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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 14
    ऋषिः - अथर्वा देवता - मधु, अश्विनौ छन्दः - पुरउष्णिक् सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
    81

    मधु॑ जनिषीय॒ मधु॑ वंशिषीय। पय॑स्वानग्न॒ आग॑मं॒ तं मा॒ सं सृ॑ज॒ वर्च॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मधु॑ । ज॒नि॒षी॒य॒ । मधु॑ । वं॒शि॒षी॒य॒ । पय॑स्वान् । अ॒ग्ने॒ । आ । अ॒ग॒म॒म् । तम् । मा॒ । सम् । सृ॒ज॒ । वर्च॑सा ॥१.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मधु जनिषीय मधु वंशिषीय। पयस्वानग्न आगमं तं मा सं सृज वर्चसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मधु । जनिषीय । मधु । वंशिषीय । पयस्वान् । अग्ने । आ । अगमम् । तम् । मा । सम् । सृज । वर्चसा ॥१.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 14
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    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (मधु) ज्ञान को (जनिषीय) मैं उत्पन्न करूँ, (मधु) ज्ञान की (वंशिषीय) याचना करूँ। (अग्ने) हे विद्वान् ! (पयस्वान्) गतिवाला मैं (आ अगमम्) आया हूँ, (तम्) उस (मा) मुझको (वर्चसा) [वेदाध्ययन आदि के] प्रकाश से (सम् सृज) संयुक्त कर ॥१४॥

    भावार्थ

    मनुष्य ज्ञान का प्रचार और जिज्ञासा करके संसार में कीर्ति प्राप्त करें ॥१४॥ इस मन्त्र का उत्तर भाग आ चुका है-अ० ७।८९।१ ॥

    टिप्पणी

    १४−(मधु) म० १। ज्ञानम् (जनिषीय) जनी प्रादुर्भावे, छन्दसि प्रादुष्करणे-आशीर्लिङ्। प्रादुष्क्रियासम् (वंशिषीय) वनु याचने-आशीर्लिङि छान्दसं रूपम्। अहं वनिषीय। याचिषीय। अन्यत् पूर्ववत्-अ० ७।८९।१ ॥

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    विषय

    मधु जनिषीय, मधु वंशिषीय

    पदार्थ

    १. (मधु जनिषीय) = मैं अपने जीवन में सोम का रक्षण करता हुआ वर्चस्वी बनकर मधु को ही प्रादुर्भूत करूँ, अर्थात् सदा मधुर शब्द ही बोलू, (मधु वंशिषीय) = मधु की हो याचना करूँ, अर्थात् मेरा स्वभाव मधुर ही हो। हे अग्ने अग्रणी प्रभो! मैं (पयस्वान्) = प्रशस्त ज्ञानदुग्धवाला व शक्तियों को बढ़ानेवाला होकर (आगमम्) = आपके समीप प्राप्त होता हूँ। (तं मा) = उस मुझे आप (वर्चसा संसृज) = वर्चस् से युक्त कीजिए। वर्चस्वी बनकर ही मैं मधुर बन पाऊँगा।

    भावार्थ

    मैं जीवन में मधुर शब्द ही बोलूँ, मधुरता की ही याचना करूँ। मैं शक्तियों को आप्यायित करके प्रभु को प्राप्त होऊँ, प्रभु मुझे वर्चस्वी बनाएँ।

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    भाषार्थ

    (मधु जनिषीय) मधु को मैं [अपने जीवन में] पैदा करूं, (मधु वंसिषीय) मधु की मैं याचना करूं। (अग्ने) हे अग्नि विद्या के जानने वाले (मन्त्र १२) या ज्ञानाग्नि सम्पन्न आचार्य! (पयस्वान्) दूध लेकर (आगमम्) मैं आया हूं, (तम् मा) उस मुझ को, (वर्चसा) माधुर्यरूपी वर्चस् के साथ (संसृज) संसर्ग कर।

    टिप्पणी

    [व्यक्ति निज जीवन में स्वयं भी मधुर होने का यत्न करे, और आचार्य से भी याचना करे कि वह इस सम्बन्ध में उसे मार्ग प्रदर्शन करे। जब आचार्य के पास जाये तो उसे दुग्ध भेंट करे। वंसिषीय=वनु याचने (तनादिः)। सूक्त में "मधुकशा" के मधु का वर्णन है, मधुकशा के माधुर्य के ज्ञापनार्थ "मधु" का वर्णन हुआ है। कशा (चाबुक, तथा वेदवाणी) परिणाम में मधुरूपा ही होती है]

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    Bhajan

    वैदिक मन्त्र
    मधु जनीषीय मधु वंशिषीय। पयस्वानग्न आ गमं तं मा संसृज वर्चसा।।    अथर्व ॰९.१.१४
                             वैदिक भजन
                               राग पहाड़ी
                   गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर
              ‌‌‌‌‌                 ताल अद्धा
    है अन्धेरी कटुता-रात, मधु का होगा कब प्रकाश ? 
    स्वर्णिम उषा आएगी कब? फैले विश्व का प्रताप

    कटुता बढ़ती जा रही है गिर रहा है आज समाज 
    विश्व कैसे बन सकेगा ईश्वरीय सम्राट ।। 

    प्रकृति में जहां देखो मधु बरसा जा रहा है 
    थिरकती है प्राची उषा जग ज्योति को पा रहा है 
    झांकता है सूर्य हरसू मधु बरसाता रहा है
    मुस्कुराता चॉंद देता शीतल किरणों का देता प्रसाद ।। 

    तारिकांए नभ में चमके- मधुरस को बहाती है 
    फूल फल से लदी वाटिका मधुरस को फैलाती है 
    चाहता हूं मधुरस को मैं बिखरने  ना ही दूंगा 
    अपने हृदय की प्याली में इसे संचित कर लूं आज ।। 

    उत्कट मेरी अभिलाषा जानती है मधु की भाषा 
    यदि मधुव्रत कर लूं धारण संकल्प होगा राता
    उत्पन्न कर लूंगा मधु को मधु रंग रहूं बरसाता 
    अन्यों से भी करूं आशा कर लें मधु का वो आयास।। 

    आज से प्रण ले रहा हूं करूंगा क्षरित मधु को 
    सबको देता हूं निमन्त्रण क्षरित मधु एवमतवस्तु हो 
    वाणी मन और कर्म साधूं दूर कटुता से मैं भागूं 
    एक दिन विश्व- समाज लायेगा वो नवप्रभात ।। 

    हे तेजोमय परमात्मन् ! मधु से  मैं हुआ मैं युक्त 
    कर दो वर्चस्व से संयुक्त और कटुता से वियुक्त
     मेघ विद्युत  चमके मधु अंतर वाणी हरखे
      तुम्हरे आनन्द मधु का तेज लाये अंग -अंग में प्रकाश 

    तुमसे मधुकशा हो प्रदान गंगा जमुना के समान 
    अंत:करण हो पवित्र मधु वर्चस्  हो प्रमाण 
    और समष्टि रूप विश्व होता जाए पवमान 
    अग्नि देव परमात्मन् पूर्ण मधु का हो विकास 
    कटुता........ 
           ‌‌‌‌‌   ‌‌‌‌              ९.८.२०२३
       ‌‌‌‌‌‌   ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌                    ९.४० रात्रि
    कटुता= कड़वाहट
    संचित= इकट्ठा करना, जमा करना
    उत्कट=अत्यन्त तीव्र
    राता=रंगा हुआ
    आयास= प्रयत्न, श्रम
    क्षरित=टपका हुआ
    एवमस्तु =ऐसा ही हो
    संयुक्त=मिला हुआ, जुड़ा हुआ
    वियुक्त=अलग हुआ हुआ
    हरखना= प्रसन्न होना
    मधुकशा=मिठास की तीव्र प्रेरणा
    वर्चस= तेज, कान्ति, दीप्ति
    समष्टि=सामूहिक
    पवमान= अत्यन्त पवित्र

    🕉🧘‍♂️द्वितीय श्रंखला का , 127वां वैदिक भजन और अब तक का 1134 वां वैदिक भजन 🙏🎧🌹
    🕉🧘‍♂️वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं❗🌹 🙏

     

    Vyakhya

    मधु जनू ,मधु मांगूं
    आज विश्व में कटुता बढ़ती जा रही है, माधुर्य समाप्त होता जा रहा है। पर यदि हम विश्व को ईश्वरीय साम्राज्य बनाना चाहते हैं, तो इसे हमें मधुमेह बनाना होगा।
    प्रकृति में सर्वत्र मधु बरस रहा है, क्या वहां से हम मधु संचित नहीं कर सकते? प्राची में थिरकती प्रकाशवती ऊषाएं मधु वर्षा रही है।क्षितिज से झांकता हुआ सूर्य मधु बरसा रहा है। शान्त चन्द्रिका के साथ गगन में मुस्कुराता हुआ चांद मधु बरसा रहा है। रात्रि में आकाश में छिड़कती हुई तारिकाएं मधु बरसा रही हैं। हरित पत्रावली का शाल ओढ़े फूलों- फलों से लदी वनस्पतियां मधु बरसा रही हैं। हिमालय के हम धवल शिखर मधु बरसा रहे हैं। झर- झर बहती हुई निर्झरिणियां और पवन- स्पर्श से तरंगित होती हुई सरिताएं मधु बरसा रही हैं । अन्तरिक्षस्थ मेघ से रिमझिम बरसती वर्षाएं मधु बरसा रही हैं। 
    भूमि पर व्याप्त मनमोहक हरियाली मधु बरसा रही है। 
    मैं चाहता हूं कि यह मधु बिखरने ना पाए, यत्न से इसे अपने हृदय की प्याली में संचित कर लूं। 
    मेरी उत्कट अभिलाषा है कि मैं स्वयं मधु जनूं तथा अन्य से भी मधु की ही याचना करूं। एकतरफा प्रयास से जगत् में मधु का प्रवाह नहीं बह सकता। यदि मैं यह व्रत धारण कर लूं, दृढ़ संकल्प कर लूं की आज से मधु ही उत्पन्न करूंगा,अन्यों के प्रति मधु बरसाऊंगा,तभी मैं अन्य से भी आशा कर सकता हूं कि वह भी मेरे प्रति मधु का स्रोत बहाएंगे। अतः मैं आज से यह प्रण लेता हूं कि मैं अपने मन, वाणी और कर्म से मधु को ही क्षरित करूंगा। भाइयों ! इस मधु क्षरण में मैं तुम्हें भी निमन्त्रित करता हूं।  हम -तुम मिलकर यदि मधु क्षरण करें और मध्य में आने वाली कटुता को दूर हटाते चलें तो एक दिन यह विश्व मधु से पूर्णतया भर जाएगा।
    हे अग्नि देव ! हे तेजोमय परमात्मन् ! मैं मधुमय होकर तुम्हारे समीप आया हूं। तुम मुझे वर्चस्व से संयुक्त कर दो, क्योंकि वर्चस्विता- विहीन मधु, सच्चा मधु नहीं है । बादल के मधुमय विद्युत रूप मधुकशा चमकती है, मन के मधु में  आंतरिक वाणी रूप मधुकशा स्फुरित होती है। हे भगवन् ! तुम्हारे आनन्द मधु में भी तेजस्विता रूप 
    मधुकशा प्रज्वलित हो रही है । वह तेजस्विता की मधुकशा तुम मुझे भी प्रदान करो । मधु और वर्चस्व दोनों की गंगा जमुनी धारा मेरे अंतः करण को पवित्र करे ,विश्व के समष्टि- रूप अन्त:करण को भी पवित्र करे। हे देव ! मेरी इस कामना को पूर्ण करो। 

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    विषय

    मधुकशा ब्रह्मशक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    हे परमात्मन् ! मैं (मधु जनिषीय) मधु, मधुर वचन, मधुर ज्ञान और मधुर कर्मफल को उत्पन्न करूं और (मधु) मधु के समान मधुर ज्ञानमय ब्रह्मरस की ही याचना, प्रार्थना करूं। हे (अग्ने) ज्ञानमय प्रभो ! अथवा आचार्य ! मैं तेरे पास (पयस्वान्) दुग्धाहार का व्रत करके शिष्य के समान (आगमम्) आया हूं। (तं मां) इस आप के शिष्य बनने की इच्छा वाले मुझ को (वर्चसा सं सृज) ब्रह्मवर्चस् से युक्त कर। ब्रह्मचर्य का पालन करा। अथवा आचार्य से शिष्य कहता है (मधु जनिषीय) मैं मधु, ब्रह्मविद्या का लाभ करूं। (मधु वंशिषीय) भौंरे के समान विद्वानों के पास जा जा कर मधुर ज्ञानरस का संग्रह करूं। अथवा भिक्षा से प्राप्त अन्न को ग्रहण करूं अर्थात् मधुकरी वृत्ति से जीवन निर्वाह करूं और दुग्धाहार व्रत करके तेरे पास ब्रह्मचर्य की दीक्षा लूं, तू मुझे ब्रह्मवर्चस्वी बना।

    टिप्पणी

    ‘पयोव्रतो ब्राह्मणो यवागूव्रतो राजन्य अमिक्षानतो वैश्यः’।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मधुकशा, अश्विनौ च देवताः। मधुसूक्तम्। १, ४, ५ त्रिष्टुभः। २ त्रिष्टुब्गर्भापंक्तिः। ३ पराऽनुष्टुप्। ६ यवमध्या अतिशाक्वरगर्भा महाबृहती। ७ यवमध्या अति जागतगर्भा महाबृहती। ८ बृहतीगर्भा संस्तार पंक्तिः। १० पराउष्णिक् पंक्तिः। ११, १३, १५, १६, १८, १९ अनुष्टुभः। १४ पुर उष्णिक्। १७ उपरिष्टाद् बृहती। २० भुरिग् विस्तारपंक्तिः २१ एकावसाना द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्। २२ त्रिपदा ब्राह्मी पुर उष्णिक्। २३ द्विपदा आर्ची पंक्तिः। २४ त्र्यवसाना षट्पदा अष्टिः। ९ पराबृहती प्रस्तारपंक्तिः॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Madhu Vidya

    Meaning

    Let me create honey in life. Let me pray for and achieve the honey sweets of life. Hey Agni, yajnic fire of discipline, brilliant teacher, I have come with milk in homage. Pray bless me with the light and lustre of spirit, character and knowledge.

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    Translation

    May I create sweetness. May I receive sweetness. O adorable Lord, exuberant, I have come to you. As such may you endow me with lustre.

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    Translation

    O teacher! you are celebrated with knowledge. May I bring forth sweetness and wisdom may I ask you to give me sweetness with good understanding in my life. I have approached you and you bestow on me splendor and vigor.

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    Translation

    May I advance knowledge. May I pray for knowledge. O preceptor, I, an energetic pupil, have come! Bestow splendour and strength on me,

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(मधु) म० १। ज्ञानम् (जनिषीय) जनी प्रादुर्भावे, छन्दसि प्रादुष्करणे-आशीर्लिङ्। प्रादुष्क्रियासम् (वंशिषीय) वनु याचने-आशीर्लिङि छान्दसं रूपम्। अहं वनिषीय। याचिषीय। अन्यत् पूर्ववत्-अ० ७।८९।१ ॥

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