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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मधु, अश्विनौ छन्दः - त्रिब्टुगर्भा पङ्क्तिः सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
    86

    म॒हत्पयो॑ वि॒श्वरू॑पमस्याः समु॒द्रस्य॑ त्वो॒त रेत॑ आहुः। यत॒ ऐति॑ मधुक॒शा ररा॑णा॒ तत्प्रा॒णस्तद॒मृतं॒ निवि॑ष्टम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हत् । पय॑: । वि॒श्वऽरू॑पम् । अ॒स्या॒: । स॒मु॒द्रस्य॑ । त्वा॒ । उ॒त । रेत॑: । आ॒हु॒: । यत॑: । आ॒ऽएति॑ । म॒धु॒ऽक॒शा। ररा॑णा । तत् । प्रा॒ण: । तत् । अ॒मृत॑म् । निऽवि॑ष्टम् ॥१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महत्पयो विश्वरूपमस्याः समुद्रस्य त्वोत रेत आहुः। यत ऐति मधुकशा रराणा तत्प्राणस्तदमृतं निविष्टम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महत् । पय: । विश्वऽरूपम् । अस्या: । समुद्रस्य । त्वा । उत । रेत: । आहु: । यत: । आऽएति । मधुऽकशा। रराणा । तत् । प्राण: । तत् । अमृतम् । निऽविष्टम् ॥१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मधुकशा !] (त्वा) तुझको (अस्याः) इस [पृथिवी] का (विश्वरूपम्) सब प्रकार रूपवाला (महत्) बड़ा (पयः) बल [वा अन्न] (उत) और (समुद्रस्य) सूर्य का (रेतः) बीज (आहुः) वे [विद्वान्] बताते हैं। (यतः) जिस [ब्रह्म] से (रराणा) दानशील (मधुकशा) मधुकशा [वेदवाणी] (ऐति) आती है, (तत्) उस [ब्रह्म] में (प्राणः) प्राण [जीवन], (तत्) उस में (अमृतम्) अमृत [मोक्षसुख] (निविष्टम्) निरन्तर भरा है ॥२॥

    भावार्थ

    ईश्वर के ज्ञान से पृथिवी, सूर्य आदि लोक उत्पन्न होकर स्थित हैं और उसी के द्वारा सब प्राणी प्रयत्नपूर्वक जीवन करके आनन्द पाते हैं ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(महत्) बृहत् (पयः) पय गतौ-असुन्। पयः पिबतेर्वा प्यायतेर्वा-निरु० २।५। बलम्। अन्नम्-निघ० २।७। (विश्वरूपम्) सर्वविधरूपयुक्तम् (अस्याः) पृथिव्याः (समुद्रस्य) अ० १।१३।३। समुद्र आदित्यः, समुद्र आत्मा-निरु० १४।१६। सूर्यलोकस्य (त्वा) त्वां मधुकशाम् (उत) अपि च (रेतः) बीजम् (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (यतः) यस्माद् ब्रह्मणः (ऐति) आगच्छति (मधुकशा) म० १। मधुविद्या (रराणा) अ० ५।२७।११। दानशीला (तत्) तस्मिन् ब्रह्मणि (प्राणः) जीवनसामर्थ्यम् (तत्) तत्र (अमृतम्) मोक्षसुखम् (निविष्टम्) निरन्तरप्रविष्टम् ॥

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    विषय

    प्राण+अमृतम्

    पदार्थ

    १. (अस्या:) = इस मधुकशा-वेदवाणी का (पयः) = ज्ञानदुग्ध (महत्) = महनीय-पूजनीय है और (विश्वरूपम्) = सब पदार्थों का निरूपण करनेवाला है (उत) = और हे मधुकशे ! (त्वा) = तुझे (समुद्रस्य) = [स मुद] उस आनन्दमय प्रभु का (रेतः आहुः) = रेतस् [वीर्य] कहते हैं। ज्ञान ही प्रभु की शक्ति है। सर्वज्ञ होने से वे प्रभु सर्वशक्तिमान् हैं [knowledge is power]। २. (यत:) = जिधर से यह (मधुकशा) = वेदवाणी (रराणा) = ज्ञानोपदेश करती हुई-ज्ञान देती हुई (आ एति) = गति करती है, (तत्) = वह ज्ञान (प्राण:) = प्राणरूप होता हुआ, (तत्) = वह ज्ञान (अमृतम्) = अमृत [आरोग्य दाता] होता हुआ (निविष्टम्) = स्थापित होता है। वह वेदज्ञान प्राण व अमृतत्व को प्राप्त कराता है।

    भावार्थ

    महनीय वेदज्ञान संसार के सब पदार्थों का निरूपण करता है। यह ज्ञान ही प्रभु की शक्ति है। जहाँ यह वेदज्ञान होता है, वहाँ प्राणशक्ति और नीरोगता का निवास होता है।

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    भाषार्थ

    (अस्याः) इस पारमेश्वरी माता मधुकशा का (पयः) दूध है (महत्) विश्वरूपम्) रूपवान् महाविश्व। (उत) तथा हे पारमेश्वरी माता ! (त्वा) तुझे (समुद्रस्य) समुद्र का (रेतः) वीर्य (आहुः) कहते हैं (यतः) जिस समुद्र से कि (रराणा) आनन्द रस देती हुई (मधुकशा) मीठी चाबुक पारमेश्वरी माता (ऐति) आती है, प्रकट होती है। (तत्) वह समुद्र (प्राणः) प्राणरूप है, (तत्) उस समुद्र में (अमृतम्) अमृत ब्रह्म (निविष्टम्) स्थित है।

    टिप्पणी

    [महाब्रह्माण्ड को पयः कहा है। पयः के कारण मधुकशा माता प्रतीत होती है, वह है पारमेश्वरी माता। सब प्राणी महाब्रह्माण्डरूपी पयः का सेवन कर रहे हैं। समुद्र द्वारा अध्यात्म समुद्र का वर्णन हुआ है। प्राकृतिक समुद्र का वर्णन मन्त्र १ में हुआ है। यजुर्वेद २७।९३ में "हृदय-समुद्र" द्वारा हृदय को समुद्र कहा है। यथा "एता अर्षन्ति हृदयात्समुद्रात्", अर्थात् ये वेदवाणियां हृदय-समुद्र से लहरों के समान उठ रही है। इसी प्रकार अथर्व० १०।२।११ में "सिन्धुसृत्याय" द्वारा हृदय को सिन्धु कहा है जिस में कि रक्त रूपी "आपः" का निवास है। पारमेश्वरी माता को हृदय-समुद्र का रेतस् अर्थात् वीर्य कहा है। पुत्र पैदा होता है पिता से रेतस् से। रेतस् ही पुत्ररूप१ हो जाता है। इसी प्रकार पारमेश्वरी माता हृदय-समुद्र का रेतस् रूप है, हृदय-समुद्र से पैदा होती है, प्रकट होती है, इसी हृदय-समुद्र से वह आती है (ऐति), और आ कर उपासक को आनन्द रस प्रदान करती है (रराणा=रा (दाने) + कानच्)। हृदय रक्त-का-समुद्र है, अतः जीवन में प्राणरूप है, इसी में अमृत ब्रह्म स्थित है (अथर्व १०।२।३०-३३)]। [१. आत्मा के पुत्र नामासि। त्वं जीव शरदः शतम् ।।]

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    विषय

    मधुकशा ब्रह्मशक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (अस्या:) इस मधुकशा का (पयः) आनन्दमय, रस (महत्) बड़ा भारी, अनन्त, असीम और (विश्वरूपम्) समस्त रूपों में प्रादुर्भूत है। हे मधुकशे ! (त्वा) तुझे (समुद्रस्य) समुद्र अर्थात् सब आनन्द रसों के प्रदान करनेहारे परम रससागर ब्रह्म का (रेतः) परम रेतस्, वीर्य या परम तेज (आहुः) कहा करते हैं। (यतः) जहां से या जिससे (मधुकशा) वह मधुमयी, शासक प्रभु-शक्ति (रराणा) सब सुखों को प्रदान करने और सबको रमाने, एवं स्वयं सर्वत्र रमनेवाली, परम रमणीय शक्ति (एति) आती है, प्रकट होती है (तत्) वह (प्राणः) प्राण, सर्वोत्कृष्ट चेतन है। (तत्) वही (निविष्टम्) गूढ़ (अमृतम्) अमृत ब्रह्म है। अथवा (तत् अमृतम्) उसी में अमृत और (तत् प्राणः) उसी में प्राण (प्रविष्टम्) आश्रित है। इसका प्रकरण देखो प्रश्नोपनिषद् प्रश्न १। ७८। तथा श्वेताश्वतर उप० १। ९॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मधुकशा, अश्विनौ च देवताः। मधुसूक्तम्। १, ४, ५ त्रिष्टुभः। २ त्रिष्टुब्गर्भापंक्तिः। ३ पराऽनुष्टुप्। ६ यवमध्या अतिशाक्वरगर्भा महाबृहती। ७ यवमध्या अति जागतगर्भा महाबृहती। ८ बृहतीगर्भा संस्तार पंक्तिः। १० पराउष्णिक् पंक्तिः। ११, १३, १५, १६, १८, १९ अनुष्टुभः। १४ पुर उष्णिक्। १७ उपरिष्टाद् बृहती। २० भुरिग् विस्तारपंक्तिः २१ एकावसाना द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्। २२ त्रिपदा ब्राह्मी पुर उष्णिक्। २३ द्विपदा आर्ची पंक्तिः। २४ त्र्यवसाना षट्पदा अष्टिः। ९ पराबृहती प्रस्तारपंक्तिः॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Madhu Vidya

    Meaning

    Mighty is the nectar sweetness, beauty and majesty of this divine Mother, universal in form and meaning of the Message. O Mother Divine, they say, you are the very life and essence of Space and Time, eternal, whence arises the Madhukasha, the urge to live, all joyous, that breath of life itself abiding at at the very heart of Immortality, the Word.

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    Translation

    Her milk is great (in quantity and degree), and found in all the forms. They call you even the genial seed (reta) of ocean. Whence the bountiful honey-string comes, that (there) is the life, that is (there) the immorality (is) stored.

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    Translation

    The strength of this Madhukasha is very great and in every form. The learned persons call it the essence of ether, That Is the vital spirit and innortability is therein whence this Speech full of knowledge comes bestowing bounty.

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    Translation

    The learned call thee earth’s great strength in every form, they call the lustre, beauty of God. Whence comes the Vedic knowledge bestowing bounty, in Him is treasured life, in Him, salvation’sjoy.

    Footnote

    Whence: From God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(महत्) बृहत् (पयः) पय गतौ-असुन्। पयः पिबतेर्वा प्यायतेर्वा-निरु० २।५। बलम्। अन्नम्-निघ० २।७। (विश्वरूपम्) सर्वविधरूपयुक्तम् (अस्याः) पृथिव्याः (समुद्रस्य) अ० १।१३।३। समुद्र आदित्यः, समुद्र आत्मा-निरु० १४।१६। सूर्यलोकस्य (त्वा) त्वां मधुकशाम् (उत) अपि च (रेतः) बीजम् (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (यतः) यस्माद् ब्रह्मणः (ऐति) आगच्छति (मधुकशा) म० १। मधुविद्या (रराणा) अ० ५।२७।११। दानशीला (तत्) तस्मिन् ब्रह्मणि (प्राणः) जीवनसामर्थ्यम् (तत्) तत्र (अमृतम्) मोक्षसुखम् (निविष्टम्) निरन्तरप्रविष्टम् ॥

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