अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 24
ऋषिः - अथर्वा
देवता - मधु, अश्विनौ
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदाष्टिः
सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
68
यद्वी॒ध्रे स्त॒नय॑ति प्र॒जाप॑तिरे॒व तत्प्र॒जाभ्यः॑ प्रा॒दुर्भ॑वति। तस्मा॑त्प्राचीनोपवी॒तस्ति॑ष्ठे॒ प्रजा॑प॒तेऽनु॑ मा बुध्य॒स्वेति॑। अन्वे॑नं प्र॒जा अनु॑ प्र॒जाप॑तिर्बुध्यते॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वी॒ध्रे । स्त॒नय॑ति । प्र॒जाऽप॑ति: । ए॒व । तत् । प्र॒ऽजाभ्य॑: । प्रा॒दु: । भ॒व॒ति॒ । तस्मा॑त् । प्रा॒ची॒न॒ऽउ॒प॒वी॒त: । ति॒ष्ठे॒ । प्रजा॑ऽपते । अनु॑ । मा॒ । बु॒ध्य॒स्य॒ । इति॑ । अनु॑ । ए॒न॒म् । प्र॒ऽजा: । अनु॑ । प्र॒जाऽप॑ति: । बु॒ध्य॒ते॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वीध्रे स्तनयति प्रजापतिरेव तत्प्रजाभ्यः प्रादुर्भवति। तस्मात्प्राचीनोपवीतस्तिष्ठे प्रजापतेऽनु मा बुध्यस्वेति। अन्वेनं प्रजा अनु प्रजापतिर्बुध्यते य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । वीध्रे । स्तनयति । प्रजाऽपति: । एव । तत् । प्रऽजाभ्य: । प्रादु: । भवति । तस्मात् । प्राचीनऽउपवीत: । तिष्ठे । प्रजाऽपते । अनु । मा । बुध्यस्य । इति । अनु । एनम् । प्रऽजा: । अनु । प्रजाऽपति: । बुध्यते । य: । एवम् । वेद ॥१.२४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जैसे (वीध्रे) [चमकीले लोकोंवाले] आकाश [वा वायु] में (स्तनयति) गर्जना होती है, (तत्) वैसे ही (प्रजापतिः) प्रजापति [सृष्टिपालक परमेश्वर] (एव) ही (प्रजाभ्यः) जीवों को (प्रादुर्भवति) प्रकट होता है। (तस्मात्) इसी [कारण] से (प्राचीनोपवीतः) प्राचीन [सबसे पुराने परमेश्वर] में बड़ी प्रीतिवाला मैं (तिष्ठे) विनती करता हूँ, “(प्रजापते) हे प्रजापति [परमेश्वर !] (मा) मुझ पर (अनुबुध्यस्व) अनुग्रह कर, (इति) बस।” (एनम्) उस [पुरुष] पर (प्रजाः) सब प्रजागण (अनु) अनुग्रह [करते हैं] और (प्रजापतिः) प्रजापति [जगदीश्वर] (अनु बुध्यते) अनुग्रह करता है, (यः एवम् वेद) जो ऐसा जानता है ॥२४॥
भावार्थ
जैसे बोला हुआ शब्द आकाश और वायु में लहरा-लहरा कर सब ओर फैलता है और विवेकी जन बिजुली आदि से उस शब्द को जहाँ चाहे वहाँ ग्रहण कर लेता है, वैसे ही परमात्मा सब काल और सब स्थान में निरन्तर फैल रहा है, ऐसा अनुभवी, श्रद्धालु, पुरुषार्थी योगी जन सब प्राणियों और परमेश्वर का प्रिय होता है ॥२४॥
टिप्पणी
२४−(यत्) यथा (वीध्रे) अ० ४।२०।७। वि+इन्धी दीप्तौ-क्रन्, नलोपः। प्रकाशितलोकयुक्ते। नभसि। वायौ (स्तनयति) मेघः शब्दयति (प्रजापतिः) जगदीश्वरः (एव) (तत्) तथा (प्रजाभ्यः) जीवेभ्यः (प्रादुः) अर्त्तिपॄवपियजि०। उ० २।११७। प्र+अद भक्षणे, अवने च-उसि। प्रकाशे (भवति) (तस्मात्) कारणात् (प्राचीनोपवीतः) प्राचीन-अ० ४।११।८+उप+वी गतिव्याप्तिकान्त्यादिषु-क्त। प्राचीने सर्वपुरातने परमेश्वरे बहुप्रीतः (तिष्ठे) प्रकाशनस्थेयाख्ययोश्च। पा० १।३।२३। इत्यात्मनेपदम्। आशयं प्रकाशयामि। निवेदयामि (प्रजापते) (अनु बुध्यस्व) अनुजानीहि। अनुगृहाण (मा) माम् (अनु) अनुबुध्यन्ते (एनम्) ब्रह्मवादिनम् (प्रजाः) प्राणिनः (प्रजापतिः) (अनुबुध्यते) अनुगृह्णाति। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
प्रभु के प्रति प्रीति
पदार्थ
१.(यत्) = जब (वीध्रे) = [वि इन्ध] विगत दीप्तिवाले अन्तरिक्ष में (स्तनयति) = गर्जना होती है तब (तत् प्रजापतिः एव) = वह प्रजापालक प्रभु ही (प्रजाभ्यः प्रादुभर्वति) = प्रजाओं के लिए प्रादुर्भूत हो जाता है-मेघगर्जना में प्रभु की महिमा ही प्रकट होती है। (तस्मात्) = उसी कारण से (प्राचीनोपवीत:) = [प्राचीन, उप वि-कान्ति] इस सनातन प्रभु के प्रति प्रीतिवाला [कामनावाला] मैं स्थित होता हूँ। २. (प्रजापते) = हे प्रजापालक प्रभो! (मा अनु बुध्यस्व) = मुझपर अनुग्रह कीजिए, (इति) = यही मेरी आराधना है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार मेघगर्जना आदि में प्रभु की महिमा का अनुभव करता है, (एनम्) = इसे (प्रजाः अनु) = अनुकूलतावाली प्रजाएँ प्राप्त होती हैं तथा इसपर (प्रजापति: अनुबुध्यते) = प्रजापति प्रभु अनुग्नहवाले होते हैं।
भावार्थ
हम मेघगर्जना आदि प्रकृतिक घटनाओं में प्रभु की महिमा का अनुभव करते हुए प्रभु के प्रति प्रीतिवाले हों। ऐसा होने पर हमें अनुकूल प्रजाएँ प्राप्त होंगी और प्रभु का अनुग्रह प्राप्त होगा।
भाषार्थ
(वीध्रे) अन्तरिक्ष में (यद्) जोकि (स्तनयति) मेघ गर्जता है (तत्) वह (प्रजापतिः एव) प्रजापति ही (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिये (प्रादुर्भवति) प्रादुर्भूत अर्थात् प्रकट होता है। (तस्मात्) इसलिये [उस समय] (प्राचीनोपवीतः) यज्ञोपवीत को दाहिने कन्धे पर रखकर बाई भुजा के नीचे लटका कर (तिष्ठे) मैं स्थित होता है और प्रार्थना करता हूं कि (प्रजापते) हे प्रजापति! (मा) मेरा (अनुबुध्यस्व इति) अनुचिन्तन कर, मेरा ख्याल कर (यः एवं वेद) जो इस विधि को जानता है (प्रजाः) प्रजाएं (एनम्) इसका (अनु) अनुचिन्तन करती हैं, इसका ख्याल करती हैं, (प्रजापतिः) प्रजापति भी (अनुबुध्यते) इस का अनुचिन्तन करता है, ख्याल करता हैं।
टिप्पणी
[वीध्रे= अन्तरिक्षे; वि + इन्धी दीप्तौ; अन्तरिक्ष जिस में कि मेघीय विद्युत् विशेषरूप में चमकती है। मन्त्र २ में भी कहा है कि "स्तनयित्नुस्ते वाक् प्रजापते"। यही भावना मन्त्र २४ में प्रकट की गई है। यदि परमेश्वर की सत्ता मेघ में न हो तो न तो मेघ की ही सत्ता होगी, और न उसके गर्जन की ही। प्रत्येक प्राकृतिक घटना में प्रजापति को सत्ता अनुस्यूत जाननी चाहिये,— यह सत्य सिद्धान्त मन्त्र द्वारा प्रकट किया है।" प्रत्येक शुभकर्म में व्यक्ति को प्राचीनोपवीति होना चाहिये, इस विधि को भी मन्त्र में सूचित किया है। "नमो हरिकेशायोपवीतिने" (यजु० १६।१७) में भी "उपवीतिने" द्वारा यज्ञोपवीत का वर्णन हुआ है। "हरिकेशाय" का अर्थ है "मनोहारी केशों वाले के लिये" नमः हो। मुक्त की समाप्ति में भी प्रजापति द्वारा परमेश्वर का वर्णन हुआ है। अतः सूक्त में "मधुकशा" द्वारा परमेश्वर का ही वर्णन समझना चाहिये, विद्युत् का और वेदवाणी का वर्णन गौणरूप में]।
विषय
मधुकशा ब्रह्मशक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(यत्) जब (वीध्रे) आकाश या अन्तरिक्ष में (स्तनयति) मेघ गर्जता है (तत्) तब (प्रजापतिः) एक रूप में प्रजा-पालक परमेश्वर ही (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिए (प्रादुर्भवति) साक्षात् प्रकट होता है। प्रजापालक प्रभु की शक्ति का वही एक प्रकट रूप है। (तस्मात्) इसलिये ये पुरुष उस समय (प्राचीनोपवीतः) जिस प्रकार गुरु के समक्ष शिष्य ज्ञानोपदेश ग्रहण करने के लिए दायें कन्धे पर यज्ञोपवीत पहन कर सावधान होकर गुरु से ज्ञानोपदेश प्राप्त करने की प्रार्थना करता है उसी प्रकार तू भी सावधान होकर दक्षिण स्कन्ध पर यज्ञोपवीत धारण करके खड़े होने वाले शिष्य के समान (तिष्ठे) खड़ा हो और (इति) इस प्रकार प्रार्थना कर—हे (प्रजापते) प्रजा के पालक प्रभो ! (मा) मुझे (अनुबुध्यस्व) ध्यान में रक्खो, मुझ पर अनुग्रह करो (यः एवं वेद) जो इस रहस्य को जान लेता है (एनम्) इस पर (प्रजाः अनु) प्रजाएं सदा अनुग्रह करती और (प्रजापतिः अनु बुध्यते) प्रजापति उस पर कृपा बनाए रहता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मधुकशा, अश्विनौ च देवताः। मधुसूक्तम्। १, ४, ५ त्रिष्टुभः। २ त्रिष्टुब्गर्भापंक्तिः। ३ पराऽनुष्टुप्। ६ यवमध्या अतिशाक्वरगर्भा महाबृहती। ७ यवमध्या अति जागतगर्भा महाबृहती। ८ बृहतीगर्भा संस्तार पंक्तिः। १० पराउष्णिक् पंक्तिः। ११, १३, १५, १६, १८, १९ अनुष्टुभः। १४ पुर उष्णिक्। १७ उपरिष्टाद् बृहती। २० भुरिग् विस्तारपंक्तिः २१ एकावसाना द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्। २२ त्रिपदा ब्राह्मी पुर उष्णिक्। २३ द्विपदा आर्ची पंक्तिः। २४ त्र्यवसाना षट्पदा अष्टिः। ९ पराबृहती प्रस्तारपंक्तिः॥
इंग्लिश (4)
Subject
Madhu Vidya
Meaning
Whatever thunders in the sky is Prajapati himself manifested for his children. For this very reason, I, initiated in the love of eternal divinity, abide in the will of Prajapati and pray: O Prajapati, remember me, pray forsake me not. People become favourable to him whoever knows this, he abides with Prajapati and Prajapati never forsakes him.
Translation
When it thunders in the sky, that is the Lord of creatures making Himself manifest to the creatures. Therefore, I stand with the sacred thread over my right shoulder (pracinopavita), so that, Ó Lord of creatures, may you take me into, your notice. The creatures and the Lord of creatures become favourably inclined to him, who knows this.
Translation
When the cloud thunders in the sky this is the manifestation of the power of the Lord of the creatures for the living creatures and 1, the devotee sit, therefore, wearing my sacred thread on my right shoulder and pray Him show mercy upon me, O Lord of the creatures. To Him who knows it people become benevolent and Lord of the universe shows His mercy upon him.
Translation
When clouds thunder in the sky, it is verily a manifestation of Goa to living creatures. Just as a pupil, with the Yajnopavit on the right, stands before his teacher, and prays for instructions, so I stand with the sacred thread on the right side, and pray, O God, be gracious unto me! He who knows this secret, is honored by living beings and loved by God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२४−(यत्) यथा (वीध्रे) अ० ४।२०।७। वि+इन्धी दीप्तौ-क्रन्, नलोपः। प्रकाशितलोकयुक्ते। नभसि। वायौ (स्तनयति) मेघः शब्दयति (प्रजापतिः) जगदीश्वरः (एव) (तत्) तथा (प्रजाभ्यः) जीवेभ्यः (प्रादुः) अर्त्तिपॄवपियजि०। उ० २।११७। प्र+अद भक्षणे, अवने च-उसि। प्रकाशे (भवति) (तस्मात्) कारणात् (प्राचीनोपवीतः) प्राचीन-अ० ४।११।८+उप+वी गतिव्याप्तिकान्त्यादिषु-क्त। प्राचीने सर्वपुरातने परमेश्वरे बहुप्रीतः (तिष्ठे) प्रकाशनस्थेयाख्ययोश्च। पा० १।३।२३। इत्यात्मनेपदम्। आशयं प्रकाशयामि। निवेदयामि (प्रजापते) (अनु बुध्यस्व) अनुजानीहि। अनुगृहाण (मा) माम् (अनु) अनुबुध्यन्ते (एनम्) ब्रह्मवादिनम् (प्रजाः) प्राणिनः (प्रजापतिः) (अनुबुध्यते) अनुगृह्णाति। अन्यत् पूर्ववत् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal