सम्बन्धी वर्चस् की स्थापना सम्भव ही है। इसी प्रकार इन्द्र सम्बन्धी सूक्तों के वेत्ताओं की "इन्द्र", अग्नि सम्बन्धी सूक्तों के वेत्ताओं की “अग्नि" तथा ऋतु सम्बन्धी सूक्तों के वेत्ताओं को "ऋभवः" कहा जा सकता है। ऋभवः के सम्बन्ध में सायणाचार्य कहते हैं कि "ऋभवो देवा ऋतेन सत्येन अवितथेन आत्मीयेन शिल्पकर्मणा चमसम् सोमभक्षणपात्रं एकम् ऐरयन्त प्रैरयन्त" तथा "ते च मनुष्या एव सन्तो रथनिर्माणादि शिल्प करणेन देवांस्तोषयित्वा तत्प्रसादेन देवत्वं प्राप्ताः" (अथर्व ६।४८।३)। इस कथनानुसार जैसे "ऋभु" मनुष्य है, वैसे "अश्विनौ" तथा "इन्द्राग्नी" को भी मनुष्य माना जा सकता है जो कि सोम (सौम्य स्वभाव वाले) नामक ब्रह्मचारियों के यथाक्रम आचार्य हैं। जैसे "ऋभवः" आचार्य, शिल्प विद्या में निपुण होकर, आदित्य ब्रह्मचारियों को शिल्प की शिक्षा देते हैं, वैसे रुद्र ब्रह्मचारियों को आचार्य वेदानुसार, इन्द्र (विद्युत्) और अग्नि सम्बन्धी व्यवहारिक तथा ज्ञानात्मक शिक्षा देते हैं,— ऐसा अभिप्राय इन मन्त्रों का प्रतीत होता है। ऐसी शिल्पसम्बन्धी शिक्षा पाकर स्नातक, स्वतन्त्र धन्धे कर, निज आजीविका के लिये स्वावलम्बी हो सकते हैं।] [१. सत्यार्थप्रकाश तृतीय समुल्लास में छान्दोग्योपनिषद् (३।१६) के प्रमाण के आधार पर, त्रिष्टुप् छन्द के अनुसार रूद्र ब्रह्मचारी को ४४ वर्षों का कहा है। त्रिष्टुप् छन्द के अक्षर ४४ होते है। २. पुरुषो वाव यज्ञः तस्य यानि चतुर्विंशति वर्षाणि तत् प्रातःसवनं, चतुर्विंशत्यक्षरा गायत्री, गायत्रं प्रातःसवनम्, तदस्य वसवोऽन्वायत्ताः। अथ यानि चतुश्चत्वारिंशद्वर्षाणि तन्माध्यन्दिनंसवनं चतुश्चत्वारिंशदक्षरा त्रिष्टुप्, त्रैष्टुभं माध्यन्दिनंसवनम् तदस्य, रुद्रा अन्वायत्ताः। अथ यान्यष्टाचत्वारिंशद्वर्षाणि तत् तृतीयं सवनमष्टाचत्वारिंशदक्षरा जगती जागतं तृतीयसवनम्, तदस्यादित्या अन्वायत्ताः।]

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    विषय

    मधुकशा ब्रह्मशक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (यथा) जिस प्रकार (तृतीये सवने) तीसरे सवन अर्थात् आदित्य ब्रह्मचर्य काल में (सोमः) वीर्यशक्ति (ऋभूणां प्रियः भवति) ऋभुदेवों अर्थात् बहुत प्रकाशमान विद्वानों को प्रिय होती है अथवा जिस प्रकार सोम, शान्त विद्वान् शिष्य सत्य से प्रकाशित तेजस्वी पुरुषों को प्रिय लगता है (एव) उसी प्रकार हे (ऋभवः) ऋभु सत्य या ब्रह्मज्ञान से प्रकाशमान योगी विद्वान् पुरुषो ! आप लोगों की कृपा से (मे आत्मनि वर्चः ध्रियताम्) मेरे आत्मा में ब्रह्मतेज प्रिय लगे और सदा विराजमान हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मधुकशा, अश्विनौ च देवताः। मधुसूक्तम्। १, ४, ५ त्रिष्टुभः। २ त्रिष्टुब्गर्भापंक्तिः। ३ पराऽनुष्टुप्। ६ यवमध्या अतिशाक्वरगर्भा महाबृहती। ७ यवमध्या अति जागतगर्भा महाबृहती। ८ बृहतीगर्भा संस्तार पंक्तिः। १० पराउष्णिक् पंक्तिः। ११, १३, १५, १६, १८, १९ अनुष्टुभः। १४ पुर उष्णिक्। १७ उपरिष्टाद् बृहती। २० भुरिग् विस्तारपंक्तिः २१ एकावसाना द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्। २२ त्रिपदा ब्राह्मी पुर उष्णिक्। २३ द्विपदा आर्ची पंक्तिः। २४ त्र्यवसाना षट्पदा अष्टिः। ९ पराबृहती प्रस्तारपंक्तिः॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Madhu Vidya

    Meaning

    Just as Soma is dear to the Rbhus in the third yajnic session of the day, so may the Rbhus bless me with physical, moral, scientific and spiritual lustre in the soul. (Three mantras 11-13 refer to not only the science of yajna but also the process of education. Soma is the student (Atharva 2, 13, 2 and 5) and Ashvins, Indra, Agni and the Rbhus are teachers of basic subjects and specialists of heat and electric energy and the technology of science and engineering. Refence may be made to Professor Vishvanath’s commentary on these mantras and Say ana’s comments on the Rbhus quoted therein.)

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    Translation

    As at the third (evening) sacrifice (trtiya savana), the curejuice is pleasing to Rbhus (artists and artisans), so may the Rbhus maintain lustre in my self.

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    Translation

    As the full-fledged man-in the life of Vanaprastha (the life of austerity) becomes beleved to the persons of learning and actions in the same manner lay splendor and vigor in my soul, O Ribhus ! (the learned persons).

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    Translation

    Just as an old person, is honored and loved by the wise in old stage, the third stage of life, even so may they the learned persons store splendor and strength within my soul.

    Footnote

    Griffith interprets Ribhus the three renowned artists who by their excellent work obtained divinity, exercised superhuman powers, and became entitled to worship. As there is no history in the Vedas, this interpretation is unacceptable ऋभूणाम= मेधाविनाम् Nighantu, 3-14.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(सोमः) ऐश्वर्यवान्। वृद्धपुरुषः (तृतीये) शैशवयौवनवार्धकानां पूरके (सवने) यज्ञे। वृद्धभाव इत्यर्थः। (ऋभूणाम्) अ० १।२।३। मेधाविनाम्-निघ० ३।१५। (ऋभवः) हे मेधाविनः। शिष्टं पूर्ववत् ॥

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