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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मधु, अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
    56

    यथा॒ सोमः॑ प्रातःसव॒ने अ॒श्विनो॑र्भवति प्रि॒यः। ए॒वा मे॑ अश्विना॒ वर्च॑ आ॒त्मनि॑ ध्रियताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । सोम॑: । प्रा॒त॒:ऽस॒व॒ने । अश्विनो॑: । भव॑ति । प्रि॒य: । ए॒व । मे॒ । अ॒श्वि॒ना॒ । वर्च॑: । आ॒त्मनि॑ । ध्रि॒य॒ता॒म् ॥१.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा सोमः प्रातःसवने अश्विनोर्भवति प्रियः। एवा मे अश्विना वर्च आत्मनि ध्रियताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । सोम: । प्रात:ऽसवने । अश्विनो: । भवति । प्रिय: । एव । मे । अश्विना । वर्च: । आत्मनि । ध्रियताम् ॥१.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यथा) जैसे (सोमः) ऐश्वर्यवान् आत्मा। [बालक] (प्रातःसवने) प्रातःकाल के यज्ञ [बालकपन] में (अश्विनोः) [कार्यकुशल] माता-पिता का (प्रियः) प्रिय (भवति) होता है। (एव) वैसे ही, (अश्विना) हे [कार्यकुशल] माता-पिता ! (मे) मेरे (आत्मनि) आत्मा में [विद्या का] (वर्चः) प्रकाश (ध्रियताम्) धरा जावे ॥११॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार चतुर माता-पिता अपने होनहार बालक का हित करते हैं, उसी प्रकार सब निपुण माता-पिता और आचार्य बालकों को शिक्षा देकर उत्तम बनावें ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(सोमः) ऐश्वर्यवान् बालकः। आत्मा-निरु० १४।१२। (प्रातःसवने) अ० ६।४७।—१। प्रातःकालस्य यज्ञे। शैशव इत्यर्थः (अश्विनोः) अ० २।२९।६। अश्विनौ....राजानौ पुण्यकृतौ-निरु० १२।१। कार्येषु व्याप्तिमतोर्जननीजनकयोः (भवति) (प्रियः) प्रीतिपात्रम् (एव) तथा (मे) मम (अश्विना) हे चतुरमातापितरौ (वर्चः) विद्याप्रकाशः (आत्मनि) अन्तःकरणे (ध्रियताम्) स्थाप्यताम् ॥

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    विषय

    अश्विनोः, इन्द्राग्न्यो:, ऋभूणाम्

    पदार्थ

    १. जीवन में प्रथम २४ वर्ष ही जीवन-यज्ञ का प्रात:सवन है। (यथा) = जैसे इस (प्रात:सवने) = प्रात:सवन में (सोम:) = शरीर में रस, रुधिर आदि क्रम से उत्पन्न सोम (अश्विनो:) = प्राणापान के साधकों का (प्रियः भवति) = प्रिय होता है। सोमरक्षण से ही प्राणापान की शक्ति बढ़ती है और प्राणसाधना से सोम का रक्षण होता है, (एव) = इसी प्रकार हे (अश्विना) = प्राणापानो! (मे आत्मनि) = मेरी आत्मा में (वर्च: ध्रियताम्) = ब्रह्मवर्चस्-ज्ञानप्रकाश का धारण किया जाए। हम जीवन के इस प्रथम आश्रम में प्राणसाधना द्वारा सोमरक्षण करते हुए ब्रह्मवर्चस्वाले बनें-ज्ञान संचय करें। २. जीवन के अगले ४४ वर्ष माध्यन्दिन सवन है। गृहस्थ का काल ही माध्यन्दिन सवन है। (यथा) = जैसे (द्वितीये सवने) = जीवन के द्वितीये [माध्यन्दिन] सवन में (सोमः) = सोम (इन्द्राग्न्यो: प्रियः भवति) = इन्द्र और अग्नि का प्रिय होता है, अर्थात् जितेन्द्रिय [इन्द्र] व प्रगतिशील [अग्नि] बनकर एक गृहस्थ भी सोम का रक्षण कर पाता है, (एव) = इसी प्रकार हे (इन्द्राग्री) =  जितेन्द्रियता व प्रगतिशीलता! (मे आत्मनि) = मेरे आत्मा में (वर्च:) = शक्ति (धियताम्) = धारण की जाए। गृहस्थ में भी जितेन्द्रिय व प्रगतिशील बनकर हम शक्तिशाली बने रहें। ३. जीवन के अन्तिम ४८ वर्ष जीवन का तृतीय सवन है। (यथा) = जैसे इस (तृतीये सवने) = तृतीय सवन में वानप्रस्थ व संन्यास में (सोमः ऋभूणां प्रियः भवति) = सोम ऋभुओं का [ऋतेन भान्ति, उरु भान्ति वा] प्रिय होता है। ये ऋभ वानप्रस्थ में नित्य स्वाध्याययुक्त होकर ज्ञान से खूब ही दीप्त होते हैं तथा संन्यास में पूर्ण सत्य का पालन करते हुए सत्य से देदीप्यमान होते हैं, एव-इसी प्रकार से ऋभव:-ज्ञानदीस व सत्यदीस व्यक्तियो! मे आत्मनि वर्चः भियताम्-मेरी आत्मा में भी वर्चस् का धारण किया जाए। ज्ञानदीसि व सत्यदीप्ति से मेरा जीवन भी दीप्त हो। ।

    भावार्थ

    हम जीवन में प्रथमाश्रम में प्राणसाधना द्वारा प्राणापान की शक्ति का वर्धन करते हुए सोम का रक्षण करें। गृहस्थ में भी जितेन्द्रिय व प्रगतिशील बनकर सोमी बनें तथा अन्त में ज्ञान व सत्य से दीप्स बनकर सोम-रक्षण द्वारा वर्चस्वी बनें।

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    भाषार्थ

    (प्रातःसवने) प्रातःसवन में (यथा) जैसे (सोमः) सोम (अश्विनोः) दो अश्वियों को (प्रियः भवति) प्रिय होता है, (एवा) इसी प्रकार (अश्विना) हे दो अश्वियो! (मे आत्मनि) मेरी आत्मा में (वर्चः) वर्चस् (ध्रियताम्) स्थापित हो।

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    विषय

    मधुकशा ब्रह्मशक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (यथा) जिस प्रकार (प्रातः सवने) प्रातः सवन अर्थात् वसु-ब्रह्मचर्य के काल में (सोमः) वीर्यशक्ति (अश्विनोः) ब्रह्मचारी के माता पिता को (प्रियः) प्रिय होती है कि मेरे पुत्र में वीर्यशक्ति विद्यमान हो (एवा) उसी प्रकार हे (अश्विनौ) मेरे शरीर में व्यापक हे प्राण और अपान ! (मे आत्मनि) मेरे देह और आत्मा में (वर्चः) ब्रह्मतेज (ध्रियताम्) प्रिय लगे और अतएव स्थिर रहे। अथवा (सोमः) बालक जिस प्रकार (प्रातः सवने) प्रभात के समान बाल्यकाल में (अश्विनोः) मा बाप को (प्रियः भवति) प्यारा लगता है उसी प्रकार हे (अश्विनौ) मा बाप के समान गुरो ! और परमात्मन् ! (मे आत्मनि वर्चः ध्रियताम्) मेरे आत्मा में तेज, प्रकाश प्रिय लगे और अतएव स्थिर रहे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मधुकशा, अश्विनौ च देवताः। मधुसूक्तम्। १, ४, ५ त्रिष्टुभः। २ त्रिष्टुब्गर्भापंक्तिः। ३ पराऽनुष्टुप्। ६ यवमध्या अतिशाक्वरगर्भा महाबृहती। ७ यवमध्या अति जागतगर्भा महाबृहती। ८ बृहतीगर्भा संस्तार पंक्तिः। १० पराउष्णिक् पंक्तिः। ११, १३, १५, १६, १८, १९ अनुष्टुभः। १४ पुर उष्णिक्। १७ उपरिष्टाद् बृहती। २० भुरिग् विस्तारपंक्तिः २१ एकावसाना द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्। २२ त्रिपदा ब्राह्मी पुर उष्णिक्। २३ द्विपदा आर्ची पंक्तिः। २४ त्र्यवसाना षट्पदा अष्टिः। ९ पराबृहती प्रस्तारपंक्तिः॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Madhu Vidya

    Meaning

    Just as soma is dear to the Ashvins in the morning session of yajna, so may the Ashvins, complementary currents of divine energy and the complementary powers of humanity such as father and mother, bring me physical, moral and spiritual lustre and bless me in the soul.

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    Translation

    As at the morning sacrifice (pratah savana), the cure-juice is pleasing to the twins-divine (Asvinau), so may the twinsdivine maintain lustre in my self.

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    Translation

    As the child in the life of celibacy becomes affectionate to both of you. O father and mother ! so you both lay splendor and vigor in my soul.

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    Translation

    Just as a child in early age is dear to father and mother, so may both the Aswins lay splendor and strength within my soul.

    Footnote

    Both the Aswins: Acharya (preceptor) and God. Acharya is Guru and so God is the Guru of Gurus.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(सोमः) ऐश्वर्यवान् बालकः। आत्मा-निरु० १४।१२। (प्रातःसवने) अ० ६।४७।—१। प्रातःकालस्य यज्ञे। शैशव इत्यर्थः (अश्विनोः) अ० २।२९।६। अश्विनौ....राजानौ पुण्यकृतौ-निरु० १२।१। कार्येषु व्याप्तिमतोर्जननीजनकयोः (भवति) (प्रियः) प्रीतिपात्रम् (एव) तथा (मे) मम (अश्विना) हे चतुरमातापितरौ (वर्चः) विद्याप्रकाशः (आत्मनि) अन्तःकरणे (ध्रियताम्) स्थाप्यताम् ॥

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