अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 12
ऋषिः - अथर्वा
देवता - मधु, अश्विनौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
57
यथा॒ सोमो॑ द्वि॒तीये॒ सव॑न इन्द्रा॒ग्न्योर्भ॑वति प्रि॒यः। ए॒वा म॑ इन्द्राग्नी॒ वर्च॑ आ॒त्मनि॑ ध्रियताम् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । सोम॑: । द्वि॒तीये॑ । सव॑ने । इ॒न्द्रा॒ग्न्यो: । भव॑ति । प्रि॒य: । ए॒व । मे॒ । इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑ । वर्च॑: । आ॒त्मनि॑ । ध्रि॒य॒ता॒म् ॥१.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा सोमो द्वितीये सवन इन्द्राग्न्योर्भवति प्रियः। एवा म इन्द्राग्नी वर्च आत्मनि ध्रियताम् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । सोम: । द्वितीये । सवने । इन्द्राग्न्यो: । भवति । प्रिय: । एव । मे । इन्द्राग्नी इति । वर्च: । आत्मनि । ध्रियताम् ॥१.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जैसे (सोमः) ऐश्वर्यवान् [युवा मनुष्य] (द्वितीये सवने) दूसरे यज्ञ [युवा अवस्था] में (इन्द्राग्न्योः) सूर्य और बिजुली [के समान माता-पिता] का (प्रियः) प्रिय (भवति) होता है। (एव) वैसे ही, (इन्द्राग्नी) हे सूर्य और बिजुली [के समान माता-पिता !] (मे आत्मनि) मेरे आत्मा में (वर्चः) प्रकाश (ध्रियताम्) धरा जावे ॥१२॥
भावार्थ
मनुष्यों को उत्तम शिक्षा प्राप्त करके युवावस्था में ऐश्वर्यवान् होना चाहिये ॥१२॥
टिप्पणी
१२−(सोमः) ऐश्वर्यवान्। युवा पुरुषः (द्वितीये) बाल्ययौवनयोः पूरके (सवने) यज्ञे यौवन इत्यर्थः (इन्द्राग्न्योः) सूर्यविद्युत्तुल्ययोर्मातापित्रोः (इन्द्राग्नी) हे सूर्यविद्युत्तुल्यौ मातापितरौ। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
अश्विनोः, इन्द्राग्न्यो:, ऋभूणाम्
पदार्थ
१. जीवन में प्रथम २४ वर्ष ही जीवन-यज्ञ का प्रात:सवन है। (यथा) = जैसे इस (प्रात:सवने) = प्रात:सवन में (सोम:) = शरीर में रस, रुधिर आदि क्रम से उत्पन्न सोम (अश्विनो:) = प्राणापान के साधकों का (प्रियः भवति) = प्रिय होता है। सोमरक्षण से ही प्राणापान की शक्ति बढ़ती है और प्राणसाधना से सोम का रक्षण होता है, (एव) = इसी प्रकार हे (अश्विना) = प्राणापानो! (मे आत्मनि) = मेरी आत्मा में (वर्च: ध्रियताम्) = ब्रह्मवर्चस्-ज्ञानप्रकाश का धारण किया जाए। हम जीवन के इस प्रथम आश्रम में प्राणसाधना द्वारा सोमरक्षण करते हुए ब्रह्मवर्चस्वाले बनें-ज्ञान संचय करें। २. जीवन के अगले ४४ वर्ष माध्यन्दिन सवन है। गृहस्थ का काल ही माध्यन्दिन सवन है। (यथा) = जैसे (द्वितीये सवने) = जीवन के द्वितीये [माध्यन्दिन] सवन में (सोमः) = सोम (इन्द्राग्न्यो: प्रियः भवति) = इन्द्र और अग्नि का प्रिय होता है, अर्थात् जितेन्द्रिय [इन्द्र] व प्रगतिशील [अग्नि] बनकर एक गृहस्थ भी सोम का रक्षण कर पाता है, (एव) = इसी प्रकार हे (इन्द्राग्री) = जितेन्द्रियता व प्रगतिशीलता! (मे आत्मनि) = मेरे आत्मा में (वर्च:) = शक्ति (धियताम्) = धारण की जाए। गृहस्थ में भी जितेन्द्रिय व प्रगतिशील बनकर हम शक्तिशाली बने रहें। ३. जीवन के अन्तिम ४८ वर्ष जीवन का तृतीय सवन है। (यथा) = जैसे इस (तृतीये सवने) = तृतीय सवन में वानप्रस्थ व संन्यास में (सोमः ऋभूणां प्रियः भवति) = सोम ऋभुओं का [ऋतेन भान्ति, उरु भान्ति वा] प्रिय होता है। ये ऋभ वानप्रस्थ में नित्य स्वाध्याययुक्त होकर ज्ञान से खूब ही दीप्त होते हैं तथा संन्यास में पूर्ण सत्य का पालन करते हुए सत्य से देदीप्यमान होते हैं, एव-इसी प्रकार से ऋभव:-ज्ञानदीस व सत्यदीस व्यक्तियो! मे आत्मनि वर्चः भियताम्-मेरी आत्मा में भी वर्चस् का धारण किया जाए। ज्ञानदीसि व सत्यदीप्ति से मेरा जीवन भी दीप्त हो।
भावार्थ
हम जीवन में प्रथमाश्रम में प्राणसाधना द्वारा प्राणापान की शक्ति का वर्धन करते हुए सोम का रक्षण करें। गृहस्थ में भी जितेन्द्रिय व प्रगतिशील बनकर सोमी बनें तथा अन्त में ज्ञान व सत्य से दीप्स बनकर सोम-रक्षण द्वारा वर्चस्वी बनें।
भाषार्थ
(द्वितीये सवने) द्वितीय सवन में (यथा) जैसे (सोमः) सोम (इन्द्राग्न्योः) इन्द्र और अग्नि को (प्रियः भवति) प्रिय होता है (एवा) इसी प्रकार (इन्द्राग्नी) हे इन्द्र-और-अग्नि! (मे आत्मनि) मेरी आत्मा में (वर्चः) वर्चस् (ध्रियताम्) स्थापित हो।
विषय
मधुकशा ब्रह्मशक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(यथा) जिस प्रकार (द्वितीये सवने) द्वितीय सवन अर्थात् रुद्र-ब्रह्मचर्य के काल में (सोमः) वीर्यशक्ति (इन्द्राग्न्योः) इन्द्र अर्थात् आत्मशक्ति सम्पन्न और अग्नि अर्थात् ज्ञानशक्ति सम्पन्न व्यक्तियों के देवों को (प्रियः भवति) प्रिय होती है (एवा) उसी प्रकार हे (इन्द्राग्नी) आत्मिक और ज्ञानशक्ति सम्पन्न व्यक्तियो ! (मे आत्मनि वर्चः ध्रियताम्) मेरे आत्मा में तेज प्रिय लगे और स्थिर रहे। अथवा, (यथा द्वितीये सवने इन्द्राग्न्योः सोमः प्रियो भवति) जिस प्रकार द्वितीय अवस्था में सोम अर्थात् विद्वान् शिष्य इन्द्र=आचार्य और अग्नि=परम ज्ञानोपदेष्टा ब्रह्मगुरु को प्रिय लगता है उसी प्रकार हे इन्द्र और अग्ने ! आपकी कृपा से मेरे आत्मा में तेज और ब्रह्मवर्चस् प्रिय लगे और सदा स्थिर रहे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मधुकशा, अश्विनौ च देवताः। मधुसूक्तम्। १, ४, ५ त्रिष्टुभः। २ त्रिष्टुब्गर्भापंक्तिः। ३ पराऽनुष्टुप्। ६ यवमध्या अतिशाक्वरगर्भा महाबृहती। ७ यवमध्या अति जागतगर्भा महाबृहती। ८ बृहतीगर्भा संस्तार पंक्तिः। १० पराउष्णिक् पंक्तिः। ११, १३, १५, १६, १८, १९ अनुष्टुभः। १४ पुर उष्णिक्। १७ उपरिष्टाद् बृहती। २० भुरिग् विस्तारपंक्तिः २१ एकावसाना द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्। २२ त्रिपदा ब्राह्मी पुर उष्णिक्। २३ द्विपदा आर्ची पंक्तिः। २४ त्र्यवसाना षट्पदा अष्टिः। ९ पराबृहती प्रस्तारपंक्तिः॥
इंग्लिश (4)
Subject
Madhu Vidya
Meaning
Just as soma is dear to Indra and Agni in the second yajnic session of the day, so may Indra and Agni bless me with physical, moral, intellectual and spiritual lustre in the soul.
Translation
As at the second (mid-day) sacrifice (dvitiya savana) the cure-juice is pleasing to the Lord resplendent and adorable (Agni), so may the Lord resplendent and adorable maintain lustre in my self.
Translation
As the child becoming youth enter into house-hold life becomes lovely to his father and mother in the same manner lay splendor and in my soul, O Ashvinau!(father and mother).
Translation
Just as a child in youth is dear to father and mother, so may both father and mother lay splendor and strengthen my soul.
Footnote
Father and mother have been compared to the Sun and fire. Just as the Sun warms and protects us, so does a father protect his son. Just as fire lends warmth to us, so does the mother lend the warmth of her love to the child.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२−(सोमः) ऐश्वर्यवान्। युवा पुरुषः (द्वितीये) बाल्ययौवनयोः पूरके (सवने) यज्ञे यौवन इत्यर्थः (इन्द्राग्न्योः) सूर्यविद्युत्तुल्ययोर्मातापित्रोः (इन्द्राग्नी) हे सूर्यविद्युत्तुल्यौ मातापितरौ। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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